सावन्तवाडी भाग-१

बचपन में मई की छुट्टियों में हमारी स्कूल के अधिकतर छात्र अपने गाँव जाते थे। उनमें भी कोकण जानेवाले छात्रों की संख्या अधिक रहती थी और वैसे भी कोकण से तो मेरा परिचय पहले से ही था।

कोकण कहते ही आज भी याद आती है, लाल मिट्टी उड़ाते हुए जा रही एस्. टी. की लाल-पीले रंग की बस, दूर दूर तक फैले हुए हरे भरे खेत खलिहान और जंगल, कई मोड़वाली सड़कें, घाट और इसी सफ़र में अचानक से सामने आ जानेवाला शान्त सागरकिनारा। कोकण के किसी भी गाँव में आप जाइए, लाल मिट्टी आपका साथ नहीं छोड़ेगी और आपकी मुलाक़ात होगी, छोटे बड़े लाल रंग के खपरैलवाले घरों से, नारियल, सुपारी, आम, काजू के पेड़ों से। इन सबके साथ कोकण में मिलती है, भरपूर ऑक्सिजनयुक्त हवा और जी हाँ सुकून भी। कोकण के सफ़र में हरे भरे पत्तों की इतनी छटाएँ दिखायी देती हैं कि जिन्हें देखने के बाद हरे रंग में भी कितनी विविधता हो सकती है यह हमें ज्ञात होता है।

संक्षेप में कहा जाये तो कोकण यानि हरियाली, लाल मिट्टी, खपरैलवाले घर, अथाह फैला हुआ नीला सागर, उसके किनारे पर कभी काली रेत तो कभी सफ़ेद रेत इस तरह का रंगों का सम्मेलन और साथ ही किसी ख़ामोश रात में किसी मंदिर में से सुनायी देनेवाले भजन के भावमधुर सुर।

कोकण का वर्णन, जितना किया जाये उतना कम ही है। फिर महज़ उसके बारे में पढने से बेहतर है कि कोकण की सुन्दरता को स्वयं जाकर देख लें।

‘कोकण’ यह महराष्ट्र का एक प्रदेश है। कोकण का यह प्रदेश सह्याद्रि पर्वतशृंखला से बना है, सदा ही सागर के साथ जिसका अटूट संबंध रहा है; वहीं महाराष्ट्र का दूसरा विभाग है, समतल प्रदेश (पठार)।

आज हम महाराष्ट्र के कोकण के दक्षिणी छोर में बसे एक गाँव में चलते हैं, कोकण को अनुभव करने के लिए। उस जगह का नाम है, ‘सावन्तवाडी’। यह सिन्धुदुर्ग में बसा एक छोटा सा शहर है।

कुछ दशक पूर्व कोकण के किसी भी गाँव में जाने के लिए केवल एस्. टी. बस का ही मार्ग उपलब्ध था, क्योंकि तब तक कोकण में रेलमार्ग नहीं बना था। लेकिन अब कोकण में भी रेल शुरू हो चुकी है और कोकण की एवं उसकी घाटियों की सुन्दरता को देखना अब और भी आसान हो गया है।

कुदरत ने सुन्दरता का खज़ाना ही इस कोकण की भूमि पर निछावर कर दिया है, ऐसा कहना ग़ैरमुनासिब नहीं होगा। कहा जाता है कि इसी वजह से ‘सावन्तवाडी’ को पहले ‘सुन्दरवाडी’ कहा जाता था।

कोकण की एक ख़ासियत यह भी है कि यहाँ के तेज़ गर्मी के मौसम की तरह यहाँ की बरसात भी धुआँधार होती है और इसीलिए यहाँ पर हरियाली छायी रहती है।

कोकण कहते ही ‘आम’ (मँगो) याद न आये, यह तो हो ही नहीं सकता। आज कल कई जगह आम का उत्पाद किया जाता है। मग़र आज भी ‘हापूस आम’ कहते ही ‘कोकण का राजा’ ये शब्द ही होंठों पर आ जाते हैं। यह कोकण का राजा इतना मशहूर है कि त्योहारों के व़क़्त भी उसे याद किया जाता है। महाराष्ट्र में ‘मंगळागौर’ नाम का एक त्योहार महिलाओं द्वारा मनाया जाता है, जिसमें रात भर जागते हुए विभिन्न प्रकार के खेल खेले जाते हैं और उन्हें खेलते हुए गीत भी गाये जाते हैं। इन्हीं खेलों में से एक खेल है – ‘झिम्मा’। झिम्मा खेलते हुए एक पारंपरिक गीत गाया जाता है। ‘आम पकता है, रस टपकता है। कोकण का राजा झिम्मा खेलता है॥

बच्चों के एक खेल में भी इसी तरह कोकण में विपुल प्रमाण में पाये जानेवाले कटहल का उल्लेख किया गया है। कोकण कहते ही आम, काजू, नारियल, सुपारी, कोकम, कटहल की याद आती ही है। कोकण जानेवाले, इनमें से जिन फलों के पकने के मौसम में वहाँ जाते हैं, तो अपने साथ उन फलों को अवश्य ले आते हैं।

बाप रे! हमारी गाड़ी सावन्तवाडी जाने के बजाय कोकण के फलों की ओर जाने लगी! तो चलिए, सावन्तवाडी की ओर रुख करते हैं।

यह छोटी सी सावन्तवाडी पहले ‘सावन्तवाडी रियासत’ की राजधानी थी। इसका अर्थ यह है कि यहाँ पर पुराने समय में राजा महाराजाओं का शासन था। आज की सावन्तवाडी ने भी उनके निशान बड़े गौरव के साथ जनत किये हैं। सावन्तवाडी का राजमहल उस समय की रियासत की गवाही देता है। आज भी सावन्तवाडी के उन शासकों के वंशज यहाँ बस रहे हैं।

‘सुन्दरवाडी’ का रूपान्तरण ‘सावन्तवाडी’ में कैसे हुआ, इस बारे में एक हक़ीकत कही जाती है और उस घटना में ही ‘सावन्तवाडी’ रियासत की नींव मौजूद है।

इस भूमि पर साधारणत: सतरहवीं सदी में ‘खेम सावन्त १’ ने अपनी सत्ता स्थापित की और यहीं से सावन्तवाडी रियासत की नींव रखी गयी। आगे चलकर स्थापनकर्ता के नाम से ‘सुन्दरवाडी’ के बजाय इस रियासत का नाम ‘सावन्तवाडी’ हो गया।

हालाँकि इससे पहले का कुछ इतिहास मिलता तो है, लेकिन वह अधिक विस्तृत नहीं है। सिर्फ़ विभिन्न कालख़ण्डों में यहाँ पर किस किस शासक का राज था, इसकी जानकारी मिलती है।

छठीं सदी से लेकर आठवीं सदी तक चालुक्यों ने यहाँ पर राज किया। दसवीं सदी में यादव वंश का शासन यहाँ पर था। तेरहवीं सदी में कल्याण के चालुक्यों के अधिपत्य में यह प्रदेश था। उसके बाद विजयनगर के सम्राट द्वारा नियुक्त किये गये शासक के अधिपत्य में इस प्रदेश का कारोबार चल रहा था। इतिहास में कुछ स्थानों पर ‘सावन्तवाडी’ का ज़िक्र ‘वाडी’ इस नाम से भी किया गया है।

सतरहवीं सदी में राज्य स्थापित होने के बाद कुछ ही समय में सावन्तवाडी यहाँ के शासकों की राजधानी बन गयी। इसके बाद सावन्त और उनके वंशजों ने यहाँ पर शासन किया।

शुरुआती दौर में जब इस रियासत की स्थापना हुई, तब इसके आसपास के कई गाँवों का भी इसमें समावेश किया गया। कुडाळ, वेंगुर्ला, बिचोलिम, पेडणे, सत्तारी ये उनमें से कुछ गाँवों के नाम हैं।

आगे चलकर समय के विभिन्न पड़ावों पर हुए सत्ता संघर्ष में सावन्तवाडी रियासत के रूप एवं आकार में परिवर्तन भी होता रहा।

सावन्तवाडी कोकण में ऐसी जगह बसा है, जहाँ से चंद कुछ घण्टों का स़ङ्गर करने के बाद हम पड़ोस के गोवा राज्य में दाखिल हो जाते हैं।

सतरहवीं सदी में स्थापित हुए सावन्तवाडी को भी भारत में आने के बाद अँग्रेज़ों ने अपने कब्ज़े में कर लिया। आगे चलकर भारत के आज़ाद हो जाने के बाद उसका समावेश भारतीय संघराज्य में किया गया और ‘महाराष्ट्र’ राज्य की स्थापना के साथ साथ वह महाराष्ट्र राज्य के तालुके का शहर बन गया।

पुराने समय से सावन्तवाडी का रिश्ता एक अनोखी बात के साथ रहा है। हमारे बचपन में प्लास्टिक, मेटल आदि से बने खिलौनें बहुत ही कम मिलते थे और लकड़ी से बने खिलौने ही अधिकतर पाये जाते थे। लकड़ी से बने फल, लकड़ी से बनीं गाड़ियाँ, लकड़ी की गुड़िया और बहुत कुछ। तो ऐसे लकड़ी से बननेवाले खिलौनों के साथ सावन्तवाडी का रिश्ता काफ़ी पुराना है, क्योंकि सावन्तवाडी में बननेवाले लकड़ी के खिलौनें पहले भी मशहूर थे और आज भी हैं। लेकिन यहाँ पर सिर्फ़ लकड़ी से खिलौनें ही बनाये जाते हैं ऐसा मत सोचिए; बल्कि लकड़ी से बनीं शो-पीस वगैरा कई वस्तुओं को भी यहाँ पर बनाया जाता है। आज भी कई जगह सावन्तवाडी के ये मशहूर खिलौनें और वस्तुएँ मिलती हैं।

सावन्तवाडी के इतिहास को जानने के बाद आइए इस छोटे से शहर की सैर करते हैं।

इस शहर के बीचों बीच ‘मोती तालाब’ नाम का एक सुन्दर तालाब है और इस तालाब के इर्द गिर्द ही इस शहर के महत्त्वपूर्ण स्थान बसे हैं।

मोती तालाब के पास खड़े रहकर देखें तो दिखायी देता है, यहाँ का राजमहल

लाल और सफ़ेद पत्थरों से बनी यह वास्तु देखते ही मन को मोह लेती है। अठारहवीं सदी के अन्त में इसका निर्माण किया गया, ऐसा कहा जाता है। अठारहवीं सदी के अन्त से लेकर उन्नीसवीं सदी के कुछ शुरुआती वर्षों तक की अवधि में इसका निर्माण किया गया।

यहाँ के ‘लेस्टर गेट’ नाम के प्रवेशद्वार में से प्रवेश करते ही हम राजमहल के अहाते में पहुँच जाते हैं। राजमहल में सावत्नवाडी के गतकालीन शासकों के छायाचित्र, विभिन्न प्रकार के आभूषण, युद्ध के लिए इस्तेमाल किये जानेवाले विभिन्न प्रकार के शस्त्र-अस्त्र हैं। पुराने ज़माने में शिकार किये गये जानवरों की खाल में घास-फूस या भूसा भरकर उन्हें मूल रूप में सुरक्षित रखा गया है। यहाँ के शासकों का चाँदी का सिंहासन भी यहाँ पर है। इस तरह अतीत को जीवित करनेवाली कई बातें यहाँ पर दिखायी देती हैं।

साथ ही विभिन्न वस्तुओं के माध्यम से अतीत को पुनर्जीवित करनेवाला यहाँ का ‘दरबार हॉल’ भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। सबसे मुख्य बात यह है की इसी राजमहल में सावन्तवाडी के रियासतदारों के वंशजों ने एक महत्त्वपूर्ण कला को भी जतन किया है। पहले हमने जिसका ज़िक्र किया, उस लकड़ी से विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करने की कला को और साथ ही ‘गंजफ़ा’ नामक एक अन्य कला को भी इस राजमहल ने सुरक्षित रखा, जतन किया और अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया। लेकिन इस कला के प्रदेश की सैर करने के लिए हमें ह़फ़्ते भर इंतज़ार करना पड़ेगा।

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