सावन्तवाडी भाग-२

बहुत ही आह्लाददायक तरोताज़ा आबोहवा, मन को सुकून दिलानेवाली शान्ति, चारों ओर दिखायी देनेवाली हरियाली, बीच बीच में दिखायी देनेवाले खपरैले घर, गले में बँधी हुई घण्टा की मधुर ध्वनि के साथ बैलगाड़ी खींचनेवाले बैल इस तरह सफ़र करते हुए पिछले ह़फ़्ते ही हम कुदरती सुन्दरता से परिपूर्ण रहनेवाले सावन्तवाडी में दाखिल हो चुके हैं। आज हमें ‘सावन्तवाडी’ का ‘गौरवस्थान’ रहनेवाली दो विशेष कलाओं की जानकारी प्राप्त करनी है। तो चलिए, फिर एक बार राजमहल चलते हैं।

लकड़ी से विशिष्ट पद्धति से बनायी जानेवाली वस्तुएँ, जिसे अँग्रेज़ी में ‘लॅक् वेर’ कहा जाता है, यह है एक कलाप्रकार और दुसरा कलाप्रकार है – ‘गंजीफ़ा’-दशावतारी गंजीफ़ा।

सावन्तवाडी में पुराने समय से इन वस्तुओं का निर्माण किया जा रहा है। दर असल इन दोनों का नाम लेते ही सावन्तवाडी की झट से याद आती है, इतनी ये दोनों बातें सावन्तवाडी के साथ जुड़ी हुई हैं। समय के साथ साथ जिस तरह कई कलाप्रकार लुप्त हो जाते है, ऐसा ही कुछ हद तक इस कला के साथ भी हुआ था। समय के एक पड़ाव पर इस कला को जतन करनेवाले चंद पाच-सात कलाकार ही सावन्तवाडी में बाक़ी रह गये थे। तब सावन्तवाडी के शासकों के विद्यमान वंशजों ने इन कलाप्रकारों को जीवित रखने के लिए हर संभव प्रयास किये। आज यहाँ के राजमहल के दरबार हॉल में इन कलाप्रकारों से संबंधित निर्माण कार्य किया जा रहा है। इसीलिए मैंने कहा कि इन कलाप्रकारों को देखने के लिए राजमहल चलते हैं।

आज सावन्तवाडी की वह शानदार कला पुन: दुनिया के सामने आ चुकी है।

दर असल लकड़ी से विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करने में ऐसी ख़ास बात क्या है, यह आपको लगा होगा। क्योंकि हम रोजमर्रा के जीवन में लकड़ी से बनी कई वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं। सावन्तवाडी की इस कला की ख़ासियत जानने के लिए आइए इस विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करते हैं।

‘लॅक् वेर’ यानि लकड़ी पर लाह (लाख) का मुलम्मा देकर बनायी गयी वस्तुएँ। सबसे अहम बात यह है कि लकड़ी से बनी अन्य वस्तुओं से ये वस्तुएँ, उन्हें देखते ही अलग महसूल होती हैं। लाह के मुलम्मे के कारण इन पर एक अनोखी ही चमक (ग्लो) होती है। साथ ही इस प्रक्रिया के कारण इन वस्तुओं की आयुर्मर्यादा भी बढ़ती है और इसीलिए ये वस्तुएँ कई सालों तक ज्यों कि त्यों रहती हैं। इनका निर्माण हाथ से किया जाता है और लाह का मुलम्मा देने के बाद भी ज़रूरत पड़ने पर इन पर पॉलिश किया जाता है। ऐसा पढ़ने में आया कि सावन्तवाडी में इन वस्तुओं को इस तरह पॉलिश करने के लिए केवड़े के पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है। लकड़ी पर दिया गया लाह का मुलम्मा सूखने के बाद ही इन्हें रंग दिया जाता है।

कहते हैं कि लगभग तीन सौ-साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व सावन्तवाडी में यह कला उद्गमित हुई और साथ ही इस कला का प्रशिक्षण देने की भी शुरुआत हुई। आगे चलकर सावन्तवाडी में यह ‘लॅक् वेर’ कला विकसित होती रही। इन कारीगरों को ‘चितारी’ या ‘चित्रकार’ कहा जाता था।

ग़ौर करने लायक बात यह है कि पुराने समय में भारत आये कुछ विदेशी लोग इनमें से कुछ वस्तुओं को अपने साथ अपने देश ले गये और आज भी वे वस्तुएँ उन देशों के संग्रहालय (म्युज़ियम) का एक हिस्सा बनी हैं।

इस ‘लॅक् वेर’ में क्या कुछ नहीं है। छोटी सी बैलगाड़ी से लेकर, बस, कई तरह की गुड़ियाएँ यहाँ बनायी जाती हैं। इतना ही नहीं, बल्कि हमारे परिचय के कई फल भी लकड़ी से बनाये जाते हैं। ये फल दिखने में हूबहू असली फलों जैसे दिखायी देते हैं और यदि अनजाने में उन्हें असली फलों के स्थान पर रख दिया जाये तो खानेवाला उन्हें आसानी से उठाकर अपने मुँह तक ले जायेगा।

दर असल आशिया खण्ड में पुराने समय से इस तरह लकड़ी पर लाह का मुलम्मा देकर फिर उस पर रंग चढ़ाया जाता रहा है, ऐसा कहा जाता है।

सावन्तवाडी की दुसरी ख़ासियत है-‘गंजीफ़ा’। हमारे आज के युग के लिए यह कलाप्रकार सर्वथा नया ही है, ऐसा कह सकते हैं। इस ‘गंजीफ़ा’ कला को भी सावन्तवाडी शासकों के विद्यमान वंशजों ने पुनरुज्जीवित किया। इसीलिए लक़ड़ी से संबंधित कला की तरह ‘गंजीफ़ा’ इस कला का भी राजमहल यह एक बहुत बड़ा वर्कशॉप है, ऐसा भी कह सकते हैं।

दर असल ‘गंजीफ़ा’ यह शब्द आज शायद बहुत ही कम लोग जानते होंगे और ‘गंजीफ़ा’ इस नाम से भी इसके बारे में कुछ समझ में नहीं आता। चलिए, तो फिर ‘गंजीफ़ा’ इस शब्द की जड़ तक जाकर इसके बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

इन्सान ने पुराने ज़माने से अपने मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार के खेल ढू़ँढ निकाले है। उनमें से ही एक है ‘गंजीफ़ा’। हम ताश के बारे में जानते ही हैं। गंजीफ़ा को एक तरह का पुराना ताश जैसा खेल कहा जा सकता है।

‘गंजीफ़ा’ इस शब्द का अर्थ ही ‘खेलने के ताश के पत्ते’ ऐसा है। इसका उद्गम पर्शिया में हुआ ऐसा भी कहा जाता है और मुगलों के साथ वह यहाँ आ गया ऐसा भी मानते हैं।

लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व सावन्तवाडी में इस खेल का प्रवेश हुआ ऐसा कहते हैं। बंगाल, उड़ीसा, कडप्पा, जयपुर जैसे भारत के अन्य स्थानों में भी यह खेल खेला जाता था। अनुसन्धानकर्ताओं की राय में, आठवीं सदी में बंगाल में विष्णुपुर के मल्ल राजा ने इस खेल की शुरुवात की।
सबसे पहले यह गंजीफ़ा क्या है, इसके बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

ताश के पत्ते तो आपने देखे ही होंगे। वे आयत (रेक्टँगल) के आकार के होते हैं। उन पर एक तरफ़ कुछ चित्र, ऩक़्क़ाशियाँ आदि बातें रहती हैं; वहीं दूसरी तरफ स़फेद रंग पर काला पान (स्पेड), लाल पान (हार्ट), ईंट (डायमण्ड) और चिड़िया का पान (क्लब) ये चिह्न एवं राजा, रानी, ग़ुलाम इनकी आकृतियाँ रहती हैं। काला पान, लाल पान इनके पत्तों पर एक से दस तक के अंक रहते हैं। यह हुआ आज के ताश के पत्तों का स्वरूप।

गंजीफ़ा के पत्ते गोल आकार के रहते हैं। उन पत्तों के एक तरफ़ विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ रहती हैं और उसके अनुसार इस गंजीफ़ा के प्रकार होते हैं। हम सावन्तवाडी के जिस दशावतारी गंजीफ़ा के बारे में बात कर रहे हैं, वह उन्हीं में से एक है।

‘दशावतार’ इस शब्द से ही आपकी शायद समझ में आ गया होगा कि इसका संबंध विष्णु के दस अवतारों के साथ होगा। जी हाँ! ‘दशावतारी गंजीफ़ा’ के प्रत्येक गोलाकार पत्ते पर विष्णु के एक एक अवतार के चित्र रहते हैं।

इस दशावतारी गंजीफ़ा में विष्णु के दशावतार के चित्रवाले पत्तों के साथ वज़ीर और राजा के भी पत्ते रहते हैं और साथ ही एक से दस तक अंक लिखे हुए पत्ते भी रहते हैं। इस तरह एक कॅट में कुल १२० पत्ते रहते हैं। कुल तीन लोग इस खेल को खेलते हैं और खेल के अन्त में जिसके हाथ में अधिक से अधिक पत्ते रहते हैं, वही जीतता है।

गंजीफ़ा के बारे में यह जानकारी उपलब्ध है, लेकिन आज कितने लोग इसे कैसे खेलते हैं यह जानते हैं, यह यक़ीनन नहीं कहा जा सकता।
गंजीफ़ा के कुछ प्रकारों में कुल ९६ पत्ते रहते हैं। गंजीफ़ा के विभिन्न प्रकारों के नाम भी अलग हैं। मुलशर, कडप्पा, नवग्रह, चंगकांचन इस तरह के उनके नाम हैं।

आज हालाँकि गंजीफ़ा खेला न भी जाता हो, लेकिन विदेश के म्युज़ियम्स में दर्शकों को इसकी जानकारी मिले इसलिए उसके पत्ते रखे गये हैं।
पुराने समय में जब राजा महाराजा इसे खेलते थे, तब इसे हाथी के दाँतों से बनाया जाता था। राजा महाराजाओं के ज़माने में इस खेल को इतनी शोहरत हासिल थी कि दोस्तों या मेहमानों को राजा महाराजा भेंटस्वरूप में गंजीफ़ा देते थे। आगे चलकर जनसामान्य भी इसे खेलने लगे और तब इसके पत्तों का निर्माण कागज़ से किया जाने लगा।

गंजीफ़ा के पत्तों को बनाते हुए विशिष्ट गोल आकार में कागज़ को काटकर उसपर आकृति एवं अंक रेखांकित किया जाता है। जैसे, दशावतारी गंजीफ़ा में दस अवतारों के चित्र रेखांकित किये जाते हैं। फिर उन पत्तों पर लाह का मुलम्मा दिया जाता है, जिससे कि उस पत्ते की उम्र और सुन्दरता दोनों भी बढ़ते हैं।

यह संपूर्ण प्रक्रिया पढ़ने और दिखने में आसान तो लगती है, लेकिन कहा जाता है कि १२० पत्तों के पाँच सेट बनाने के लिए लगभग बीस – बाईस कारीगरों की टीम को दो ह़फ़्तों तक काम करना पड़ता है। इसका अर्थ यह है कि यह उतना आसान काम नहीं है, जितना वह आसान लगता है।

तो इस तरह इतनी मेहनत से बनाये गये गंजीफ़ा के पत्तों को रखने के लिए उतने ही सुन्दर बॉक्स का होना भी अनिवार्य ही है। यहाँ पर बड़ी मेहनत से सुन्दर सुन्दर बॉक्स भी बनाये जाते हैं।

देखिए, सावन्तवाडी के इए कलावैभव की जानकारी प्राप्त करते करते दिन ढल भी गया। लेकिन सावन्तवाडी के आसपास की कुदरती सुन्दरता को देखे बिना ही सावन्तवाडी से लौटना मुनासिब नहीं है।

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