श्‍वसनसंस्था – २८

कुछ दिन पहले श्वसनसंस्था के कार्यों के बारे में जानने की शुरुआत की। शुरुआत से ही हमने समझ लिया कि वायु का आदान-प्रदान ही श्वसन का मुख्य ध्येय है। वायु का यह आदान-प्रदान फेफड़ो के अलविओलाय और फेफड़ों की केशवाहिनियों के बीच होता है।

अलविओलाय में हवा लगातार अंदर-बाहर आती-जाती रहती है। ऐसा श्वसन के कारण होता है। इस क्रिया को वैद्यकीय भाषा में ‘अलविओलार वेंटिलेशन’ कहते हैं। यानी अलविओलाय का वेंटिलेशन वायु के आदान-प्रदान में एक महत्त्वपूर्ण घटक है।

पूरे शरीर का अशुद्ध रक्त यानी जिसमें प्राणवायु की मात्रा कम है और कार्बनडायऑक्साइड की मात्रा ज्यादा है वह रक्त, हृदय के दाहिनी ओर आता है। दाहिने वेंट्रिकल में से यह रक्त फेफड़ों की रक्तवाहनियों में आता है। आगे वो फेफड़ों की केशवाहनियों में से प्रवास करता है। रक्त के इस प्रवास को ‘परफ्यूजन’ कहते हैं। वायु के आदान-प्रदान का यह दूसरा महत्त्वपूर्ण घटक है।

फेफड़ों के प्रत्येक अलविओलस के चारों ओर केशवाहनियों के जाले होते हैं। प्रत्येक अलविओलस की हवा में से प्राणवायु केशवाहनियों में प्रवेश करती है और उन केशवाहनियों की कार्बनडाय ऑक्साइड अलविओलस में प्रवेश करती है। यह आदान-प्रदान प्रत्येक अलविओलस में प्रत्येक श्वास दौरान होता रहता है, ऐसा माना जाता है। परन्तु ऐसी परिस्थिति शरीर में सामान्य अवस्था में भी नहीं होती। बिलकुल नॉर्मल फेफड़ों में भी अलविओलाय पूरी तरह ‘वेंटिलेट’ नहीं होते। यानी उनमें पर्याप्त मात्रा में हवा नहीं आती। कभी-कभी अलविओलाय के चारों ओर की केशवाहनियों से पर्याप्त मात्रा में रक्त प्रवाहित नहीं होता यानी परफ्यूजन कम होता है। फेफड़ों की बीमारियों के दौरान तो कुछ अलविओलाय में हवा बिलकुल ही नहीं आती। यानी यहाँ पर वेंटिलेशन शून्य होता है। इसी तरह कभी-कभी फेफड़ों के किसी भाग से रक्त का प्रवाह ही नहीं होता, ऐसे समय में फेफड़ों के भाग का परफ्युजन शून्य होता है। उपरोक्त दोनों स्थितियों में दूसरी चीज नॉर्मल हो सकती है। वेंटिलेशन शून्य परन्तु परफ्यूजन १०० प्रतिशत और परफ्यूजन शून्य तथा वेंटिलेशन शत-प्रतिशत ऐसी स्थिति भी हो सकती है। श्वास के रास्ते से फेफड़ों में आनेवाली हवा में से कितनी मात्रा में प्राणवायु रक्त में प्रवेश करती है और कितनी कार्बनडायऑक्साइड रक्त में से बाहर निकलती है। यें वेंटिलेशन और परफ्युजन के संबंधों पर निर्भर है। इसी संबंध को ही वेंटिलेशन-परफ्यूजन रेशो कहते हैं।

वेंटिलेशन-परफ्यूजन रेशो को VA/Q लिखते हैं। इसमें VA यानी अलविओलार वेंटिलेशन और Q यानी परफ्यूजन जब वेंटिलेशन और परफ्यूजन दोनों नॉर्मल होते हैं तो यह रेशो भी नॉर्मल होता है।

यदि वेंटिलेशन शून्य और परफ्यूजन नॉर्मल हो तो यह रेशो (अनुपात) भी शून्य हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जिस समय अलविओलाय में हवा बिलकुल नहीं आती उस समय रक्त में प्राणवायु (oxygen) की मात्रा में वृद्धि नहीं होती तथा कार्बनडायऑक्साइड की मात्रा में कमी नहीं होती। फेफड़ों में आनेवाला रक्त अशुद्ध यानी वेनस रक्त होता है (वेनस के माध्यम से आनेवाला)। इस रक्त में Po2 की मात्रा सिर्फ ४० mm of Hg होती है तथा Po2 ४० mm Hg होती है। फेफड़ों के जिस भाग में प्राणवायु की मात्रा शून्य होती है, उस भाग में प्रवाहित होनेवाला रक्त शुद्ध नहीं होती। यह अशुद्ध रक्त, शुद्ध रक्त में जाकर मिलता है। जब शरीर रचना में दोष के कारण शुद्ध और अशुद्ध रक्त आपस में मिश्रित होते हैं तो उसे अनॅटोमिक शंट कहते हैं। शरीर के कार्यों के दोष के कारण जब ऐसा होता है तो उसे फिजिऑलॉजिक शंट कहते हैं। फिजिऑलॉजिक शंट जितनी ज्यादा मात्रा में होता है उतनी ही मात्रा में फेफड़ों में आनेवाला रक्त प्राणवायु से वंचित रह जाता है।

अभी हमने यह देखा कि जब वेंटीलेशन शून्य होता है तो क्या होता है, अब हम इसके विपरित, परफ्यूजन शून्य होने पर क्या होता है, इसकी जानकारी प्राप्त करेंगे। फेफड़ों के किसी एक भाग में अलविओलर वेंटिलेशन नॉर्मल है और रक्तप्रवाह बाधित हो गया हो तो अलविओलाय में मौजूद हवा वैसी की वैसी ही रहती है। वायू का आदान-प्रदान बिलकुल नहीं होता। इससे पहले श्वसनसंस्था के बारे में अध्ययन करते समय हमने देखा था कि श्वसनमार्ग के जिस भाग में मौजूद हवा श्वसनकार्य में सहभागी नहीं होती, उस भाग को अनॉटोमिक डेड स्पेस कहते हैं। साथ ही साथ जब परफ्यूजन शून्य होता है तो श्वसन के कार्य व्यर्थ जाते हैं। क्योंकि अंदर ली गयी हवा में उपस्थित प्राणवायु रक्त तक पहुँचती ही नहीं है। यानी फेफड़े के उस भाग में एक नई डेड स्पेस तैयार हो जाती है। फेफड़ों के कार्यों में दोष के कारण निर्माण हुई डेड स्पेस तथा अनॉटोमिक डेड स्पेस के अंतर के फिजिऑलॉजिकल डेड स्पेस कहते हैं। नॉर्मल फेफड़ों में भी फिजिऑलॉजिकल डेड स्पेस तथा फिजिऑलॉजिकल शंट होते हैं।

नॉर्मल फेफड़ों के ऊपरी हिस्से की ओर रक्तप्रवाह और वेंटिलेशन दोनों कम होते हैं। उसमें भी वेंटिलेशन की तुलना में रक्तप्रवाह में कमी ज्यादा होती है। इसी लिये यहाँ पर फिजिऑलॉजिकल डेड स्पेस होती है।

नॉर्मल फेफड़ों के बेस यानी निचले हिस्से में वेंटिलेशन काफी कम होता है। रक्तप्रवाह नॉर्मल होता है या ज्यादा भी होता है। इसी लिये यहाँ पर रक्त में प्राणवायु नहीं घुलती अथवा कम मात्रा में मिश्रित होती है। फलस्वरूप इस भाग में फिजिऑलॉजिक शंट तैयार होता हैं।

फेफड़ों की कुछ बीमारीयों में फिजिऑलॉजिकल डेड स्पेस बढ़ जाता है। तो कुछ बीमारियों में फिजिऑलॉजिकल शंट बढ़ जाता है। धूम्रपान करनेवाले व्यक्तियों में कुछ जगह डेड स्पेस बढ़ा हुआ होता है तो कुछ स्थानों पर शंट ज्यादा होता है।

उपरोक्त संपूर्ण जानकारी का सारांश यह है कि श्वास के माध्यम से ली गयी हवा में उपस्थित प्राणवायु की ज्यादा से ज्यादा मात्रा को रक्त में मिश्रित करना और रक्त में उपस्थित कार्बनडायऑक्साइड की ज्यादा से ज्यादा मात्रा बाहर निकालना, शरीर की ज़रूरत है। फेफड़ों की बीमारियों के कारण इस कार्य में बाधा उत्पन्न हो जाने पर उस व्यक्ति में दम लगना, श्वास का तेज़ तथा जोर से चलना, नाखून, होंठ, जीभ का नीला दिखायी देना इत्यादि लक्षण दिखायी देने लगते हैं।(क्रमश:)

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