श्‍वसनसंस्था- ११

हम अपनी श्‍वसनसंस्था के कार्यों की जानकारी प्राप्त कर रहे हैं। फेफड़ों के अंदर बाहर होनेवाले वायुप्रवास (Pulmonary Ventilation) के बारे में अध्ययन कर रहे हैं। श्‍वास और उच्छ्वास के दौरान फेफड़े छोटे-बड़े कैसे होते हैं, इसका अध्ययन हमनें किया। छाती के पिंजरे से जुडे हुए स्नायु और द्विभाजक परदे के महत्त्व को जाना। स्नायु के यह कार्य यांत्रिक शक्ती (mechanical force) का उदाहरण हैं। इन कार्यों के फलस्वरूप छाती के पिंजरे का आकार कम-ज्यादा होता है और फेफड़ों के लिये आकुंचन एवं प्रसरण आसान हो जाता है। हवा के प्रवाह के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं होता। प्रत्यक्ष रूप में फेफड़ों में हवा कैसे आती है, कैसे वहाँ पर बनी रहती है और किस प्रकार बाहर निकलती है यह महत्त्वपूर्ण है। श्‍वास क्रिया के दरम्यान कभी-भी हमारे फेफड़े पूरी तरह रिक्त नहीं होते। यदि पूरी ताकत के साथ उच्छ्वासित किया जाये तब भी थोड़ी हवा फेफड़ों में शेष रह ही जाती है। यह किस प्रकार से होता है? इसके लिए कौन-कौन सी शक्तियाँ काम करती हैं, अब हमें यह जानना हैं। इसके लिये हमें अपने फेफड़ों के कुछ गुणधर्मों के बारे में समझना होगा।

हमारे फेफड़ें पूरी तरह ‘इलॅस्टिक’ होते हैं, किसी रबर के गुब्बारे की तरह ही जब हम किसी रबर के गुब्बारे को फुलाते हैं तो वो हवा से फूल तो जाता है परन्तु यदि हम उसमें भरी हुई हवा को उसमें रोकने का कुछ उपाय न करें तो भरी हुई हवा पूरी तरह बाहर निकल जाती है और गुब्बारा पूण रूर्पेण रिक्त हो जाता है। फेफड़ों के बारे में भी ऐसा ही होता है। श्‍वास लेते समय हवा अंदर आने से फेफड़े फूलते हैं और श्‍वास बाहर निकालते समय इसके अंदर की सारी हवा श्‍वसन मार्ग से बाहर निकल जाती है और फेफड़े सिकुड़ जाते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं होता।इसके कारण की जानकारी हम आगे लेनेवाले हैं।

श्‍वसन मार्ग और रक्तवाहनियों के माध्यम से हमारे फेफड़े शरीर से जुड़े होते हैं। इनके आधार से छाती के पिंजरे में तैरते (float) रहते हैं। फेफड़ों पर प्लुरा नामक पतला परदा होता है। इस प्लुरा के दो स्तर होते हैं। इसका अंदरूनी स्तर जिसे visceral pleura कहते हैं वो फेफड़ों पर मजबूती से आच्छादित होता है। इसका बाहरी स्तर छाती के पिंजरे के अंदरूनी भाग पर आच्छादित रहता हैं। प्लुरा के दोनों स्तरों के बीच में एक द्रव पदार्थ होता है। इसे प्लुरल फ्लुइड़ संभालता हैं। संक्षेप में यह फ्लुइड तेल लुब्रिकंट का कार्य करता है। प्लुरल फ्लुइड अथवा द्राव लगातार लिंफॅटिक वाहनियों में खींचा जाता है। इस खिंचाव (suction) के कारण प्लुरा के दोनों स्तरों में ऋण दबाव (negative suction pressure) निर्माण होता है। श्‍वसन के लिए यह दाब अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह दबाव फेफड़ों को पूरी तरह सिकुड़ने से बचाता है। इस दबाव को प्लुरल दाब (Pleural Pressure) कहा जाता है।

प्लुरल दबाव :
फेफड़ों से जुड़ा हुआ प्लुरल का स्तर और छाती के पिंजरे से जुड़े हुए प्लुरा के स्तर के बीच में जो छोटा सा रिक्त स्थान अथवा झिरी होती है, उसमें यह दबाव रहता हैं। यह दबाव सामान्यत: ऋण ५ सेमी (-5cm of water) इतना होता है। श्‍वास लेने की पूर्वस्थिति में प्लुरल झिरी में इतना दबाव होता है। श्‍वास अंदर लेते समय छाती का पिंजरा फैलता है और फेफड़े प्रसरित होते हैं। इस अवस्था में यह दबाव और भी बढ़ जाता है। -५ सेमी से बढ़कर -७.५ सेमी हो जाता है। दबाव में हुई इस बढ़ोत्तरी के फलस्वरुप फेफड़ों में आधा लीटर हवा अंदर चली जाती है। उच्छ्वास के दौरान इससे उलटा घटित होता है। दबाव कम हो जाता है। हवा बाहर निकली जाती है। तात्पर्य यह है कि श्‍वसन के दौरान कितनी मात्रा में हवा अंदर-बाहर होगी, इसका नियंत्रण इस दबाव के द्वारा होता है।

अलविलोर दबाव :
जिस प्रकार से प्युरल दबाव हवा के प्रवाह (श्‍वसनमार्ग से होनेवाले हवा के प्रवास) पर नियंत्रण रखता है उसी प्रकार से अलविलोर दाब भी इस पर नियंत्रण रखता है। अलविलोर दबाव यानी अलविलोयस में हवा का दबाव। हमारा श्‍वसन मार्ग खुला होता है तथा उस पर जीभ का नियंत्रण नहीं होता है और हवा अंदर-बाहर कहीं पर भी नहीं बहती है, ऐसी स्थिति में अलविलोय में हवा का दबाव यह वातावरण में होनेवाले हवा के दबाव जितना ही होता है। शरीरांतर्गत और बाहर के दोनों दबाव समान होते हैं। इसीलिए हवा प्रवाहित नहीं होती। हवा भी ज्यादा दबाव से कम दबाव की ओर प्रवाहित होती है। बाहरी हवा के फेफड़ों के अलविलोय में प्रवाहित होने के लिए अलविलोस में हवा का दबाव, वातावरण में हवा के दबाव से कम होना आवश्यक होता है। हम जब हमेशा की तरह सामान्य श्‍वसन में जब हम श्‍वास लेते हैं, तब अलविलोस में हवा का दाब १ से.मी. ऑफ वॉटर से कम होता है यानी वो दाब -१ सेमी होता है। इतने फरक के फलस्वरूप साधारणत: ०.५ लीटर हवा अलविलोय में प्रवेश करती है। इस क्रिया में सामान्यत: २ सेकेंड का समय लगता है। उच्छ्वास के दौरान इससे उलटा घटित होता है। अलविलोस में दबाव +१ सेमी होता है और ०.५ लीटर हवा बाहर निकाली जाती है। इस क्रिया में भी सामान्यत: २-३ सेकेंड का ही समय लगता है।

ट्रान्सपलमनरी दाब:
हम जानते हैं कि हमारे फेफड़े इलॅस्टिक हैं। जब उन पर कोई भी बाहरी शक्ति कार्य नहीं कर रही होती है, तब हमारे फेफड़े पूरी तरह कोलॅप्स (सिकुड़े) होते हैं। इस क्रिया को ‘इलॅस्टिक रिकॉइल’ कहा जाता है। हमारे फेफड़े किस सीमा तक सिकुडेंगें अथवा रिकांइल होंगे यह ट्रान्सपलमनरी दबाव पर निर्भर होता है। ट्रान्सपलमनरी दबाव, अलविलोर दबाव व प्लुरल दबाव के बीच का अंतर होता है।

फेफड़ों से अंदर बाहर होनेवाली हवा और उसका प्रवाह नियंत्रित करनेवाले घटकों के बारे में आज हमने अध्ययन किया। ऐसी ही अन्य बातों की जानकारी हम अगले लेखों में देखेंगे।(क्रमश:-)

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