श्‍वसनसंस्था- ७

अब हम श्‍वसननलिका के अंतिम परन्तु महत्त्वपूर्ण भाग के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। इस भाग को फ़ेफ़ड़ा कहते हैं। फ़ेफ़ड़ा यह श्‍वसनक्रिया का अनिवार्य अंग है। हमारे हृदय के दोनों ओर एक-एक फ़ेफ़ड़ा होता है। फ़ेफ़ड़े के ऊपर पतले परदे का आवरण होता है। इस आवरण को ‘प्लुरा’ कहते हैं। इस आवरण के अंदर प्रत्येक फ़ेफ़ड़ा स्वतंत्र रहता है। इसका अपवाद है, प्रत्येक फ़ेफ़ड़े की श्‍वसननलिका और हृदय के साथ का उसका जोड़। इस स्थान पर दोनों फ़ेफ़ड़ें अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। श्‍वसननलिका और रक्तवाहनियां जिस स्थान पर फ़ेफ़ड़ों से जुड़ती हैं उस भाग को ‘हायलम’ कहा जात है।

शरीर के बाहर निकाला गया फ़ेफ़ड़ा किसी स्पंज जैसा होता है। यह पानी पर तैरता है। उसमें हवा होने के कारण इसका स्पर्श अलग सा लगता है। इसे वैद्यकीय परिभाषा में केपिटस कहा जाता है। फ़ेफ़ड़ें इलॅस्टिक होते हैं यानी रबड़ की तरह ताने जा सकते हैं। शरीर से बाहर निकाले गये फ़ेफ़ड़े, हवा कम होने के कारण आकुंचित हो जाते हैं।

फ़ेफ़ड़े मूलत: गुलाबी रंग के होते हैं। आगे चलकर प्रौढ़ावस्था में इनका रंग बदल जाता है। वे ग्रे रंग के दिखायी देने लगते हैं। बढ़ती उम्र के साथ धीरे-धीरे ये काले दिखायी देने लगते हैं। किसी कारखाने में धुएँ के सान्निध्य में काम करनेवाले व्यक्ति के फ़ेफ़ड़े ज्यादा ही काले होते हैं।

प्रौढ़ व्यक्ति के दाहिने फ़ेफ़ड़े का वजन ६२५ ग्राम और बायें फ़ेफ़ड़े का वजन ५६५ ग्राम होता है। परन्तु इसमें परिवर्तन हो सकता है। पुरुषों के फ़ेफ़ड़े स्त्रियों के फ़ेफ़ड़ों की तुलना में थोड़ा ज्यादा वजनदार होते हैं।

प्रत्येक फ़ेफ़ड़े का एक ऊपरी सिरा अथवा Apex होता है। एक तल यानी बेस होता है, तीन सिरे और दो बाजुएँ होती हैं।

फ़ेफ़ड़े का ऊपरी सिरा (Apex) :-
प्रत्येक फ़ेफ़ड़े का सिरा गोलाकार होता है। यह सिरा क्लॅविकल अस्थि से थोड़ा ऊपर आता है। इस पर प्लुरा का आवरण होता है।

फ़ेफ़ड़े का तल (Base): –
छाती के द्विभाजक परदे पर यह तल होता है। इसका आकार प्राय: अर्ध चंद्राकार होता है और यह अंतर्वक्र होता है।
– पसलियों की तरफ़ का हिस्सा यानी Costal Surface बहिर्वक्र और चिकना होता है। प्रत्येक पसली का निशान इस पर होता है।
– शरीर का मध्यवर्ती भाग अथवा Medical Surface का कुछ हिस्सा रीढ़ की हड्डियों के संपर्क में होता है और शेष भाग हृदय, श्‍वसनलिका और फ़ेफ़ड़ों की रक्तवाहनियों के संपर्क में होता है।

पिछला, अगला और नीचे वाला इस तरह से फ़ेफ़ड़ों के तीन सिरे होते हैं।

प्रत्येक फ़ेफ़ड़े के चारों ओर पतला आवरण होता है। इसे प्लुरा कहा जाता है। इसके दो परदे होते हैं। फ़ेफ़ड़े से लगे हुए परदे को विसरल प्लुरा तथा बाहरी परदे को परायटल प्लुरा कहा जाता है। विसरल प्लुरा फ़ेफ़डों से मजबूती से चिपका रहता है और फ़ेफ़डों की गति के अनुसार उसकी भी गति होती है। प्लुरा के दोनों परदों के बीच में एक छोटी सी दराज होती है। इस जगह में द्रव पदार्थ होता है। इसे प्लुरल, फ्लुइड कहते हैं।

प्रत्येक श्‍वास के दौरान प्लुरा के ये दोनों परदें एक दूसरे के साथ आसानी से glide हो जाते हैं। इस गति में आवाज नहीं होती है और हमें दर्द भी नहीं होता है। यदि किन्हीं कारणों से इन परदों में सूजन आ जाए तो फ़ेफ़डों की क्रिया के दौरान दोनों परदों में घर्षण होने लगता है। फ़लस्वरूप उस घर्षण की आवाज सुनायी पड़ती है और उस व्यक्ति को दर्द भी होने लगता है। प्लुरा के परदों पर सूजन आ जाने की बीमारी को प्लुरसी कहा जाता है।

कभी-कभी प्लुरा के दोनों परदों के बीच में बड़ी मात्रा में पानी भर जाता है। इसे प्लुरल एफ्युजन कहते हैं। ऐसी परिस्थिति में पानी के दबाव से फ़ेफ़ड़े दब जाते हैं, जिससे हवा अंदर नहीं आ सकती। आवश्यक मात्रा में हवा को अंदर लेने के लिए व्यक्ति को कष्ट उठाना पड़ता है और साँस फूलेने लगती है।

कभी-कभी प्लुरा के दोनों परदों के बीच में पानी की जगह हवा भर जाती है। इस बीमारी को न्युमोथोरॅक्स कहा जाता है। ये दोनों बीमारियाँ गंभीर स्वरूप की होती हैं। इनका इलाज तुरंत करना आवश्यक होता है।
(क्रमश:)

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