जुनागढ़ भाग-२

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गिरनार की पार्श्‍वभूमि पर बसे हुए जुनागढ़ शहर में प्राचीन समय से लोग बसते चले आ रहे हैं। जुनागढ़ शहर में कई सदियों से स्थित ‘अपरकोट क़िला’ यह इतिहास एक महत्त्वपूर्ण गवाह रह चुका है। इस ‘अपरकोट क़िले’ की प्रारंभिक जानकारी हमने गत लेख में प्राप्त कर ही ली है। आज हम इस क़िले की सैर करेंगे; लेकिन उससे पहले जुनागढ़ के इतिहास के जिन पन्नों को हमने पढ़ना शुरू कर दिया था, उन्हें पूरी तरह पढ़ने के बाद ही आगे चलेंगे।

तो हम जुनागढ़ के इतिहास की जानकारी ले रहे थे। महमद बहादूर खानजी-१ इनका शासन जुनागढ़ पर स्थापित होने के साथ ही आगे चलकर जुनागढ़ पर ‘बाबी’ राजवंश के नवाबों की सत्ता स्थापित हुई। इस ‘बाबी’ नामक राजवंश में कई शासक हुए। ऊपर उल्लेखित इस ‘बाबी’ राजवंश के शासकों का समय साधारणतः १८वीं सदी के पूर्वार्ध से शुरू होता है और २०वीं सदी के मध्य तक है। २०वीं सदी के मध्य तक यानि कि भारत को आ़जादी मिलने तक जुनागढ़ पर इन्हीं शासकों की हुकूमत रही।

भारत में प्रवेश कर चुके अँग्रे़जों ने भारत में स्थित रियासतों पर एक के बाद एक कब़्जा करना शुरू किया था। उनकी ऩजरों से यह सौराष्ट्र स्थित जुनागढ़ भी कैसे बचता? इस प्रदेश पर कब़्जा करने के लिए अँग्रे़जों ने एक नयी ही चाल चली। उन्होंने इस प्रदेश के राज्यों को तक़रीबन सौ छोटी छोटी रियासतों में विभाजित कर दिया। उनमें से हर रियासत का अलग शासक था। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि सौराष्ट्र प्रदेश भले ही अँग्रे़जों की प्रत्यक्ष रूप से हुकूमत में नहीं था, मग़र अप्रत्यक्ष रूप से उनकी ही सत्ता इस प्रदेश पर चलती रही।

इसवी १८१८ के आसपास ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कंपनी जुनागढ़ और सौराष्ट्र में दाखिल हो चुकी थी। आगे चलकर सन १९४७ में भारत स्वतन्त्र हो गया। भारत के स्वतन्त्र होने के साथ साथ ही कई रियासतें और छोटे-मोटे राज्य स्वतन्त्र भारत में विलीन हो गये। अब तक यानि कि भारत के आ़जाद होने तक ‘बाबी’ राजवंश के अधिपत्य में रह चुके इस जुनागढ़ का स्वतन्त्र भारत में नाटकीय रूप में प्रवेश हुआ और वह स्वतन्त्र भारत का एक हिस्सा बनकर रह गया। आगे चलकर उसका समावेश गुजरात राज्य के अन्तर्गत किया गया। जाहिर है, यह जुनागढ़ इतिहास के एक लंबे कालखण्ड का गवाह रह चुका है!

जुनागढ़ का इतिहास भले ही मौर्य राजवंश से ज्ञात हो, लेकिन कहीं पर ऐसा भी पढ़ा है कि यह भूमि पौराणिक काल से मानवों का आश्रयस्थान रह चुकी है।

जिस ‘अपरकोट क़िले’ की सैर अब हम करनेवाले हैं, उसका निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में हुआ ऐसा माना जाता है; लेकिन ऐसा भी पढ़ा है कि यह क़िला यादवों के समय में बनाया गया था और तब यह ‘उग्रसेनगढ़’ नाम से जाना जाता था। आज का जुनागढ़ उस समय ‘रेवत नगरी’ के नाम से जाना जाता था। वैसे देखा जाये, तो इस क़िले ने चन्द सैंकड़ों ही नहीं, बल्कि ह़जारों वर्षों के इतिहास को क़रीब से देखा है।

अपरकोट क़िले ने क्या कुछ नहीं देखा! उसने मौर्यकाल देखा, साथ ही उसने मुग़लों का और अँग्रे़जों का कालखण्ड भी देखा; इतना ही नहीं, बल्कि उसने बौद्धधर्म के अनुयायियों को भी देखा। इस अपरकोट क़िले पर इतनी विभिन्न किस्म की वास्तुएँ हैं कि इनसे ही ज्ञात होता है कि यह क़िला इतिहास के विभिन्न कालखण्डों का एक अनोखा मिलाप था।

‘अपरकोट’ जुनागढ़ शहर के बीचोंबीच बसा हुआ है। ईसापूर्व ४थीं सदी में चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा निर्मित यह क़िला उसके पश्चात् किसी कालखण्ड में लगभग ३०० सालों तक उपेक्षित रहा। इस क़िले को १०वीं सदी में फिर एक बार अच्छे दिन प्राप्त हुए। इतिहास के काफ़ी बड़े कालखण्ड के इस गवाह को १-२ बार नहीं, बल्कि १६ बार विभिन्न आक्रमकों के आक्रमणों का या घेरों का सामना करना पड़ा ऐसा इतिहास बताता है। साथ ही, इतिहास यह भी कहता है कि उनमें से एक घेरा तो तक़रीबन १२ सालों तक चला था।

यानि कि ‘अपरकोट’ के इतिहास में समरांगण के भी कई प्रसंग उपस्थित हुए। इससे यह महसूस होता है कि भौगोलिक दृष्टि से इस ‘अपरकोट क़िले’ का अनन्यसाधारण महत्त्व रहा होगा।

अपरकोट क़िले से अब हम काफ़ी परिचित हो चुके हैं, इसलिए यहाँ से आगे उसे केवल ‘अपरकोट’ इस नाम से संबोधित करने में हमें दिक्कत नहीं होगी।

इस ‘अपरकोट’ के मुख्य प्रवेशद्वार से भीतर प्रवेश करने पर भव्य परिसर ऩजर आता है। इस क़िले की चहुँ ओर २० मीटर्स ऊँचाई की चहारदीवारी थी। साथ ही, इसके बारे में ऐसा भी पढ़ा कि इस क़िले की चहुँ ओर गहरे खंदक भी खोदे गये थे। इस ऊँची चहारदीवारी तथा गहरे खंदकों के कारण ‘अपरकोट’ की अभेद्यता बरक़रार रही।

चूँकि इस क़िले ने उसके चहुँ ओर शत्रु ने डाले हुए एक घेरे का १२ सालों तक सामना किया, जाहिर है कि यहाँ पर दानापानी के संचय की कुछ ख़ास व्यवस्था निश्चित ही रही होगी। जब हम क़िले का भीतरी भाग देखेंगे, तब हमें इसके बारे में जानकारी अवश्य प्राप्त होगी।

अब हम अपरकोट में प्रवेश कर चुके हैं। यहाँ पर विभिन्न शासकों के महल, अपने अपने समय में उनके द्वारा निर्मित विभिन्न रचनाएँ और साथ ही, कुछ शासकों ने उनके शासनकाल में निर्माण किये हुए प्रार्थनास्थल भी हम देख सकते हैं। यहाँ के कुछ महलों में तो लाजवाब शिल्पकारी किये हुए स्तंभ भी हमें दिखायी देते हैं।

इतनी पुरानी वास्तु और वह भी राजा-महाराजाओं का क़िला; जाहिर है उसके साथ कई दंतकथाएँ-लोककथाएँ जुड़ी हुई होंगी। ऐसी दंतकथा-लोककथाएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संक्रमित होती रहती हैं। बहुत बार मानवी मन को इतिहास से ज्यादा इन दंतकथा-लोककथाओं का आकर्षण रहता है। अर्थात् अपरकोट भी इसके लिए अपवाद नहीं है।

इस अपरकोट में पहले एक वास्तु हुआ करती थी – ‘रानी राणकदेवी का महल’। आगे चलकर जैसे जैसे नये शासक आते गये, इस वास्तु का स्वरूप भी बदलता रहा। लेकिन इसी रानी राणकदेवी के साथ एक लोककथा-दंतकथा जुड़ी हुई है और ऐसा कहा जाता है कि यही लोककथा-दंतकथा ‘अपरकोट’ ने जिस घेरे का १२ साल तक सामना किया, उससे भी जुड़ी हुई है।

राणकदेवी नामक किसी सुन्दर कन्या को एक कुम्हार के परिवार ने अपनी ही बेटी समझकर पाल-पोसकर बड़ा किया। भाटों तथा चारणों के जरिये इस सुन्दर कन्या की यानि उसकी सुन्दरता की ख्याति आसपास के इला़के में फ़ैल गयी। यह कथा-लोककथा-दंतकथा है ११वीं या १२वीं सदी की। तो ऐसी इस कन्या की सुन्दरता की ख्याति सुनकर, उस समय ‘अहिलवाड पाटण’ पर शासन करनेवाले राजा के मन में उससे विवाहबद्ध होने की इच्छा उत्पन्न हुई। लेकिन इसी दौरान उस कन्या का विवाह जुनागढ़ के शासक के साथ हो गया और वह अब रानी राणकदेवी बनकर जुनागढ़ पर शासन करने लगी। यह ख़बर सुनते ही, ‘अहिलवाड पाटण’ के राजा ने जुनागढ़ पर हमला बोल दिया और ‘अपरकोट’ की चहुँ ओर घेरा डाल दिया। यह घेरा १-२ नहीं, बल्कि पूरे १२ सालों तक चलता रहा, ऐसा यह दंतकथा-लोककथा कहती है।

लेकिन दग़ाबा़जी की पुरानी आदत ने यहाँ भी सिर उठाया। अपरकोट के राजा के विश्‍वसनीय लोगों ने की हुई गद्दारी के कारण ही राजा का नाश हो गया। राजा के बाद तुरन्त ही रानी ने भी अपना बलिदान दे दिया। तो ऐसी है यह रानी राणकदेवी की दंतकथा-लोककथा। लेकिन इससे दो महत्त्वपूर्ण बातें हमारी समझ में आती हैं। एक तो, अपरकोट के रक्षणकर्ताओं ने उसे बचाने हेतु की हुईं कमाल की कोशिशें और उसी के साथ इन प्राचीन क़िलों में होनेवालीं दानापानी के संचय की विशेष व्यवस्थाएँ।

इस अपरकोट क़िले में अनाज के संचय हेतु कुल १३ प्रचण्ड बड़े गोदाम मौजुद थे और उसी के साथ दो बड़े कुएँ – ‘नवघण कुआँ’ और ‘अडी-चडी वाव’ (कुआँ) भी थे। इन्हीं के बलबूते पर इस अपरकोट ने यानि कि उसमें रहनेवालों ने ऐसे १६ आक्रमणों या घेरों का सामना किया होगा, इसमें कोई शक़ नहीं।

‘अडी-चडी’ यह कुछ अजीबोंग़रीब नाम होनेवाला कुआँ है। भारत में कई जगहों पर कुओं में पानी तक उतरने के लिए पायदान किये हुए दिखायी देते हैं। उनमें से कुछ कुओं को अत्यन्त सुन्दर पद्धति से अलंकृत भी किया हुआ दिखायी देता है। ऐसे पायदान रहनेवालें तथा अलंकृत कुओं में मुख्य रूप से नाम आता है – गुजरात के पाटण स्थित ‘रानी की वाव’। इसकी सुन्दरता तो बस, देखते ही बनती है।

ख़ैर! हम बात कर रहे थे, अपरकोट के इन दो कुओं की। इन दोनों कुओं में पायदान मौजुद हैं। इनमें से ‘अडी-चडी वाव’ की ख़ासियत यह है कि उसकी लंबाई बहुत बड़ी है। इन कुओं का निर्माण पहाड़ों में खोदकर किया गया। इनके पायदानों की रचना विशेषतापूर्ण है।

इनमें से ‘नवघण कुआँ’ यह इसवी १०२६ में मृदु पत्थर में खोदा गया था; वहीं, कठीन पत्थर में खोदे गये ‘अडी-चडी वाव’ इस कुएँ का निर्माणकाल लगभग १५वीं सदी का बताया जाता है।

काफ़ी देर तक हम अपरकोट में सैर कर रहे हैं। अब तो पैर भी दर्द कर रहे होंगे, है ना? फिर थोड़ा विश्राम करके पुनः सैर की शुरुआत करते हैं।

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