नेताजी-१३५

प्रार्थनास्थल में रात बिताकर अब सुभाषबाबू का अगला सफ़र खच्चर पर से शुरू हो गया। उस वीरान मुल्क़ में खच्चर का ही सहारा था। गत दिन एक घण्टे में एकाद मील इस ‘गति’ से मार्गक्रमणा हुई थी। लेकिन अब एक घण्टे में ३-४ मील ऐसी ऱफ़्तार आ चुकी थी। लेकिन थोड़ी देर में समतल ज़मीन पर का सफ़र ख़त्म होकर पुनः पहाड़ी इलाक़ा शुरू हो गया। यही इम्तिहान की घड़ी थी। हालाँकि चढ़ने का रास्ता खच्चर ने सुव्यवस्थित रूप से पार तो किया था, लेकिन अब उतरनेवाले मार्ग पर के ऊँचे-नीचे फिसलनभरे रास्तों पर खच्चर के पैर भी फिसल रहे थे। हालाँकि वहाँ की पद्धति के अनुसार खच्चर की पीठ पर घासपूस रखकर खच्चरवाले ने बढ़िया ‘सीट’ तो बनायी थी, मग़र रास्ता सीधा न होने के कारण सुभाषबाबू को धक्के लग रहे थे। कभी कभी किसी मोड़ पर तो एकतरफ़ा एक ही मनुष्य जा सके इस तरह के शंक्वाकार रास्ते की एक ओर बहुत ही ऊँचा पहाड़, तो दूसरी ओर जिसे देखते ही सिर चकरा जाये ऐसी गहरी खाई थी और इन परिस्थितियों में दिल थामकर वे सभी आगे बढ़ रहे थे। खच्चर का पैर यदि ज़रासा भी कहीं फिसल जाता था, तो बाक़ी के लोगों की धड़कन पलभर के लिए थम जाती थी। वहीं, सुभाषबाबू को उस खच्चर के फिसलने के डर की अपेक्षा यह फ़िक्र सताये जा रही थी कि यह धीमा सफ़र आख़िर कब ख़त्म होगा। लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं था, क्योंकि उस घने अँधेरे में खच्चर को इससे तेज़ दौड़ाना यह खाई में गिरकर अपना सिर फोड़ने को न्योता देने जैसी बात हो जाती!

इतने में रात के नौं बजे वे एक घाटी तक आ गये और रास्ता और भी मुश्किल हो गया। साथ ही, बरफ़बारी भी शुरू हो गयी। उससे फिसलनभरी ज़मीन पर से खच्चर के पैर बार बार फिसलने लगे। एक मोड़ पर तो वह पूरी तरह एक तरफ़ लुड़क ही गया। सुभाषबाबू भी नीचे गिर गये। भगतराम की धड़कनें तेज़ हो गयीं और उसने फ़ौरन उनका हाथ थामकर उन्हें उठाया। सुभाषबाबू को काफ़ी चोटें आयी थीं और साथ ही कई जगह खरोचें भी। लेकिन उन बातों की ओर ध्यान देने का समय भी नहीं था। इस घाटी को पार करने तक खच्चर की पीठ पर बैठना किसी काम का नहीं है, यह सबने तय किया और सुभाषबाबू भी भगतराम और राहगर का हाथ पकड़कर धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे। लेकिन बरफ़बारी के कारण गीले हो चुके रास्ते पर से चलने के कारण उनके पेशावरी जूतें भी गीले होकर भारी हो गये थे और इसी वजह से एक एक कदम उठाना उनके लिए काफ़ी मुश्किल भरा हो चुका था।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस, इतिहास, नेताजी, क्रान्तिकारी, स्वतन्त्रता, भारत, आन्दोलनऐसा करते करते आख़िर उस घाटी को पार कर लिया और कुछ ही देर चलने के बाद वे एक देहात में दाख़िल हो गये। तब देर रात का एक बज चुका था। खच्चरवाले का यहाँ तक आना ही तय होने के कारण वह वहीं से वापस लौटनेवाला था। अब सुबह दूसरे खच्चरवाले की खोज करना ज़रूरी बन गया था। लेकिन उससे भी बड़ी समस्या यह थी कि रात कहाँ बितायी जाये। लेकिन सौभाग्यवश उस देहात में उस राहगर का परिचित घर था। उसने उस घर का दरवाज़ा खटखटाया। कुछ ही देर में मक़ानमालिक ने दरवाज़ा खोला। राहगर ने सफ़र की सारी हक़ीक़त बयान करके उस रात के लिए रहने का इन्तज़ाम करने की दऱख्वास्त की। उस भले इन्सान ने ज़रासी भी टालमटोल न करते हुए उनसे हाँ कहा। फिर वे सब घर के भीतर गये और एक कमरे के उस घर में पासपास बैठ गये। घर में देखा तो घर को सजाया गया था। पूछने पर पता चला कि उनकी आज ही शादी हुई है। सुभाषबाबू तो मन ही मन में दुखी हो गये। मेरी वजह से किसे और क्या क्या सहन करना पड़ रहा है यह तो भगवान ही जानें, यह विचार उनके मन में बार बार आ रहा था। बिना किसी जान-पहचान के, उनकी शादी की रात होते हुए भी, अचानक आये मेहमान के आने का ज़रासा भी रंज न मानते हुए, उनके द्वारा की गयी उस ख़ास मेहमाननवाज़ी को देखकर सुभाषबाबू ने अपनी भर आयीं अँखियों को बड़ी कोशिश के साथ बहने नहीं दिया। लेकिन ‘अतिथिदेवो भव’ यह सुभाषित ज्ञात भी न रहनेवाला वह नवपरिणीत दंपति, चेहरे पर किसी तकलीफ़ का अंशमात्र भी प्रदर्शन न करते हुए और वे कौन हैं, कहाँ से आये हैं इन बातों की पूछताछ भी न करते हुए मुस्कुराते हुए उस सुभाषित का ‘प्रॅक्टिकल’ ही अपने आचरण द्वारा दिखा रहा था। पत्नी ने फ़ौरन चूल्हों में आग जलाकर पराठे का आटा भिगोया और दूसरे चूल्हे पर अण्डें उबालने के लिए रख दिये।

दिन भर खच्चर पर बैठकर यात्रा करने के कारण सुभाषबाबू को बदनदर्द हो रहा था। इसीलिए ग़रमाग़रम पराठों और अण्डों को खाने के बाद उनकी जान में जान आ गयी। सभी ने पेट भरकर खाना खाया। सुभाषबाबू का जन्मदिन इस तरह अनपेक्षित रूप में मनाया गया।

तब तक २४ तारीख़ की पौ फट चुकी थी। मेहमान ‘आदा शरीफ़’ जाना चाहते हैं, यह जानते ही मक़ानमालिक़ ने जल्द ही निकलने का सुझाव दिया। सौभाग्यवश उसके पास ही १३ रुपये प्रतिदिन की रेट से खच्चर की भी व्यवस्था हो गयी। उसकी पत्नी ने पुनः पराठे और अण्ड़ें उनके साथ बाँधकर दिये। तब तक भगतराम ने उस पहले खच्चरवाले को, अबदखान तक खुशहाली बताने के लिए उस मक़ानमालिक़ के घर की नील, एक छोटा-सा तिनका, वहीं पर गिरा एक कागज़ आदि ‘साधनों’ का उपयोग करके सांकेतिक भाषा में एक ख़त लिखकर दिया।

अब अगला सफ़र शुरू हो गया। नौ बजे तक वे गराडी (गरहदी) पहुँच गये। अब जलालाबाद बस ४० मील दूर था। यहाँ से वह दूसरा खच्चरवाला भी वापस लौट गया। अब अगला सफ़र पैदल ही करना था। उस इलाक़े में ट्रकों की आवाजाही काफ़ी रहती थी और उनके छत पर बैठकर जाने की पद्धति भी प्रचलित थी। लेकिन उन्हें एक भी ट्रक नज़र नहीं आ रहा था। तब ट्रक के मिलने तक पैदल यात्रा जारी रखी जाये, यह सुभाषबाबू ने तय किया। पेशावर से उनके साथ रहनेवाला राहगर भी अब यहाँ से वापस लौटनेवाला था। अब बस वे दोनों ही रह गये थे।

टेढ़ेमेढ़े मोड़वाले उस रास्ते पर गपशप करते हुए दो मील का फ़ासला कब तय कर लिया, इसका पता उन दोनों को भी नहीं चला। बीच में एक जगह थोड़ा-सा विश्राम करके वे आगे बढ़ने लगे। इस सफ़र के दौरान उन्हें बड़े मज़ेदार अनुभव भी आ रहे थे। अब यही देखिए। इस रास्ते पर से चलते समय, अचानक ही किसी मोड़ पर एक हट्टेकट्टे पठानी आदमी से उनका सामना हो गया और पुलिसी स्टाईल में वह बेवजह पूछताछ करने लगा। ये मेरे मूकबधीर चाचा बीमार हैं और उनका स्वास्थ्य ठीक होने के लिए मैं उन्हें लेकर आदा शरीफ़ दरग़ाह में दुवा माँगने जा रहा हूँ, यह भगतराम द्वारा बताये जाते ही; उस व्यक्ति ने, मैं वैदू हूँ और जड़ीबुटियों की काफ़ी जानकारी रखता हूँ, यह कहा। क्या सुभाषबाबू सचमुच ही मूकबधीर हैं, यह जाँचने के लिए उन्हें जीभ वगैरा दिखाने के लिए बताकर रास्ते में ही उनकी जाँच शुरू कर दी और उसकी तसल्ली होने के बाद किसी छोटीमोटी दवाई का नाम बताकर वह वहाँ से रफ़ादफ़ा भी हो गया। तब तक साँस अटके उन दोनों की जान में जान आ गयी।

अब दोपहर के तीन बज चुके थे और काफ़ी भूख़ भी लगी हुई थी। लेकिन होटल की खोज करने तक का समय भी उनके पास नहीं था। हो सकता था कि उस झमेले में कोई ट्रक वहाँ से गुज़र जाये तो! उसी समय चाय के बक़्सों से भरा एक ट्रक वहाँ आ गया। वह जलालाबाद ही जा रहा था।

अब ट्रक स्थित चाय के बक्सों पर बैठकर सुभाषबाबू का अगला सफ़र शुरू हो गया।

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