रक्त एवं रक्तघटक – ५४

पिछले लेख में हम ने देखा कि ‘मवाद’ क्या है और कैसे बनता है। ग्रॅन्युलोसाइटस् पेशियों में से अन्य दो पेशियों की जानकारी हम आज प्राप्त करेंगे। साथ ही साथ रक्त में होनेवाली सफ़ेद पेशियों की कमी और अधिकता का अर्थ एवं उसके कारणों की जानकारी प्राप्त करेंगे।

इओसिनोफ़िल (Eosinophil) पेशी – इनकी मात्रा रक्त की कुल सफ़ेद पेशियों की दो प्रतिशत होती है। जीवाणु बाधा से (infection) लड़ने की इनकी क्षमता क्षीण होती है।

जीवाणु एवं विषाणु की तरह ही परजीवी जीवाणु (Parasites)भी हमारे शरीर में अनेकों विकार उत्पन्न करते हैं। शरीर में जहाँ-जहाँ पर भी परजीवी जीवाणु-बाधा होती है, वहाँ-वहाँ पर इओसिनफ़िल्स पेशियाँ बड़ी संख्या में जमा हो जाती हैं। शरीर की सभी प्रकार की सफ़ेद पेशियों की तुलना में ये परजीवी का़फ़ी बड़े होते हैं। फ़लस्वरूप हमारी सफ़ेद कोशिकायें इन्हें निगल (Phagocytosis) नहीं सकती। परजीवी को नष्ट करने का तरीका भिन्न होता है। इस भिन्न तरीके का इस्तेमाल इओसिनोफ़ील पेशी करती हैं। परजीवी बाधित पेशीसमूह में इओसिनोफ़ील बड़ी संख्या में जमा हो जाती हैं। परजीवी के बाह्य आवरण पर ये पेशियां चारो ओर से चिपक जाती हैं। परजीवी को नष्ट करनेवाले विविध एन्झाइम्स एवं अन्य रासायनिक घटक इन पेशियों से निकलते हैं। ये घटक परजीवी में घुसकर उसे नष्ट कर देते हैं।

ग्रॅन्युलोसाइटस् पेशि

शरीर के किसी भी भाग पर अ‍ॅलर्जिक प्रतिक्रिया के निर्माण होने पर उस स्थान पर ये पेशियां जमा हो जाती हैं। अ‍ॅलर्जिक प्रतिक्रिया में इनका प्रत्यक्ष सहभाग नहीं होता है। अ‍ॅलर्जिक प्रतिक्रिया में अ‍ॅलर्जन और अ‍ॅँटिबॉडी का जोड़ (Complex) तैयार हो जाता है। यह जोड़ और उस समय निर्माण होनेवाले कुछ रासायनिक पदार्थ शरीर के लिये घातक साबित होते हैं। इओसिनोफ़ील पेशी इस घातक पदार्थ को नष्ट करती हैं। अ‍ॅलर्जिक प्रतिक्रिया के कारण पेशीसमूह में आनेवाली सूजन को स्थानिक स्तर पर ही रोकने, सीमित रखने का काम ये पेशियां करती हैं।

बेसोफ़ील पेशी – अ‍ॅलर्जिक प्रतिक्रिया में इस पेशी का प्रत्यक्ष सहभाग होता है। ये पेशियाँ रक्त में होती हैं, तब उन्हें बेसोफ़ील्स इस नाम से और जब वे पेशीसमूह में होती हैं तो उन्हें मास्टर पेशी के नाम से जाना जाता है। अ‍ॅलर्जिक प्रतिक्रिया में IgE अ‍ॅँटिबॉडीज़ प्राय: कार्यरत होती है। बेसोफ़ील पेशी के बाहरी भाग पर ये IgE अ‍ॅँटिबॉडी होती हैं । अँटिजेन के साथ इनका जोड़ तैयार हो जाने पर यह जोड़ बेसोफ़ील पेशी का आवरण फ़ाड़ देता है। इस पेशी के फ़ूटने के कारण उसमें से अनेक रासायनिक पदार्थ जैसे हिपॅरिन, हिस्टामिन, ब्रॅडिकायनिन इ. अलग हो जाते हैं। इन रसायनों के पेशीसे संबंधित कार्य की वजह से अ‍ॅलर्जी के बहुत से लक्षण तैयार हो जाते हैं। त्वचा पर फुनसियाँ आ जाना, लाल रंग के चकत्ते दिखायी देना, श्‍वसननलिका में प्रतिक्रिया उत्पन होकर साँस लेने में तकलीफ होना ये अ‍ॅलर्जी के कुछ उदाहरण हैं।

सफ़ेद पेशियों में से लिंफ़ोसाइट पेशी के कार्य हम बाद में देखेंगे। परन्तु तब तक सफ़ेद पेशियों के कुछ विकारों की संक्षिप्त जानकारी लेते हैं।

ल्युकोपिनिआ – ल्युकोपिनिआ यानी सफ़ेद पेशियों की संख्या में अचानक कमी होना। ऐसी परिस्थिति में शरीर का बचाव कार्य कमजोर हो जाता है। हमने देखा कि हमारी त्वचा पर, आँखों में, मुँह में, आंतो में स्थान-स्थान पर जीवाणु होते हैं। इन जंतुओं को शरीर में विकार पैदा करने से रोकने का काम सफ़ेद पेशियां करती रहती हैं। शरीर में सफ़ेद पेशियों की संख्या कम हो जाने पर ये जीवाणु शरीर में प्रवेश करके बीमारी पैदा करते हैं।

सफ़ेद पेशियों की निर्मिति कम हो जाने पर शरीर में जीवाणुबाधा के लक्षण नजर आने लगते हैं। मुँह और आंतों में घाव (Ulcers) हो जाते हैं, फ़ेफ़ड़ों में रोग लग जाता है। यदि उचित उपचार ना किया जाए तो ऐसा व्यक्ति सात दिनों में मर जाता है। ल्युकोपिनिआ की बीमारी का उचित उपचार उपलब्ध है। यदि अस्थिमज्जा, सफ़ेद पेशियों का निर्माण बंद भी कर दे तब भी यह स्थिति अस्थायी होती हैं। कुछ ही दिनों में अस्थिमज्जा पुन: कार्यरत हो जाती है। इस मध्यावधि में मरीज़ को योग्य उपचार देकर उसके प्राणों का खतरा टाला जा सकता है।

ल्युकेमिआ – किसी भी प्रकार के नियंत्रण के बिना सफ़ेद पेशियों का निर्मिति होती रहती है। ये पेशियॉँ हमेशा की नॉर्मल पेशियों की अपेक्षा भिन्न होती हैं। रक्त में इनकी संख्या तुरंत बढ़ती है। इसे ही ल्युकेमिआ या रक्त का कर्करोग कहते हैं। ल्युकेमिआ दो प्रकार का होता है- लिम्फ़ोसायटिक ल्युकेमिआ और मायलोजिनस ल्युकेमिआ। जब यह विकार लिम्फ़ोसाइट पेशी में होता है तो इसे लिम्फ़ोसायटिक ल्युकेमिआ कहते हैं। न्युट्रोफ़ील, इओसिनोफ़ील और बेसोफ़ील पेशी की बीमारी को मायालोजिनस ल्युकेमिआ कहा जाता है।

ल्युकेमिआ के शरीर पर होनेवाले दुष्परिणाम – ल्युकेमिआ में सफ़ेद पेशियों की निर्मिति बड़े पैमाने पर होती रहती है। ये पेशी नॉर्मल पेशी की तुलना में भिन्न एवं बड़ी होती हैं। ये पेशियां, सफ़ेद पेशियों के सर्वसाधारण कार्य नहीं करतीं। तात्पर्य यह है कि शरीर के लिए इनका कोई उपयोग नहीं होता।

रक्त में बढ़ी हुयी ये पेशियां शरीर के विभिन्न भागों में जमा की जाती है। अस्थिमज्जा से हड्डियों में, रक्त से प्लीहा में, यकृत, लिंफ़नोड्स इत्यादि जगहों पर कर्करोगी पेशियां जमा होती रहती हैं। इसीलिए प्लीहा, यकृत, लिंफ़नोड्स का आकार बढ़ता जाता है। हड्डियों में इनकी मात्रा बढ़ने के बाद हड्डियों में दर्द होने लगता है। हड्डियों की पेशियों को मिलनेवाले अन्न का उपयोग ये पेशियां करती हैं। परिणामत: हड्डियां खोखली हो जाती हैं और तुरंत टूट सकती हैं।

रोगजंतुओं का प्रतिकार करने के लिए इनकी शक्ती कमजोर होने के कारण जीवाणुबाधा बड़ी मात्रा में बढ़ती है। अस्थिमज्जा में लाल पेशियों की निर्मिति कम हो जाती है। इससे अ‍ॅनिमिआ का निर्माण होता है। प्लॅटलेट्स की मात्रा घटने से शरीर में जगह-जगह से खून बहनें लगता है। धीरे-धीरे ये पेशियां, शरीर की नॉर्मल पेशियों का आहार स्वयं निगलने लगती हैं। आहार के अभाव में शरीर की पेशियां कमजोर हो जाती हैं। मरीज कमज़ोर हो जाता है, जिससे उसकी जान को खतरा हो सकता है।

ल्युकेमिआ पर आज आधुनिक उपचार उपलब्ध हैं। इन उपचारों से रुग्ण व्याधिमुक्त हो सकते हैं।

(क्रमश:)

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