रक्त एवं रक्तघटक- ४८

हम रक्त की लाल पेशियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर रहें हैं। प्रत्येक लाल पेशी की आयु साधरणत: १२० दिन की होती हैं। लाल पेशी में केन्द्रक नहीं होता हैं। माइटोकॉन्ड्रीया नहीं होते हैं। इन पेशियों में कुछ एन्झाइम्स् होते हैं। ये एन्झाइम्स् कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।
ये कार्य निम्नलिखित हैं –

१) लाल रक्त पेशियों के पेशी आवरणों को लचीला रखते हैं, जिसके फ़लस्वरूप ये पेशी सूक्ष्म से सूक्ष्म केशवाहनियों में से भी सुरक्षित निकल जाती है।

२) ये एन्झाइम्स पेशियों में लोह को ‘फेरस’ स्थिति में रखते हैं। पेशियों में लोह दो स्थितियों में रह सकता हैं – ‘फेरस’ अथवा ‘फ़ेटिक’। इन में से फ़ेटिक स्थिति का लोह हिमोग्लोबिन के बजाय मिथहिमोग्लोबिन नामक संयुग तैयार करत है। मिथहिमोग्लोबिन प्राणवायु का वहन नहीं करता। अत: यह शरीर के लिए तकलीफदेह है। एन्झाइम्स के कार्यों के कारण ऐसा नहीं होता।

बढ़ती उम्र के साथ लाल पेशियों के आवरण कमजोर होते जाते हैं। उनका लचीलापन कम होता जाता है, जिससे इनके कभी भी फ़ट जाने की संभावना रहती है। वयोवृद्ध लाल पेशियां अपने आप ही प्लीहा में प्रवेश कर जाती हैं। प्लीहा के लाल पल्प की ट्रॅबॅक्युजी अत्यंत सूक्ष्म होती हैं। उनका व्यास महज़ ३hm मायक्रोमीटर होता है। लाल पेशी का व्यास ८hm हा मायक्रोमीटर होता है। अत: इस स्थान पर आनेवाली सभी वयोवृद्ध लाल पेशियों के आवरण फ़ट जाते हैं और वे नष्ट हो जाती हैं। इस तरह पुरानी लाल पेशियों को नष्ट करने का काम प्लीहा करती है। यदि किसी व्यक्ति की प्लीहा निकाल दी जाए तो उसके शरीर में काफ़ी मात्रा में वयोवृद्ध लाल पेशियां दिखायी देती हैं।

लाल पेशियों के नष्ट होते समय उनका हिमोग्लोबिन बाहर निकलता है। इसमें से हिम और ग्लोब्यूलिन अलग-अलग किये जाते हैं। टीम भाग में से लोह और पॉरफ़ायरिन अलग किये जाते हैं। लोह का उपयोग या तो नयी हिमोग्लोबिन बनाने के लिए किया जाता है या वो यकृत पेशी में जमा हो जाता है। पॉरफ़ायरिन का रूपांतर बिलिरूबिन नामक रंगीन पदार्थ में हो जाता हैं तथा छोटी आँतों के माध्यम से मल के द्वारा उत्सर्जित किया जाता हैं। यह था लाल रक्तपेशियों का जीवनचक्र। अब हमें अपने जीवन चक्र में एक महत्त्वपूर्ण बात की जानकारी प्राप्त करनी हैं। अ‍ॅनिमिया अथवा पांडुरोग से हम सभी परिचित है। अब हम इस विकार के बारे में जानकारी लेंगे।

हमारे रक्त में लगभग १४ से १६ ग्राम/डेसिलिटर हिमोग्लोबिन होती है। स्त्रियों में इसकी उच्चतम मात्रा १४ ग्राम/डेसिलिटर तथा पुरुषों में १६ ग्राम/डेसिलिटर होती है। जिस व्यक्ति के रक्त में हिमोग्लोबिन की मात्रा इस से साधारणत: ८५% प्रतिशत से कम होती है तो वह व्यक्ति अ‍ॅनिमिक माना जाता है। रक्त में लाल पेशियों की मात्रा सामान्य से कम होने या हिमोग्लोबिन की मात्रा कम होने की स्थिती को अ‍ॅनिमिया कहते हैं। यह विकार किसी में भी हो सकता है। समाज के सभी स्तरों के लोगों में यह विकार पाया जाता है। स्त्रियों में इसकी मात्रा ज्यादा पायी जाती है। उसमें भी १६ वर्ष से ४५ वर्ष आयु की स्त्रियों में इसकी मात्रा ज्यादा पायी जाती है। मासिकधर्म और प्रसूति के दौरान होनेवाला रक्तस्त्राव, अपर्याप्त अथवा निम्नस्तर का आहार, कुपोषण, दिन भर घर की चार दीवारों में ही रहनेवाली जीवनशैली इत्यादि के कारण इस बीमारी की मात्रा ज्यादा होती है। मुस्लिम महिलाओं में बुरखा पहनने की प्रथा के कारण उनमें अ‍ॅनिमिया की मात्रा ज्यादा पायी जाती हैं। गर्भधारणा के नौ महिनों में यदि माँ इस रोग से पीड़ित हो तो जन्म लेनेवाला बच्चा पांडुरोगी ही पैदा होता है। गर्भावस्था में माँ के रक्त से और जन्म के बाद प्रारंभ के छ: महिनों तक माँ के दूध से ही बच्चे को लोह मिलता है। इस लोह का उपयोग करके ही बच्चे के शरीर में हिमोग्लोबिन तैयार होता हैं। तात्पर्य यह है कि गर्भावस्था और जन्म के बाद के छ: महिनों तक बच्चे का पोषण स़िर्फ़ माँ के दूध से ही होता है। इस दौरान बच्चा लोह के लिए पूरी तरह माँ पर निर्भर रहता है। इस दौरान माँ को पूरा ध्यान अपना हिमोग्लोबिन नॉर्मल रखने पर ही रखना चाहिए। इस दौरान प्रतिदिन माँ की लोह की आवश्यकता बढ़ती रहती हैं। क्योंकि अपने साथ ही साथ माँ को बच्चे को भी लोह की आपूर्ति करनी होती है। उसमें भी यदि माँ स्वयं पांडुरोगी हो तो लोह की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है। यह सब बढ़ी हुई आवश्यकता प्रतिदिन का आहार नहीं पूरी कर सकता। इसीलिए इस बढ़ी हुयी आवश्यकता को पूरी करने के लिए माँ को गर्भावस्था एवं प्रसूति के बाद भी लोह की गोलियां लेना आवश्यक होता हैं। माँ जब बच्चे को स्तनपान कराती है तो माँ के दूध से बच्चे को लोह की प्राप्ति होती है। छोटे शिशु को टॉनिक के रूप में दिये गये लोह की तुलना में माँ के दूध से प्राप्त होनेवाला लोह ज्यादा हितकारी होता है। इसीलिए स्तनपान करवाने के दौरान माँ को लोह की गोलियों का सेवन अवश्य करना चाहिये।

हमारे यहाँ की ज्यादा तर महिलायें गर्भावस्था के दौरान डॉक्टर द्वारा दी गयी लोह एवं कॅल्शियम की गोली का सेवन टालती हैं। इसके पीछे तीन प्रमुख कारण होते हैं – १) दवाईयों से परहेज २) छ: सात महीनों तक गोली खाने से ऊब जाना और आलस्य, ३) अत्यंत घातक गलतफ़हमी। जैसे कि यह गलतफहमी – गर्भावस्था के दौरान में गोलियाँ खाने से गर्भ का आकार बढ़ जाता है, जिससे माँ एवं बच्चे दोनों को कष्ट होता है और प्रसूति आसानी से नहीं होती – इस तरह की गलतफ़हमियाँ। माँ के गर्भ में बच्चे को उचित अन्न घटक एवं उचित वातावरण मिलने पर उसकी उचित वृद्धि होती है। यह वृद्धि कष्टकारी नहीं होती, बल्कि बच्चे के लिए फ़ायदेमंद होती है। अन्यथा बच्चा कम वजनवाला ही जन्म लेता है। ऐसे बच्चे को तकलीफ़ होने की संभावना ज्यादा होती है। ऐसे बच्चे को माँ से लोह एवं कॅल्शियम की पर्याप्त मात्रा ना मिलने के कारण वो बच्चा जन्म से ही पांडुरोगी होता है और कॅल्शिअम की कमी के कारण श्‍वास की तकलीफ़ से लेकर मिरगी तक के विकार हो सकते हैं। इस संपूर्ण विवेचना का तात्पर्य यही है कि गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान प्रत्येक माँ को पर्याप्त मात्रा में लोह एवं कॅल्शिअम अवश्य लेना चाहिये।

लाल रक्त पेशी और पांडुरोग की जानकारी लेते समय थोड़ा विषयांतर हुआ। परंतु यह विषयांतर भी महत्त्वपूर्ण है इसीलिये जानबूझकर किया। अ‍ॅनिमिआ का विषय अगले लेख में हम शुरू ही रखेंगे।

(क्रमश:-)

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