कुलू भाग – २

कुलू कहते ही याद आते हैं, सेब! कुलू के सेब बेहतरीन माने जाते हैं। दर असल यहाँ के स्थानीय निवासी कई पीढ़ियों से खेती कर रहे हैं। इस पहाड़ी इला़के की भौगोलिक रचना तथा किसी भी क्षण बदलनेवाले मौसम के कारण हालाँकि यहाँ पर खेती करना यह काफी़ मुश्किल काम है, लेकिन यहाँ की ज़मीन तथा जलवायु कई प्रकार के फलों की उपज के लिए अनुकूल है। इसलिए खेती के साथ साथ फलों के बागान भी यहाँ पर दिखायी देते हैं। यहाँ की शीतल जलवायु के कारण फल भी कई दिनों तक ताज़े रहते हैं। सड़क यातायात द्वारा ये फल, विशेष रूप से सेब भारत के अन्य प्रदेशों में भेजे जाते है। यहाँ पर सड़कों का निर्माण करना यह काफी़ जोखिम भरा काम था। लेकिन सड़क मार्ग बन जाने से यहाँ की कुदरती ख़ूबसूरती का आनन्द लेने के लिए केवल देश से ही नहीं, बल्कि विदेश से भी सैलानी आने लगे। आज पर्यटन यहाँ का प्रमुख व्यवसाय बन चुका है।

हालाँकि आज कुलू जाने के लिए विमान सेवा भी उपलब्ध है, लेकिन उसका उपयोग करने के लिए कुदरत का मेहरबान होना ज़रूरी है।

कुलू घाटी में कई देवीदेवताओं का वास है, ऐसी यहाँ के लोगों की श्रद्धा है। हर गाँव में विभिन्न देवीदेवताओंकी पूजा की जाती है। कुलू घाटी को ‘देवताओं की घाटी’ भी कहा जाता है। ये सभी देवीदेवता कुलू के दशहरे के उत्सव में सम्मीलित होते हैं। उनके इकट्ठा होने के पश्‍चात् उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस शोभायात्रा में सबसे आगे रहते हैं, रघुनाथजी। एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब तक मनाली से हिडिंबा देवी का कुलू में आगमन नहीं हो जाता, तब तक इस शोभायात्रा का प्रारम्भ नहीं होता।

पर्यटन

१७वीं सदी में कुलू के राजा जगतसिंहजी ने रघुनाथजी के मन्दिर का निर्माण किया और उसमें रघुनाथजी की मूर्ति की स्थापना की। इसके बाद रघुनाथजी इस घाटी के प्रमुख आराध्य बन गये। रघुनाथजी का मन्दिर उस समय की शिल्पकला की एक अनोखी मिसाल है। कुलू घाटी में, दर असल पूरे हिमाचल प्रदेश में ही मन्दिर निर्माण में पहाड़ी शैली का उपयोग किया गया है, जो हमें यहाँ पर भी दिखायी देता है और साथ ही अन्य शैलियों का मिश्रण भी। कहा जाता है कि यहाँ के राजा अपने आपको रघुनाथजी का दास मानते हैं। रघुनाथजी ही कुलू के राजा हैं और उनके दास बनकर यहाँ के मानवी राजा शासनव्यवस्था सँभालते हैं।

रघुनाथजी का प्रमुख उत्सव है दशहरा। विजयादशमी – दशहरे से शुरू होनेवाला यह उत्सव सात दिनों तक चलता है। दशहरे को कुलू घाटी के सभी देवीदेवता अपनी अपनी पालकी में सवार होकर कुलू में दाखिल हो जाते हैं। मनाली से हिडिंबा देवी का आगमन हो जाते ही रघुनाथजी के मन्दिर में से रघुनाथजी की पालकी निकलती है और ङ्गिर सभी देवीदेवता प्रमुख उत्सव स्थल पर पहुँच जाते हैं। यहाँ पर रघुनाथजी रथ पर आरूढ हो जाते हैं और ङ्गिर शोभायात्रा आगे बढ़ती है।

कुलू का मैदान उस समय भाविकों की भीड़ से खचाखच भर जाता है। रंगबिरंगे पोषाक़ पहनकर हर्ष और उल्हास के साथ इस उत्सव में सम्मीलित होनेवाले कुलूवासियों से माहौल में चेतना भर जाती है। इस उत्सव के उपलक्ष्य में विभिन्न प्रकार के नृत्य, नाटक पेश किये जाते हैं। कुलू में जैसे मेला ही लग जाता है। स्थानीय कलाकारों के कलागुण, कौशल, महारत भी इस उत्सव में देखने मिलते हैं।

उत्सव के अन्तिम दिन रघुनाथजी की शोभायात्रा निकाली जाती है और रावण का वध करनेवाले श्रीराम की विजय भी रावण के पुतले का दहन कर मनायी जाती है।

कुलू यह पहाड़ी इलाक़ा होने के कारण यहाँ के कई मन्दिर पहाड़ियों पर बसे हैं। यहाँ के मन्दिरों में हम भारत की प्राचीन सभ्यता तथा शिल्पकला के नमूनें देख सकते हैं। कुछ मन्दिरों का निर्माण लकड़ियों से किया गया है। इसकी एक वजह यह है कि यहाँ पर पेड़ बड़े पैमाने पर हैं और दूसरी वजह है, यहाँ की जलवायु।

कुलू से कुछ ही दूरी पर एक ऊँचे पहाड़ पर बसा है, ‘बिजली महादेव’ मंदिर। थोड़ा सा अजीब नाम है ना! लेकिन इस नाम में ही इसकी ख़ासियत छिपी है। इस मंदिर में महादेवजी शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं। लेकिन आप सोच रहे होंगे कि बिजली का इस मंदिर के साथ क्या संबंध है? ‘बिजली’ का अर्थ यहाँ पर ‘इलेक्ट्रिसिटी’ यह नहीं है; बल्कि आसमान में से धडाम से गिरनेवाली यह बिजली है।

यहाँ पर एक १८-२० मीटर्स ऊँचा खंभा है। कहा जाता है कि जब इस खंभे पर बिजली गिरती है तब मन्दिर का शिवलिंग भग्न हो जाता है और इस भग्न शिवलिंग को पुन: शुद्ध घी द्वारा जोड़ दिया जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि हर साल ऐसा होता है, कुछ लोगों का कहना है कि हर दो वर्षों में एक बार ऐसा होता है, तो कुछ लोगों की राय है कि एक बार ऐसा हो जाने के कई साल बाद पुन: ऐसा होता है। वहीं कुछ लोगों की राय में भग्न शिवलिंग को पूर्ववत् बनाने के लिए पुजारीजी घी के साथ साथ जौ का भी इस्तेमाल करते हैं।

यहाँ के भाविकों की श्रद्धा है कि आसमान से इस स्तम्भ पर गिरनेवाली बिजली प्रलयकारी रहती है, जो कि सृष्टि का विनाश कर सकती है, जिसे स्वयं पर लेकर शिवजी सृष्टि की रक्षा करते हैं।

आज कुलू में ‘पर्यटन’ यह प्रमुख व्यवसाय है और इसका कारण है यहाँ की कुदरती ख़ूबसूरती एवं जलवायु। यह इलाक़ा मानों सुन्दर पहाड़ियों की गोद में ही बसा है। हालाँकि कुलू में बऱङ्ग गिरने का लु़फ़्त आप न उठा सकते हों, लेकिन कुलू से दिखायी देनेवाली पहाड़ियों पर आप बऱङ्ग देख सकते हैं। कुलू के पास में ही है, मनाली और मनाली से कुछ ही दूरी पर है, रोहतांग पास। मनाली में सर्दियों के मौसम में आप बरफ़ में खेल सकते हैं। लेकिन उसके लिए कुदरत का मेहरबान होना ज़रूरी है। गर्मियों के मौसम में मनाली से कुछ ही दूरी तय करने के बाद आप बरफ़ में खेलने का मज़ा ले सकते हैं।

दर असल कुलू में आये हुए सैलानी मनाली अवश्य जाते हैं। ‘कुलू-मनाली’ यह जोड़नाम अटूट है। कुलू से घाटी में काफी़ दूर दिखायी देनेवाली पहाड़ियाँ मनाली जाते ही काफी़ क़रीब दिखायी देती हैं और बियास से तो हमारी मुलाक़ात प्रत्यक्ष हो जाती है।

‘मनु-आलय’ इस शब्द से मनाली यह शब्द बना है ऐसा माना जाता है। मनु ने यहाँ पर सर्वप्रथम डेरा डाला था। यहाँ पर ‘मनूरिखी’ का एक मन्दिर भी है। इस स्थान के बारे में एक आख्यायिका भी कही जाती है। यहाँ पर ज़मीन की खोदाई करते समय एक मूर्ति पायी गयी। वह मूर्ति मनु की थी। खोदाई काम के समय कुदाल का घाव पड़ जाने से उस मूर्ति से खून बहने लगा। फिर एक लकड़ी का मन्दिर बनाकर उसमें उस मूर्ति की स्थापना की गयी।

देवदार के ऊँ चे ऊँ चे पेड़, सर्वदूर फैला हुआ अथाह नीला आकाश, मधुर सुरों का संगीत सुनाते हुए मचलकर बहती हुई बियास और इन सबकी पार्श्‍वभूमि बनी ऊँची ऊँची पहाड़ियाँ। जी हाँ, यह सच है कि इस वर्णन को पढ़ने के बाद कुलू जानेवाले सैलानी मनाली अवश्य ही जायेंगे।

जैसा कि हम देख ही चुके हैं, इसी मनाली में हिडिंबा देवी का मन्दिर है। प्रकृति की सुन्दरता की पार्श्‍वभूमि पर यह लकड़ियों द्वारा बनाया गया मन्दिर बड़ा ही ख़ूबसूरत दिखायी देता है।

दर असल मनाली में कई दर्शनीय स्थल हैं, जिन्हें अवश्य देखना चाहिए; लेकिन यहाँ पर लु़फ़्त उठाना चाहिए, यहाँ के बेहरीन ख़ूबसूरत कुदरती नज़ारों का। इन नज़ारों को आँखों से देखिए, बियास की लहरों का संगीत कानों से सुनिए, यहाँ के हर कुदरती करिश्मे का लु़फ़्त उठाइए; लेकिन साथ ही यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता को रूह से महसूस कीजिए। गर्मियों में सुहाने मौसम का मज़ा लीजिए और सर्दियों में बरफी़ली चट्टानों के बीच बरफ़ की चादर ओढ़े लेटी कुलू की घाटी को देखिए। चाहे कुलू हो या मनाली, वहाँ की कुदरती ख़ूबसूरती और प्राकृतिक संगीत से आपके मन को सुकून अवश्य मिलेगा और आपका मन भर जायेगा, सन्तोष और अमित आनन्द से!

आज बढ़ते पर्यटन उद्योग के साथ साथ, मनुष्य के पर्यावरणविरोधी रवैये के कारण यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और संगीत में थोड़ाबहुत परिवर्तन अवश्य हुआ है। इसीलिए यहाँ जानेवाले हर एक सैलानी को इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि यहाँ की ईश्‍वरनिर्मित प्राकृतिक सुन्दरता को बाधा नहीं पहुँचानी चाहिए, उसे जतन करना चाहिए; तब ही जाकर अगली पीढ़ी भी इसका आनन्द ले सकती है।

ख़ैर! कुदरत यहाँ पर सुन्दरता के साथ साथ कुछ अजीबों ग़रीब चमत्कार भी दिखाती है। इस कुदरती करिश्मे को देखने के लिए हमें कुलू से कुछ मील दूर जाना पड़ेगा और अब जब हम सफ़र पर निकल ही चुके हैं, तो आठ दिन बाद उसे भी देखेंगे!

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