कुलू भाग – ३

कुलू के ख़ूबसूरत नज़ारों को देखने के बाद अब हम बढ़ रहे हैं, रास्ता थोड़ा सा मुश्किल ज़रूर है, कई मोड़ भी हैं। लेकिन हम कहाँ जा रहे हैं? ‘मणिकरण’।

कुलू से कुछ ही दूरी पर है, मणिकरण। यहाँ पर कुदरत का एक चमत्कार हम देखते हैं। तेज़ी से बहनेवाली पार्वती नदी, जिसका पानी है बरफ़ की तरह ठंड़ा और उसीके तीर पर गरम पानी के झरने हैं। इस विरोधाभास को, कुदरत के अद्भुत चमत्कार को हम मणिकरण में देखते हैं। दर असल भारत में कई जगह गरम पानी के झरने और वे भी विभिन्न तपमान के, हम देखते हैं; लेकिन हिमालय में और विशेष रूप से हिमाचल प्रदेश में इस तरह के झरनों का पाया जाना यह कुदरत का करिश्मा है।

कुलू से मणिकरण तक की सड़क का निर्माण चट्टानों को खोदकर किया गया है। एक तरफ़ ऊँचे पहाड़ और दूसरी तरफ़ घाटी! उस घाटी में से बहनेवाली नदी कभी दिखायी देती है, तो कभी गहराई के कारण दिखायी नहीं देती। मणिकरण में हमारा स्वागत करती है, सफेद जलधाराओं के साथ बहनेवाली पार्वती नदी।

मणिकरण

पार्वती नदी पर बने ब्रिज को पार कर हम मणिकरण इस छोटे से गाँव में प्रवेश करते हैं। यहाँ पर आते ही एक तीव्र गंध और उष्मा भी महसूस होने लगती है। यहाँ के गरम झरनों का तपमान इतना अधिक है कि उनके पास की चट्टाने भी गरम हो जाती हैं। उबलते हुए पानी में लोग नहाते है। इस जल को औषधि माना जाता है और इसमें स्नान करने से त्वचा रोग ठीक हो जाते हैं ऐसा माना जाता है। इस जल में सल्फर काफी़ मात्रा में है और इसीलिए इस जल को रोगनिवारक माना जाता है। हमने जो गंध महसूस की, वह थी इस सल्फर की गंध।

मणिकरण में प्रवेश करते ही जो पहला झरना हमारे सामने आता है, उस उछलते हुए जल के झरने का जलस्तर नदी के जलस्तर पर निर्भर करता है, ऐसा कहा जाता है।

इस पानी के तपमान का अंदाज़ा आप कर सके, इसलिए मैंने मणिकरण में देखी हुई एक घटना प्रतिपादित करती हूँ। मैंने वहाँ देखा कि कपड़े की एक पोटली में चावल रखकर उन्हें जब इन झरनों में रखा गया, तब चंद कुछ मिनटों में ही पोटली में रखे गये चावल पक गये।

‘मणिकरण’(मणिकर्ण) नामकरण के बारे में एक आख्यायिका कही जाती है। भगवान शिवजी ने कान में पहना हुआ एक मणि यहाँ पर गिर गया था और इसीलिए इस स्थान का नाम ‘मणिकरण’ (मणिकर्ण) हो गया।

ख़ैर, कुदरत के इस करिश्मे को देखने के लिए मणिकरण अवश्य जाना चाहिए।

मनाली से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘वसिष्ठ’ नाम के एक छोटे से गाँव में भी गरम पानी के झरने हैं। वहाँ श्रीराम और वसिष्ठजी का प्राचीन मंदिर भी है।

अब इन गरम पानी के कुंडों से कुलू वापस लौटते हुए यदि आप को ठंड़ लगने लगे, तो आप कुलू की मशहूर शाल लपेट सकते हैं।

कुलू की यह शाल कई वर्षों से कुलू का गौरव है। यहाँ के ठंड़े मौसम के कारण यहाँ के निवासी ऊनी वस्त्र पहनते हैं, बनाते भी हैं। इन वस्त्रप्रकारों का उपयोग प्रमुख रूप से सर्दियों में किया जाता है। पहले यहाँ के निवासी ‘पट्टी’ नाम के ऊनी वस्त्र का निर्माण करते थे और उसके बाद फिर शाल का निर्माण किया जाने लगा। ख़ास रंग और डिझाइन्स यह कुलू में बननेवाली इस शाल की ख़ासियत है।

मणिकरण

कुलू और उसके आसपास के इला़के में भेड़ की ऊन, ‘पश्मिना’ नाम की ऊन और ‘ऑस्ट्रेलियन मेरिनो’ नाम की ऊन इनसे शाल का निर्माण किया जाता है। इस शाल के साथ साथ कुलू की एक और ख़ासियत है, कुलू की टोपी (कॅप)। इस गोलाकार टोपी के सामनेवाले हिस्से पर एक विशेष प्रकार की पट्टी लगायी जाती है और यह पट्टी ही कुलू की इस टोपी की अपनी पहचान है।

कुलू घाटी में कुदरत से क़रीबी रिश्ता रखनेवाले कुलू-निवासी बहुत ही सीधे-सादे लोग हैं। वे ताकतवर, सुन्दर और खुशमिजाज़ हैं। अब बदलते समय के साथ साथ यहाँ के लोगों के रहनसहन में भी का़ङ्गी बदलाव हुआ है। हालाँकि आज यहाँ के अधिकांश निवासी भारत के अन्य प्रदेशों के निवासियों की तरह ही पोशाक़ पहनते हैं, मग़र फिर भी कुछ लोग पुराना लिबास पहनना ही पसंद करते हैं।

पुरुषों की परंपरागत पोशाक़ में चोला, डोरा, सुथन, टोपा, टोपी, लच्छू, चद्दर इन वस्त्रप्रकारों का समावेश होता है; वहीं महिलाओं की परंपरागत पोशाक़ में पट्टू, धातु अथवा थिपु, शाल एवं पुलास् इन वस्त्रप्रकारों का समावेश होता है।

आजकल के कुलू घाटी के निवासी आपको भले ही इस पोशाक़ में दिखायी न भी दें, मग़र कुलू-मनाली आनेवाले सैलानियों को आप इन पोशाक़ों को पहनकर फोटो खींचते हुए देख सकते हैं।

यहाँ के लोगों को गहनों का काफी़ शौक है। पुराने समय में महिलाएँ और पुरुष दोनों भी गहनों का उपयोग करते थे; लेकिन आज केवल महिलाएँ ही विभिन्न प्रकार के गहने पहनती हैं। ये गहने अधिकतर चाँदी से बनाये जाते हैं। स्वर्ण के गहने भी वे पहनती हैं, लेकिन शायद वे स्वर्ण से अधिक चाँदी को ही पसंद करती हैं। इन गहनों में प्रमुख रूप से प्रतिदिन पहनने के गहने और त्योहार, समारोह में पहनने के गहने ऐसे प्रकार होते हैं।

कुलू घाटी के निवासी उत्सव, मेला, शोभायात्रा आदि अवसर पर लोकनृत्य करते हैं। प्रकृति के संगीत के साथ कई घंटों तक उनका नृत्य चलता है। लेकिन आज सड़क मार्ग से अन्य प्रदेशों के साथ जुड़ जाने के कारण कुलू में आधुनिकता अपने कदम रख चुकी है।

मग़र फिर भी एक गाँव अब भी ऐसा है, जिसे बदलना म़ंजूर नहीं है। कई सदियों से अपने पुराने रीतिरिवाज़ों को कसकर पकड़े रखनेवाले ‘मलाना’ ने अपने आपको आधुनिकता से कोसों दूर रखा है।

चंदेरखनी घाटी के उस पार लगभग २०० घरों का यह मलाना गाँव बसा है। यहाँ के लोगों का मानना है कि यह दुनिया का सब से ‘पुराना गणराज्य’ है। जननियुक्त यन्त्रणा द्वारा इस गाँव का कारोबार चलाया जाता है। इसलिए यहाँ के निवासियों का बाहरी दुनिया से कोई लेनदेन व्यवहार नहीं है।

यहाँ के लोगों का मानना है कि वे अलेक्झांडर के ग्रीक सैनिकों के वंशज हैं। यहाँ पर आनेवाले बाहरी व्यक्ति को मलाना के क़ानून का पालन यहाँ करना पड़ता है और उनमें सब से पहला नियम यह है कि मलाना की किसी भी बात को (फिर चाहे वह घर हों, इन्सान हों या जानवर) बाहरी व्यक्ति छू नहीं सकता। गाँव के क़ानून द्वारा निर्धारित रास्ते पर से ही बाहरी व्यक्ति को गाँव में घूमने की इजाज़त है। यदि कोई इन नियमों का भंग करता है तो उसे जुर्माना भरना पड़ता है।

यहाँ के निवासी ‘कनाशी’ नाम की भाषा बोलते हैं। यह भाषा केवल मलानावासी ही बोल तथा समझ सकते हैं। कहा जाता है कि इस गाँव के लोगों का बाहरी दुनिया से संपर्क न होने का प्रमुख कारण है, इस गाँव की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थिति। लेकिन इससे एक बात अवश्य हुई है। यहाँ का पर्यावरण आज भी सुरक्षित है।

इन स्वतंत्र लोगों की देवता का नाम है, ‘जमलू’। उनका मानना है कि उनके ये देवता सर्वश्रेष्ठ हैं। इस गाँव की पूरी ज़मीन के मालिक वे ही हैं और उनका खज़ाना धन और गहनों से भरा पड़ा है। किसी भी सार्वजनिक काम के लिए यदि धन की आवश्यकता रहती है तब जमलू देवता के पुजारी उनके खज़ाने में से आवश्यक धन निकालते हैं। आजकल मलाना की इस ख़ासियत को देखने के लिए सैलानी वहाँ जाते हैं; मग़र फिर भी वहाँ के लोग आज भी अपने पुराने रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं।

स्वतंत्र आनबान के ‘मलाना’ की सैर करने के बाद आप भी ताज्जुब में पड़ गये ना! चलिए, तो इस अनोखे मोड़ पर ही हम कुलू से अलविदा कहते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published.