हंपी भाग ५

सुबह का समय। लगभग १०-११ बजे हैं। तुंगभद्रा से आनेवाली सुहावनी हवा से वायुमण्डल में चेतना जगी है। हंपी के बा़जार में लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी है। कुछ लोग वहाँ के बा़जार में जीवनावश्यक वस्तुओं को तो खरीद ही रहे हैं, साथ ही यहाँ पर सोने-मोतियों जैसी कीमती वस्तुओं को भी बेचा-खरीदा जा रहा है। कुछ ऐसा ही होगा ना, भूतकाल की हंपी का चित्र! और आज यहाँ पर छाया हुआ है सन्नाटा और खामोशी। तुंगभद्रा तो वही है, उसपर से आनेवाली हवा भी वैसी ही है, लेकिन समय के विशाल बहाव में बहुत कुछ बह गया और आज की यह खामोशी उसी का नतीजा है।आज की हंपी में हम उस पुराने बा़जार को देख सकते हैं। रास्ते के दोतरफ़ा आज भी सुव्यवस्थित रूप से मौजूद हैं, पत्थर से बनीं वास्तुएँ, जिनमें उस समय के दुकानदार अपना माल रखकर बेचते थे। आज की भाषा में कहना हो, तो दुकानों की एक लंबी कतार और वह भी रास्तों के दोतरफ़ा।

हंपी के उत्खनन में से आज प्राप्त हुईं कई वास्तुएँ पुनः एक बार दुनिया के सामने आयी हैं और उनमें लक्षणीय संख्या है मंदिरों की। दरअसल हंपी में छोटे-बड़े मिलकर कईं मंदिर थे, लेकिन आज केवल बड़े मंदिर ही देखनेलायक स्थिति में हैं।

इन्हीं मंदिरों में से एक विशाल मंदिर है – ‘विठ्ठल मंदिर’ अथवा ‘विजयविठ्ठल मंदिर’ अथवा ‘विठ्ठलस्वामी मंदिर’। ‘अ़जीमुश्शान’ इस शब्द द्वारा ही इस मंदिर का वर्णन किया जा सकता है। इस मंदिर के नाम से आप समझ चुके होंगे कि इस मंदिर के मुख्य देवता कौन हैं।

१५वी सदी में बनाये गये इस मंदिर की रचना का विजयनगर के अगले शासक विस्तार करते रहे। सर्वांगसुन्दर ऐसे इस मंदिर के अहाते का क्षेत्र लगभग ५०० फ़ीट लंबा और ३०० फ़ीट चौड़ा है। मंदिर के गर्भगृह में आज मुख्य देवता की मूर्ति मौजूद नहीं है। यहाँ के हर एक स्तम्भ पर बहुत ही सुन्दर नक़्काशीकाम किया गया है। मंदिर के आधारस्तम्भ हैं, बड़े बड़े अखण्ड पत्थर। एकसन्ध बारह फ़ीट के छप्पन खम्भे इसके अर्धमण्डप का भार उठाते हैं।

इस मंदिर में दो ख़ास बातें हैं। उनमें से पहली बात है, यहाँ के ‘संगीत स्तम्भ’ अर्थात् ‘म्युझिकल पिलर्स’। इन स्तम्भों पर आघात करने से उनमें से विभिन्न प्रकार के संगीत के सुर सुनायी देते हैं। इस प्रकार के संगीत स्तम्भ भारत के कुछ अन्य मंदिरों में भी पाये जाते हैं। ये संगीत स्तम्भ उस जमाने के रचनाकारों की विलक्षण प्रतिभा की मिसाल है।

इस मंदिर की दूसरी ख़ासियत तो देखनेवालों को चकाचौन्ध कर देती है, लेकिन उसके लिए हमें मंदिर के अहाते के कल्याणमण्डप में जाना होगा। इस अहाते में दिखायी दे रहा है, एक पत्थर से बना रथ। अखण्ड पत्थर में से तराशा गया रथ। यह ऐसी ची़ज है कि देखनेवाले तो बस्स् इन कारीगरों के हुनर को दाद देते रहते हैं। इस पत्थर के रथ के पहिये आगे-पीछे चल सकते हैं; संक्षेप में, यह रथ इन पहियों पर चल सकता था। लेकिन आज इन पहियों को जमीन में फ़िट कर दिया गया है, ताकि पत्थर में तराशा गया यह अजूबा क़ायम रह सके। यह रथ महाविष्णु के वाहन गरुडजी का मंदिर था, ऐसा माना जाता है। इस रथ का वर्णन शब्दों में करना मह़ज नामुमक़िन ही है, क्योंकि इसके बारे में कुछ बयान करने की अपेक्षा इसकी सुन्दरता को ऩजरों से निहारना ही आसान है।

यह संपूर्ण रथ ग्रॅनाइट पत्थर से बना है और उसपर बेहतरीन नक़्काशीकाम किया गया है। इस रथ के निर्माणकार्य में दोनों पत्थरों को जोड़ते हुए बड़ी ख़ूबी के साथ जोड़ा गया है, ताकि देखनेवालों को वह जोड़ ऩजर ही न आये और पूरे रथ को एक ही पत्थर से तराशा गया है ऐसा प्रतीत हो। जोड़ों के स्थान पर नक़्काशीकाम किया गया है, जिससे कि वहाँ पर दो पत्थरों को आपस में जोड़ा गया है, यह बात ऩजर नहीं आती। इस रथ की ऊँचाई लगभग २६ फ़ीट है। रथ के पहियों पर फ़ूलों के चित्र तराशे गये हैं। रथ के कुछ हिस्से को रंग दिया गया है और ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर में ही इसके निर्माण के बाद खनिज रंगों का इस्तेमाल करके इसे रंग दिया गया था।

पुराने जमाने के शासक किसी युद्ध में विजय प्राप्त करने के स्मारक के रूप में किसी वास्तु अथवा रचना का निर्माण करते थे, जैसे सम्राट कृष्णदेवराय ने कलिंग-विजय के स्मारक के रूप में ‘महानवमी डिब्बे’ का निर्माण किया था। इन्हीं सम्राट कृष्णदेवराय ने इसी हंपी में उड़िसा के राजा पर प्राप्त की हुई जीत के स्मारक के रूप में बालकृष्ण के मंदिर का निर्माण किया था। हाथ में मक्खन का गोला धारण करनेवाले बालकृष्ण यहाँ के प्रमुख देवता थे, लेकिन आज उन्हें म्युझियम में सुरक्षित रूप से रखा गया है।

हंपी में इतने सारे देवताओं के मंदिर तो हम देख ही चुके हैं; लेकिन कुछ तो छूट गया-सा लग रहा है ना! जी हाँ, हमारे सुपरिचित गणेशजी के दर्शन हमने अब तक नहीं किये।

हेमकुंत पहाड़ी के उतार पर गणेशजी की दो बड़ी मूर्तियाँ विराजमान हैं। ‘ससिवेकलु गणेश’ इस नाम से जाने जानेवाले गणेशजी की ऊँचाई लगभग २.४ मीटर्स है। इनके नाम में एक बड़ा म़जेदार विरोधाभास है। ‘ससिवेकलु’ का अर्थ है ‘सरसों का दाना’।

दूसरे गणेशजी की ऊँचाई ४.५ मीटर्स है। उनका नाम है ‘कदलेकलु गणेश’ और ‘कदलेकलु’ का अर्थ है, ‘चने के जितने’।

ख़ैर! गणेशजी से तो मुलाक़ात हुई। लेकिन क्या इस स़फ़र में शिवजी के वाहन के दर्शन अबतक नहीं हुए। पत्थर में तराशे गये एक बहुत बड़े नंदीजी एक पत्थर की मंदिर जैसी वास्तु में हमें दिखायी देते हैं। स्थानीय लोग उन्हें ‘नंदी’ अथवा ‘येदुरु बसवण्णा’ कहते हैं।

इस तरह के सैंकड़ों छोटे मंदिर हंपी के संपूर्ण इलाके में मौजूद हैं। लेकिन उस समय के राजा-महाराजा, उनके परिजन इन्हीं मंदिरों में जाते थे कि उनके लिए कुछ ख़ास मंदिर बनवाये जाते थे? इस प्रश्‍न का उत्तर देता है – ‘ह़जार राम का मंदिर’। उस समय के राजा और उनके परिजन बाकी के मंदिरों में तो जाते ही होंगे, लेकिन साथ ही केवल राजा और राजपरिवार के लिए कुछ ख़ास मंदिर बनवाये जाते थे और उन्हींमें से एक है – ह़जार राम का मंदिर।

दरअसल यह तो श्रीराम का मंदिर है। फ़ीर उसे यह अजीब सा नाम क्यों है? तो इस मंदिर में रामायण के ह़जारों प्रसंग तराशे गये हैं, इसीलिए इस मंदिर का नाम ‘ह़जार राम मंदिर’ ऐसा हुआ। इन प्रसंगों की शुरुआत होती है, श्रीराम के जन्म से और उसके बाद एक के बाद एक करके रामायण की सभी घटनाएँ यहाँ की दीवारों पर चित्रबद्ध की गयी हैं।

हंपी में राजाओं की वास्तुएँ जहाँ पर थीं, वहीं पर इस मंदिर के होने के कारण यह मंदिर केवल राजा और राजपरिवार इनकी उपासना के लिए ही बनवाया गया था, ऐसा माना जाता है।

अब राजाओं से संबंधित वास्तुओं के प्रदेश में कदम रखा ही है, तो देखते हैं, राजाओं की कुछ अन्य वास्तुएँ दिखायी देती हैं या नहीं!

विजयनगर के शासकों द्वारा बनाया गया राजमहल हालाँकि आज अस्तित्व में नहीं है, लेकिन राजमहल के विशाल पत्थर से बने दरवाजें, सम्पूर्ण राजमहल की जलपूर्ति व्यवस्था ऐसी कुछ बातें आज भी अस्तित्व में हैं।

रानियों के आवास की, स्नान की अलग व्यवस्था की गयी थी और तदर्थ विभिन्न इमारतों का भी निर्माण किया गया था। इनमें से आज भी सुस्थिति में रहनेवाले ‘कमल महल’ अथवा ‘लोटस पॅलेस’ को हम देख सकते हैं।

ऊपर से देखें तो वह मानों एक खिले हुए कमल के फ़ूल की तरह दिखायी देता है। इस रचनाविशेषता के कारण ही इसे ‘कमल महाल’ यह नाम दिया गया होगा। यह दो मंज़िला इमारत का़फ़ी हवादार है। कहते हैं कि शायद विजयनगर के शासकों की रानियों का यह ग्रीष्मकालीन आवासस्थल होगा।

अब तक के वर्णन से आपको हंपी के राजाओं के वैभव का अंदाज़ा तो आ ही चुका होगा। जिस नगरी की सड़क पर स्थित बाज़ार में सोना, हीरें, मोती बेचे जाते थे, वह हंपी कितनी समृद्ध होगी! यहाँ के राजाओं के वैभव की तथा उदारता की गवाही देने के लिए यहाँ का ‘तुला स्तंभ’ ही का़फ़ी है।

इस तुला स्तंभ को ‘किंग्जस् बॅलन्स’ भी कहा जाता है। १५ फ़ीट की ऊँ चाई के ग्रॅनाइट के दो स्तंभ और उन दोनों स्तंभों को आपस में जोड़नेवाला १२ फ़ीट का आड़ा स्तंभ, ऐसी इसकी रचना है। इन स्तंभों पर तराजू के दो पलड़े लगाने की व्यवस्था की गयी थी। यह व्यवस्था का़फ़ी मज़बूत थी, क्योंकि यहाँ पर राजा की तुला की जाती थी। तराजू के एक पलड़े में राजा को बिठाकर दुसरे पलड़े में राजा के वजन के जितने हीरें, रत्न, सोना, चांदी आदि रखे जाते थे। बाद में इन सभी किमती वस्तुओं को दान किया जाता था। साधारणत: राजा के राज्याभिषेक समारोह पर, नववर्ष के पहले दिन, सूर्यग्रहण अथवा चंद्रग्रहण जैसे दिनविशेष पर राजा की इस तरह तुला की जाती थी।

इस तुला के स्तंभ भी विजयनगर की शान के प्रतीक हैं। ‘किंग्जस् बॅलन्स’ के इन स्तंभों पर बेहतरीन ऩक़्क़ाशीकाम किया गया है। एक स्तंभ पर राजा को उसकी दो रानियों के साथ दर्शाया गया है।

संक्षेप में, सुंदरता यह विजयनगर की शिल्पकला की आत्मा है और कल की तथा आज की हंपी का भूषण भी। विजयनगर के शासकों की सौंदर्यदृष्टि और कलाप्रेम बेमिसाल हैं। उनकी इस सौंदर्यदृष्टि के आविष्कार को उस ज़माने के शिल्पकारों ने अमूर्त पत्थरों को तराश कर साकार किया। ऊबड़खाबड़ और रूक्ष प्रतीत होनेवाले पत्थर शिल्पकारों के हस्तस्पर्श से जीते-जागते बन गये। कहते हैं कि हंपी यह केवल देखने की नगरी नहीं है, बल्कि वह महसूस करने की एक बेजोड़ कहानी है। जी हाँ, सच कहते हैं, ‘यहाँ का हर एक पत्थर कुछ कहता है।’

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