नेताजी- ८३

सुभाषबाबू अब उत्सुक थे, विठ्ठलभाई से मिलने के लिए। मई महीने के प्रारम्भ में विठ्ठलभाई कूच ब कूच जब व्हिएन्ना पहुँचे, तब सेहत ठीक न होने के बावजूद भी उस सुबह की कड़ाके की ठण्ड़ में रेल्वे स्टेशन पर उनके स्वागत के लिए अकेले सुभाषबाबू ही आये थे। बीमार होने के कारण लाठी टेकते टेकते धीरे धीरे चलते हुए आनेवाले श़ख्स विठ्ठलभाई ही हैं, इसपर उन्हें यक़ीन ही नहीं हो रहा था। हालाँकि चेहरे पर बुढ़ापे के निशान तो थे, मग़र उनका तेज ज्यों का त्यों था। सुभाषबाबू को भी उन्होंने झट से पहचान लिया और उन्हें वहाँ देखकर विठ्ठलभाई भी खुश हुए। सुभाषबाबू उन्हें गाड़ी से सीधे वे जहाँ ठहरे थे, उस ‘हॉटेल द फ़्रान्स’ में ले आये। आते समय उनकी बातचीत का़फ़ी रंग लायी थी और स्वाभाविक रूप से उस बातचीत का विषय एक ही था, उन दोनों के गहरे लगाव का विषय – ‘भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम’। उस विषय में सुभाषबाबू के वस्तुनिष्ठ तथा आत्मीयतापूर्ण विचार सुनकर विठ्ठलभाई के मन में कौतुक जाग उठा। दासबाबू हमेशा सुभाषबाबू का उल्लेख ‘मेरे भण्डार का सर्वोत्तम रत्न’ इस तरह करते थे, वह उन्हें याद आया।

असहकार आन्दोलन

भारत में गाँधीजी का असहकार आन्दोलन जोरों पर था। सरकार का निर्दयी दमनतन्त्र भी चरमसीमा पर पहुँच चुका था। जेलें अपनी पूरी क्षमता से भर चुकी थीं, मग़र फ़िर भी सत्याग्रहियों का जेल जाना शुरू ही था। पुरुषों के साथ साथ महिलाएँ भी जोशपूर्वक आन्दोलन में शामिल हुई थीं। शहीद होनेवाले सत्याग्रहियों की संख्या भी बढ़ रही थी। विठ्ठलभाई को सुभाषबाबू के यहाँ रहकर दो-चार दिन ही बीते होंगे-न होंगे कि गाँधीजी ने ‘सरकार दमनतन्त्र को फ़ौरन रोक दे’ यह आवाहन कर असहकार आन्दोलन को बिनाशर्त पीछे ले लिया है, यह ख़बर आ गयी। उसके बाद फ़ौरन ही उन्होंने समाज के शोषित वर्ग के उद्धार का कार्य हाथ में लिया और आत्मशुद्धि के लिए वे अनशन पर बैठ गये। तीसरी बार आन्दोलन इस तरह पीछे ले लिया गया था।

ते़जी से दौड़ रही इस आन्दोलन की रेल को इस तरह यक़ायक ब्रेक लगा हुआ देखकर सुभाषबाबू तथा विठ्ठलभाई को भी बड़ा ताज्जुब हुआ। दोनों ने का़फ़ी समय विचारविमर्श करके एक घोषणापत्र प्रसृत किया – ‘हालाँकि असहकार यह आज के समय का प्रभावी शस्त्र है, मग़र काँग्रेस की असहकार आन्दोलन की पद्धति फ़ेल हो चुकी है और गाँधीजी चाहे कितने भी बड़े नेता क्यों न हों, लेकिन एक राजकीय नेता के रूप में उनका नेतृत्व काल की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाया है। मात्र आत्मक्लेश सहने से निर्दयी शत्रु का हृदयपरिवर्तन होगा, ऐसी फ़िजूल कि उम्मीद करने के दिन अब बीत चुके हैं। आज बदलते समय के साथ साथ काँग्रेस की भी नयी बुनियाद पर मूलतः ही पुनर्रचना करना जरूरी है। यह यदि मुमक़िन न हो, तो कम से कम इस प्रकार की सोच रखनेवाले समविचारी लोगों को इकट्ठा होकर काँग्रेस पक्षान्तर्गत ही नये पक्ष की स्थापना करनी चाहिए। हालाँकि असहकार के मुद्दे को छोड़ देने की कोई वजह नहीं है, लेकिन उसे अधिक तीव्र बनाने की आवश्यकता यक़ीनन ही है।’

इस पत्रक की कॉपी लेने के लिए ‘संडे इव्हिनिंग पोस्ट’ के पत्रकार, विठ्ठलभाई के दोस्त अल्फ़्रेड टिर्नाएर आये थे। इस घोषणापत्र की भाषा सुनकर वे हिल गये। तब विठ्ठलभाई ने सुभाषबाबू से उनका परिचय करवाया। उन्होंने उनका नाम सुना था। शुरू शुरू में विठ्ठलभाई को भी इस घोषणापत्र की भाषा का़फ़ी तिखी तथा आक्रमक महसूस हुई थी, लेकिन सोचविचार करने पर आख़िर ‘यह समय की जरूरत है’ यह मानकर वे सुभाषबाबू के साथ सहमत हो गये।

यह घोषणापत्र जब भारत पहुँचा, तब उसकी जहाल शब्दरचना के कारण सभी को, विशेषतः गाँधीजी के समर्थकों को बड़ा धक्का लगा। उस समय नाशिक जेल में रहनेवाले वल्लभभाई को तो ‘सुभाष ने विठ्ठलभाई को संमोहित ही कर दिया है’ ऐसा लगने लगा।

इस घोषणापत्र में जाहिर की हुईं भावनाएँ कई नेताओं के मन में हैं, यह सुभाषबाबू जानते थे। ऐसे सभी नेताओं को इस घोषणापत्र के कारण हिम्मत जुटाकर अपनी भावनाओं को जाहिर रूप में प्रस्तुत करने का बल मिल सकता है और वे सभी इकट्ठा होकर काँग्रेस के आन्दोलन को नयी दिशा दे सकते हैं, ऐसा सुभाषबाबू का खयाल था। लेकिन वह घोषणापत्र उस समय के लिए शायद ठीक नहीं था, क्योंकि उस समय गाँधीजी अनशन शुरू कर चुके थे और दिनबदिन उनकी बिगड़ती हुई हालत को देखकर सारे देश की ऩजरें उनपर टिकी हुई थीं। देश भर में उनकी सलामती की दुवाएँ माँगी जा रही थीं। इसलिए इस घोषणापत्र का सुभाषबाबू को अपेक्षित परिणाम नहीं हुआ।

यहाँ पर विठ्ठलभाई की बिगड़ती हुई सेहत को देखकर अब सुभाषबाबू वैद्यकीय परामर्श के अनुसार उन्हें ‘हिमलहॉफ़’ सॅनिटोरियम ले गये और उनके इलाज की व्यवस्था करके पुनः अपने काम में जुट गये। अब उनका ध्यान था, जून में इंग्लैंड़ में होनेवाली राजकीय परिषद पर। जर्मनी और इंग्लैंड़ में प्रवेश प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड़स्थित इंडिया ऑफ़िस में उन्होंने अ़र्जी दे दी थी। वहाँ का़फ़ी ‘हाँ-ना’ होकर आख़िर उन्हें इलाज के लिए जर्मनी जाने की इजा़जत मिली थी। लेकिन इंग्लैंड़ में प्रवेश करने की अनुमति देने के लिए अब भी इंडिया ऑफ़िस हिचकिचा रही थी।

येनकेनप्रकारेण सुभाषबाबू को इंग्लैंड़ आने से रोकने के लिए इंडिया ऑफ़िस ने यह रवैया अपनाया कि सुभाषबाबू को मात्र इलाज के लिए युरोप आने की अनुमति दी गयी है और उनके पारपत्र पर ‘जर्मनीप्रवेश निषिद्ध’ यह सा़फ़ सा़्फ़ लिखा हुआ होने के बावजूद भी वहाँ पर औषधि जल के झरने रहने के कारण उन्हें जर्मनीप्रवेश की विशेष अनुमति दी गयी। लेकिन इंग्लैंड़ में इस तरह के झरने न रहने के कारण उन्हें यहाँ आने की कोई वजह ही नहीं है। मुख्य बात यह है कि वे यहाँ इलाज के लिए नहीं, बल्कि एक राजकीय परिषद में शामिल होने के लिए आ रहे हैं, जिसके लिए उन्हें इजा़जत नहीं दी जा सकती। अत एव वे यदि यहाँ पर आ भी जाते हैं, तब भी उन्हें गिऱफ़्तार कर लिया जायेगा।

यह समझते ही, सुभाषबाबू यहाँ आने की जोख़ीम न उठायें, ऐसी राय इंग्लैंड़स्थित उनके मित्रों ने ़जाहिर की। तब सुभाषबाबू ने अपना अध्यक्षीय भाषण लिखकर परिषद के आयोजकों के पास भेज दिया।

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