नेताजी-७६

आयर्विन के बाद व्हाईसरॉय के रूप में भारत आया विलिंग्डन तो दिल्ली समझौते से लगभग पलट ही गया था। उस समझौते पर हस्ताक्षर करनेवाले दोनों व्यक्ति – आयर्विन की मोहलत ख़त्म होने के कारण, वहीं गाँधीजी दूसरी गोल मे़ज परिषद में उपस्थित रहने के लिए – इंग्लैंड़ जाने के कारण सरकार की तो मानो दसों ऊँगलियाँ घी में थीं और सरकार ने बेधड़क समझौते के मुद्दों को तिलांजली देकर दमनतन्त्र का दौर शुरू कर दिया। संयुक्त प्रान्त, बंगाल और वायव्य सरहद्द प्रान्त के हालात को क़ाबू में करने के लिए एक के बाद एक अध्यादेश जारी करके सरकार ने दमनतन्त्र की हद कर दी। सुभाषबाबू की अध्यक्षता में संयुक्त प्रान्त में सम्पन्न हुए नौजवान सभा के अधिवेशन में सरकार के दमनतन्त्र का तथा कुल मिलाकर दिल्ली समझौते का सम्मान न करनेवाली अँग्रे़ज सरकार का निषेध किया गया। साथ ही, ऑल-इंडिया ट्रेड युनियन काँग्रेस के, सुभाषबाबू की अध्यक्षता में सम्पन्न हुए अधिवेशन में भी सरकार के काले कारनामों का निषेध किया गया।

इसी दौरान २८ अक्तूबर १९३१ को अज्ञात व्यक्तियों द्वारा गोलियाँ चलाकर ढाका के कलेक्टर का वध कर देने के बाद पुलीस ने ग़ुस्से से बेतहाशा लाठीशाही अपनाना शुरू कर दिया। बेवजह बेगुनाहों को गिऱफ़्तार करना, तहकिकात करने के बहाने से वक़्त-बेवक़्त लोगों के घर में घुसना, किसी को भी स्वतन्त्रतासंग्राम से जुड़ा हुआ साबित करने के लिए बादरायण संबंध लगाना और उसे गिऱफ़्तार करना, किसीसे भी मनचाहा इक़रारे जुल्म लिखवाने के लिए कोड़े लगाना, इस तरह का कहर पुलीस ढा रही थी।

सुभाषबाबू

सुभाषबाबू ने सरकार के दमनतन्त्र का निषेध करने के लिए अल्बर्ट हॉल में सभा आयोजित की और हालात का जाय़जा लेने के लिए वे जहा़ज से ढाका जाने निकले। लेकिन उनपर निरन्तर ऩजर रखनेवाले गुप्तचरों के कारण ‘सुभाषबाबू ने ढाका के लिए प्रस्थान कर चुके हैं’ यह ख़बर वहाँ पहले ही पहुँच गयी थी। अत एव नारायणगंज के क़िनारे तक जहा़ज के पहुँचने से पहले ही ढाका का अतिरिक्त पुलीस अधीक्षक एलिसन वहाँ पहुँच चुका था। उसने सुभाषबाबू को जहा़ज से उतरने के लिए मना कर दिया और उन्हें कोलकाता जानेवाले जहा़ज में बिठा दिया। सुभाषबाबू ने बीच रास्ते तेजगाँव उतरकर उस मार्ग से ढाका में प्रवेश करने की कोशिश की। तब उन्हें गिऱफ़्तार करके ढाका की जेल में रखा गया और फिर वापस कोलकाता ले जाया गया।

उनके ख़िला़फ टेगार्ट के गुप्तचरों ने सालभर मेहनत करके इकट्ठा किये हुए सबूत तो थे ही। उन्हीं में अब यह भी जुड़ गया। अत एव सुभाषबाबू को कड़ी से कड़ी स़जा देकर कम से कम ७-८ साल तक तो लोगों की ऩजरों से दूर रखना चाहिए, ऐसा सरकार सोच रही थी और इसी अनुषंग से अब सुभाषबाबू को उलझाने से सम्बन्धित ‘न्याय’प्रक्रिया के काम में जुट गयी। सर्वप्रथम बंगाल सरकार ने सुभाषबाबू के सालभर के ‘कारनामों से संबंधित’ अपनी अधिकृत रिपोर्ट भारत सरकार को भेज दी। उसके अन्त में उन्होंनें यह टीप्पणी भी की थी कि ‘सुभाषबाबू बंगाल के सशस्त्र क्रान्ति के उद्गाता एवं प्रेरणास्थान हैं और इसीलिए उन्हें बंगाल से दूर रखने से इस तरह के आन्दोलन अपने आप ही जड़ से उखड़ जायेंगे।

यह रिपोर्ट दिल्ली पहुँचते ही नये व्हाईसरॉय – विलिंग्डन ने बंगाल सरकार को उसके लिए अनुमति फौरन दे दी और उस सन्दर्भ में वॉरंट भी भारत सरकार द्वारा बंगाल सरकार को दे दिया गया। लेकिन सुभाषबाबू को बंगाल में गिऱफ़्तार करने का नतीजा क्या होगा, यह सरकार भली-भाँति जानती थी और इसीलिए बंगाल में उन्हें गिऱफ़्तार करने की हिम्मत सरकार में नहीं थी। इसीलिए सुभाषबाबू के बंगाल से बाहर जाने की घात में सरकार बैठी थी और सरकार को यह अवसर जल्द ही मिल गया।

हुआ यूँ कि दूसरी गोल मे़ज परिषद ख़त्म कर गाँधीजी २८ दिसम्बर १९३१ को भारत लौट आये। इस परिषद में भी मह़ज गोल गोल गप्पें हाँकने के अलावा अन्य किसी विशेष फलित की प्राप्ति नहीं हुई थी। लेकिन लोगों को उससे कोई लेनदेन नहीं था। लोगों को बेसब्री से इन्त़जार था, उनके अधिनायक को देखने का।

मुंबई बन्दरगाह पर उतरने के बाद जनता ने गाँधीजी का ऐसा भव्य उत्स्फूर्त स्वागत किया, जो किसी सम्राट को भी नसीब नहीं हुआ होगा। उसी दिन आ़जाद मैदान में विराट सभा हुई। मैदान तो खचाखच भरा हुआ ही था, साथ ही आसपास के सभी रास्तों पर एवं इमारतों में भी लोग गाँधीजी को सुनने तथा देखने के लिए इकट्ठा हुए थे। हालाँकि गाँधीजी को वहाँ पहुँचने में थोड़ी देरी हुई, मग़र तब भी लगभग दो लाख लोग शान्ति से उनकी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। गाँधीजी ने गोल मे़ज परिषद में क्या हुआ, यह संक्षेप में बताया। साथ ही, स्वयं के खाली हाथ वापस आने की बात भी बड़े सच्चे दिल से क़बूल की। उनके भाषण में से अँग्रे़ज सत्ता के खिला़फ रहनेवाला ग़ुस्सा फूट रहा था। भविष्य के आन्दोलन की मानो यह आहट ही थी।

दूसरे दिन मुंबई में ही काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक थी। ताज्जुब की बात यह थी कि सुभाषबाबू के कार्यकारिणी में न रहते हुए भी, इस बैठक के लिए उन्हें ख़ास रूप से आमन्त्रित किया गया था और वह भी स्वयं गाँधीजी द्वारा ही दी गयी विशेष सूचना के कारण, यह उन्हें बाद में पता चला। इस बैठक में, गाँधीजी के गोल मे़ज परिषद के लिए इंग्लैंड़ रवाना होने के पश्चात् देश में हुईं घटनाओं का ब्योरा उन्हें प्रस्तुत किया गया। गाँधीजी के देश के बाहर कदम रखते ही सरकार ने ‘दिल्ली समझौता’ लगभग कचरे के डिब्बे में ही फेंक दिया गया, यह बात सा़फ हुई थी।

गांधीजी ने व्हाईसरॉय से मुलाक़ात कर सभी मुद्दों का खुलासा कर लेना चाहिए, यह इस बैठक में तय किया गया। सुभाषबाबू ने इसका विरोध किया। जब अँग्रे़ज सरकार इस समझौते को फूटी कौड़ी की भी कीमत नहीं दे रही है, तो वह अब थोड़े ही माननेवाली है। इसीलिए ऐसी सरकार के साथ पुनः सामोपचार से बातचीत करना, यह लाचार बनने जैसा है, यह सुभाषबाबू की राय थी। मग़र तब भी यह प्रस्ताव पारित होकर उसके अनुसार व्हाईसरॉय को टेलिग्राम भेजा गया। उसके जवाब में व्हाईसरॉय से ‘मिलने की कोई जरूरत नहीं है’ यह टेलिग्राम आया।

पुनः १ जनवरी १९३२ को काँग्रेस कार्यकारिणी की मीटिंग हुई और अब सामोपचार के सारे रास्ते बन्द हो जाने के कारण क़ायदाभंग के आन्दोलन की पुनः शुरुआत करने का प्रस्ताव पारित किया गया। दूसरे दिन सुभाषबाबू खुश होकर ही मुंबई से कोलकाता जाने के लिए रवाना हुए। दिमाग में आन्दोलन की बातें ही चल रही थीं – अब गाँधीजी ने आन्दोलन का इशारा दिया ही है, तो सारे बंगाल में स्वतन्त्रता आन्दोलन का जुनून भरकर अधिक से अधिक स्वतन्त्रतासैनिकों को आन्दोलन में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, यही वे गाड़ी में बैठकर सोच रहे थे।

लेकिन नियति के मन में कुछ और ही था। घण्टेभर में ही कल्याण स्टेशन आ गया और ….

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