नेताजी-८४

ते़ज ऱफ़्तार के साथ आगे बढ़ रहे असहकार आन्दोलन को अचानक बिनाशर्त स्थगित कर देने के गाँधीजी के निर्णय की आलोचना करनेवाले सुभाषबाबू-विठ्ठलभाई के घोषणापत्र से भारतीय राजकीय वर्तुल में खलबली मच गयी। गाँधीजीसमर्थकों की राय से तो सुभाषबाबू गाँधीजीविरोधक ही थे, लेकिन विठ्ठलभाई भी उनका साथ देंगे यह किसीने सपने में भी नहीं सोचा था। उस समय भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में गाँधीजी के स्थान को देखते हुए उनकी इस तरह ठेंठ आलोचना करने का साहस कोई कर ही नहीं सकता था। लेकिन सुभाषबाबू ऐसे ही थे!

‘भारतमाता की स्वतन्त्रता’ इस अपने सर्वोच्च एवं एकमात्र ध्येयप्राप्ति के आड़े जो कुछ भी आ रहा था, उसका खुलकर विरोध उन्होंने किया। अपनी सहमती या असहमती को खुलकर कहने में वे कभी नहीं हिचकिचाये।

स्वतन्त्रतासंग्राम

अन्दर एक और बाहर एक यह उनकी वृत्ति कभी नहीं थी। सबसे अहम बात यह है कि सम्माननीय व्यक्तित्वों में उनके मन में अव्वल नंबर पर रहनेवाले गाँधीजी की, उन्हें ग़लत महसूस होनेवाले फैसलों के लिए आलोचना करने में भी वे नहीं हिचकिचाये। लेकिन यह आलोचना मात्र उनके फैसलों तक ही सीमित थी। अत एव उनके मन में गाँधीजी के रहनेवाले अव्वल स्थान को कभी भी धक्का नहीं लगा।

ख़ैर! इंग्लैंड़ की राजकीय परिषद में उपस्थित रहने के लिए इंडिया ऑफिस से माँगी हुई इंग्लैंड़प्रवेश की अनुमति न मिलने के बाद सुभाषबाबू ने अपना अध्यक्षीय भाषण लिखकर परिषद के आयोजकों के पास भेज दिया।

हालाँकि सुभाषबाबू की प्रत्यक्ष उपस्थिति न होने से श्रोता निराश तो अवश्य हुए थे, मग़र फिर भी उनके विचार सुनने के लिए वहाँ का ‘ब्लॅकफ्रीअर्स हॉल’ खचाखच भरा हुआ था और बीच बीच में तालियों की कड़कड़ाहट भी सुनायी दे रही थी। भविष्य में भारत क्या कदम उठायेगा, इसकी झलक दिखानेवाले उनके उस भाषण का सारांश कुछ इस तरह का था –

‘मानव का एक समाज के रूप में विकास किसी एक विशिष्ट देश ने नहीं किया है। इस काम में कई देशों का योगदान रहा है। इंग्लैंड़ ने सतरहवीं सदी में दुनिया को जनतन्त्र की संकल्पना देने का बहुत बड़ा काम किया। उसी कार्य को अठारहवी सदी में फ्रान्स ने स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता इस तत्त्वत्रयी के साथ आगे बढ़ाया। उन्नीसवीं सदी में जर्मनी ने मार्क्सवाद के रूप में इस संकल्पना को और भी आगे बढ़ाया। बीसवीं सदी में श्रमिक वर्ग का शासन स्थापित करके रशिया ने इस संकल्पना को अधिक सुस्पष्ट आकार दिया।

अब आनेवाले समय में भारत को इसी कार्य को आगे ले जाना होगा और ग़ुलामी में रहकर यह नहीं हो सकता। उसके लिए भारत का आ़जाद होना जरूरी है।

इंग्लैंड़ और भारत में कोई भी समान कड़ी नहीं है, बल्कि उनके बीच के संबंध शोषक और शोषित इस तरह विषम स्तर पर ही आधारित है। भारत के कच्चे माल का रूपान्तरण इंग्लैंड़ में पक्के माल में करके इंग्लैंड़ अपनी त़िजोरियाँ भर रहा है। वहीं, भारत को वह भूखा कंगाल बना रहा है और भारत की हालत से इंग्लैंड़ को कोई लेनादेना नहीं है। किसी बंद काले क़िले की तरह रहनेवाली भारत की इस ज़ुल्मी सल्तनत को धराशायी कर देने का वक़्त आ चुका है। वैसे भी वह शिथिल हो ही चुकी है। बस, अब आख़िरी धक्का देकर उसे ढहा देना चाहिए।

यदि सशस्त्र मार्ग से काँग्रेस को परहेज है, तो असहकार के मार्ग से ही सही, लेकिन आर्थिक बहिष्कार के शस्त्र के साथ इस जंग को लड़ना जरूरी है। मग़र सशस्त्र आन्दोलन अपरिहार्य होने के कारण उसके लिए अलग संगठन की स्थापना की जायेगी। उसका नाम होगा – साम्यवादी संघ। अँग्रे़जी हुकूमत को भारत में से जड़ से उखाड़ने के बाद यह संगठन समता के कार्य को आगे बढ़ायेगा। लेकिन हमारे इस साम्यवाद का ताल्लुख़ कम्युऩिजम के साथ बिल्कुल भी नहीं होगा या किसी विदेशी विचारप्रणालि का वह भ्रष्ट स्वरूप भी नहीं होगा। बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपरा को सामने रखकर ही उसे साकार किया जायेगा। आज युरोप में पूँजीवाद और कम्युऩिजम ऐसी दो विचारप्रणालियाँ प्रमुख रूप से दिखायी देती हैं। उनमें से एक का अधिष्ठान क्षमता यह है, तो दूसरे का समता। हमारा साम्यवाद इन दोनों में से अनिष्ट तत्त्वों को हटाकर, केवल उचित तत्त्वों का पुरस्कार किया हुआ उचित मिश्रण रहेगा।’

हालाँकि सुभाषबापू ने प्रत्यक्ष आकर भाषण नहीं किया, मग़र उनका लिखित स्वरूप का भाषण भी श्रोताओं के दिलों को छू जाने का सामर्थ्य रखनेवाला ऐसा ओजस्वी यक़ीनन ही था। इससे श्रोता तो हिल गये ही और साथ ही इंडिया ऑफिस के पैरों तले की जमीन खिसक गयी। इस भाषण के लिए क्या उन्हें गिऱफ़्तार किया जा सकता है, इसकी जाँच की जाने लगी। लेकिन तात्कालिक फायदे के पीछे पड़कर उन्हें गिऱफ़्तार करने से उन्हें बेवजह ही और भी ‘पब्लिसिटी’ मिल जायेगी, इस युक्तिवाद के कारण उनकी गिऱफ़्तारी की बात आगे बढ़ नहीं पायी। लेकिन उनके भाषण की कॉपियाँ भारत ले जाने पर पाबंदी लगायी जाये, यह भी तय किया गया।

सुभाषबाबू को फुरसत नहीं थी। युरोप के वास्तव्य का हर पल वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को आन्तर्राष्ट्रीय समर्थन प्राप्त करने के लिए व्यतीत करना चाहते थे। साथ ही उन्हें उनका अधूरा रह चुका, १९२० के दशक के भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास का लेखन करने का उनका काम भी पूरा करना था। लेकिन इस काम के लिए उन्हें एक लेखनिक की जरूरत थी। इसके लिए उन्होंने वहाँ के अपने दोस्तों से पूछा, तब ‘युरोप में फिलहाल बेकारी का़फी प्रमाण में बढ़ चुकी होने के कारण ऐसे लेखनिक का मिलना बिल्कुल मुश्किल नहीं है’ ऐसा जवाब देकर कई युवक-युवतियों को उनके पास भेज दिया। उनमें से एक युवती का काम, उसकी वैचारिक समृद्धता, उसके काम के प्रति रहनेवाली संजीदगी का एहसास उन्हें भा गया। साथ ही जर्मन और अँग्रे़जी इन दोनों भाषाओं का उसे अच्छा ख़ासा ज्ञान था। इसी वजह से उन्होंने इस – ‘एमिली शेंकल’ नामक युवती को लेखनिक के तौर पर नियुक्त कर दिया।

अपने बालक के उचित दिशा में आगे बढ़ रहे कदमों को देखकर विधाता भी शायद उस समय मुस्कुराया होगा।

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