नेताजी-८२

शरदबाबू की चिन्ता थोड़ीबहुत दूर हो जाते ही और स्वास्थ्य में थोड़ाबहुत सुधार होते ही सुभाषबाबू ने जोरशोर के साथ अपने कार्य की शुरुआत की। एक तऱफ जर्मन भाषा सीखना शुरू ही था। अब उन्होंने व्हिएन्ना की म्युनिसिपालिटी में जाना भी शुरू कर दिया। वहाँ की नगरपालिकाओं ने आम जनता की सुखसुविधाओं पर ग़ौर करते हुए नागरी जीवन में क्या सुधार किये हैं और उन्हें हमारे देश में किस प्रकार से लागू किया जा सकता है, इस सन्दर्भ में उनका अध्ययन शुरू हुआ।

साथ ही आन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका को प्रस्तुत करने के लिए क्या किया जा सकता है, इस बारे में भी वे सोच ही रहे थे। कई वर्ष पूर्व काँग्रेस ने लंदन में ही रहनेवाले भारतीयों तथा भारतमित्रों को साथ में लेकर वहाँ पर अपनी एक शाखा स्थापित की थी। उसके द्वारा ‘इंडिया’ नामक साप्ताहिक पत्रिका भी प्रकाशित की जा रही थी। कुछ समय बाद किसी कारणवश उनके बीच हुए मतभेदों से हुए मनमुटाव के कारण हालात का़फी बिग़ड़ चुके थे। इंग्लैंड़ के दौरे पर आये लोकमान्य टिळकजी ने स़ख्त रवैया अपनाकर नये सिरे से उसका काम शुरू करवाया था। लेकिन टिळकजी के स्वदेश लौटते ही इंग्लैंड़ में पुनः इन गुटों के बीच की विमनस्कता बढ़ती गयी। तब आख़िर सन १९२० में गाँधीजी ने उस शाखा को ही बन्द कर दिया। इसलिए ‘इंडिया’ इस साप्ताहिक पत्रिका के बन्द पड़ जाने के कारण आन्तर्राष्ट्रीय व्यासपीठ पर भारतीयों का पक्ष प्रस्तुत करनेवाला एकमात्र साधन भी नामशेष हो चुका था।

जर्मन भाषा अत एव इस सन्दर्भ में क्या करना चाहिए, यह सुभाषबाबू सोच रहे थे। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए जर्मनी की भूमिका को आ़जमाने का तय किया और उस दृष्टि से उन्होंने जर्मनी स्थित म्युनिक से प्रकाशित होनेवाले नाझी पक्ष के मुखपत्र को भेजे हुए ख़त का सारांश कुछ इस प्रकार का था – ‘जर्मनी में जनतन्त्र का गला घोटा जा रहा है, ऐसी चिल्लमचिल्ली करनेवाले अँग्रे़ज उनकी अपनी सरकार द्वारा भारत में कई वर्षों से चलाये जा रहे निर्दयी दमनतन्त्र के बारे में चुप्पी साधे हुए हैं।’ साथ ही भारत में अँग्रे़ज सरकार द्वारा किये जा रहे अत्याचारों का पर्दा भी उसमें फाश किया गया था। लेकिन इस ख़त को जब उस अख़बार में प्रकाशित नहीं किया गया, तब फिलहाल हिटलर अँग्रे़जों के साथ पंगा लेना नहीं चाहता, यह वे समझ गये। लेकिन उन्होंने हार न मानते हुए कोशिश जारी रखी और उनकी मेहनत का फल उन्हें जल्द ही मिल गया। एक दरवा़जा बन्द हो चुका था; वहीं, दूसरा एक दरवा़जा सामने से खुल गया।

हुआ यूँ कि जीनीव्हा में एक ‘इन्टरनॅशनल कमिटी फॉर इंडिया’ की स्थापना की गयी थी और उसके द्वारा एक साप्ताहिक पत्रिका भी चलायी जा रही थी। विठ्ठलभाई पटेल आदि के मान्यवरों के लेख उसमें प्रकाशित किये जाते थे। भारत के प्रति हमदर्दी की भावना रखनेवालीं श्रीमती एलेन होरुप नाम की एक डॅनिश महिला ने इस उपक्रम की शुरुआत की थी। सुभाषबाबू का नाम भी उसने सुना था। ‘सुभाषबाबू के भी विचार यदि इस साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित होते हैं, तो वह हमारा सौभाग्य ही होगा’ इस आशय का ख़त उसने सुभाषबाबू को भेजा। उसके बाद सुभाषबाबू ने इस साप्ताहिक पत्रिका में भी लिखा। वैसे भी सुभाषबाबू के युरोप में दाखिल हो जाने की ख़बर से युरोप के सभी भारतीय आनंदित हुए थे और उन्हें जगह जगह से भाषण करने के आमन्त्रण भी मिल रहे थे।

इसीलिए अब अगले कदम के रूप में इंग्लैंड़ तथा जर्मनी में स्वयं जाकर वहाँ के हालात का जाय़जा लेना चाहिए, यह विचार उनके मन में उठ रहा था। जर्मनी के औषधि जल के झरनों के सन्दर्भ में व्हिएन्ना प्राकृतिक उपचार केन्द्र से उन्हें जानकारी प्राप्त हो ही चुकी थी। लेकिन पारपत्र पर लिखी गयी टिप्पणी के कारण उन्हें वहाँ जाने की इजा़जत नहीं मिल रही थी। इसलिए उन्होंने सीधे सीधे इंग्लैंड़स्थित इंडिया ऑफिस को ही इस मामले में ख़त भेजा। उस खत से वहाँ तहलका मच गया। सुभाषबाबू को यहाँ आने से किस तरह रोका जा सकता है, इस बारे में मन्त्रणा शुरू हो गयी। क्योंकि इंग्लैंड़ और जर्मनी इन दोनों देशों में भारतीय छात्र का़फी बड़ी संख्या में थे और युरोप में दाखिल हो चुके सुभाषबाबू के कदम इस देश में कब पड़ेंगे, इसका इन्तज़ार वहाँ के भारतीयों को था। लेकिन जर्मनी में फिलहाल हिटलर का फौलादी शासन रहने तथा जर्मनी भर में उसके गुप्तचरों का विचरण रहने के कारण वहाँ पर सुभाषबाबू कुछ भी नहीं कर सकेंगे, इसलिए उन्हें जर्मनीप्रवेश की अनुमति देने में कोई आपत्ति नहीं है, यह फैसला किया गया। विधाता एक के बाद करके दरवा़जे धीरे धीरे खोल रहा था।

इंग्लैंड़प्रवेश के बारे मे दरअसल सुभाषबाबू को अन्धेरे में ही रखा गया था। भारत यह उस समय अँग्रे़जों का ही उपनिवेश होने के कारण, उस बुनियाद पर सभी भारतीय दरअसल ब्रिटीश नागरिक ही थे। सुभाषबाबू का पारपात्र भी इसीलिए ब्रिटीश पारपत्र ही था और इस वजह से दरअसल उन्हें इंग्लैंड़ में प्रवेश करने के लिए इजा़जत माँगने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी और क़ानूनी दृष्टि से उन्हें इंग्लैंड़ में प्रवेश करने से मनाही करना यह नामुमक़िन था। लेकिन खुद इस बात को सुभाषबाबू से न कहने का रवैया इंडिया ऑफिस ने अपनाया था और उनके इंग्लैंडप्रवेश के मामले में व़क़्त आने पर देखा जायेगा, यह तय किया था।

जर्मन भाषा

सुभाषबाबू ने फिर इंग्लैंड़ की लेबर पार्टी के अपने मित्र जेम्स मॅक्स्टन को इस सन्दर्भ में कोशिश करने के लिए कहा। सरकार को सुभाषबाबू के इंग्लैंड़प्रवेश को नकारने में कठिनाई हो, इस उद्देश्य से वहाँ के भारतीयों ने सुभाषबाबू को सन १९३३ के जून महीने में सम्पन्न होनेवाली भारतीयों की एक राजकीय परिषद के अध्यक्षपद के लिए उन्हें एकमत से चुन लिया और उसका निमंत्रण भी उन्हें भेज दिया।

इसी दौरान एक ऋषितुल्य व्यक्तित्त्व के साथ उनकी मुलाक़ात होनेवाली थी। विठ्ठलभाई पटेल उस समय अमरीका में भारतीयों का पक्ष प्रस्तुत करने की दृष्टि से व्याख्यान दौरे पर थे। वहाँ उन्होंने सारी अमरीका का दौरा करके सौ से भी अधिक व्याख्यान दिये। बुढ़ापे में किये हुए इन परिश्रमों के कारण उनकी सेहत ख़राब हो चुकी थी और मई महीने की शुरुआत में इलाज तथा आराम के लिए वे व्हिएन्ना आ रहे हैं, यह ख़बर सुभाषबाबू को मिली। दासबाबू और गाँधीजी इनके बाद जिनके प्रति सुभाषबाबू के मन में सम्मान की भावना थी, उनमें से एक थे विठ्ठलभाई। अत एव ऐसे ऋषितुल्य व्यक्तित्व की सेवा करने का अवसर मिल रहा है, इस सोच से ही वे का़फी खुश हो गये।

Leave a Reply

Your email address will not be published.