श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८९

रोहिले की कथा का भावार्थ हमने अब तक अनेकों लेखों के द्वारा देखा। रोहिले की कथा से हर एक मनुष्य को क्या सीख लेनी चाहिए इस बात पर यदि हम सभीने विचार करना शुरु कर दिया तब हमें पता चलेगा कि इस रोहिले की कथा से हम जैसों को सीखने के लिए अनेक बातें हैं।

प्रथम बात तो यह है कि भगवान का नामस्मरण करते समय मेरे एवं भगवान के बीच कोई भी बात नहीं आता है। बिलकुल मेरी आवाज भी ‘उन’ भगवान के और मेरे बीच नहीं आती है। उलटे वह आवाज चाहे भर्रायी हुई हो अथवा कर्णकर्कश हो फिर भी वह आवाज भगवान तक तो पहुँच ही जाती है।

निसर्गदत्त घर्घर स्वर। ‘अल्ला हो अकबर’ नामघोष।

कलमे पढ़ता आनंद निर्भर। नित्य निरंतर रोहिला॥

(निसर्गदत्त घर्घर स्वर। ‘‘अल्ला हो अकबर’’ नामगजर। कलमे पढ़े आनंदनिर्भर। नित्य निरंतर रोहिला॥)

अपनी जन्मजात भर्रायी हुई आवाज में रोहिला जब भी नामघोष करता था उस वक्त उसका स्वर कभी भी उसके एवं बाबा के बीच नहीं आता था। उलटे

कितनी भयावह वह चिल्लाहट। गला सूखता नहीं है कैसे।

बाबा का फिर भी एक ही आग्रह। कोई भी उसे डाँटो मत॥

(काय भयंकर ती ओरड। घशासी कैसी नव्हे कोरड। बाबांची परि एकचि होरड। नका दरडावूंतयाला॥)

उसे कोई भी चिल्लाओं मत, डाँटों मत बाबा का यही आग्रह हुआ करता था। मैं कैसा हूँ? मुझे क्या आता है। मैं क्या करता हूँ? ऐसी कोई भी बातें मेरे और मेरे भगवान के बीच कभी भी नहीं आती हैं।

उलटे मैं जैसा भी हूँ बिलकूल वैसा का वैसा ही भगवान के समक्ष खड़ा रहना यह मेरे लिए अत्यन्त आवश्यक होता है ऐसा ही नहीं बल्कि वह मेरी ज़रूरत भी होती है।

जहाँ पर मेरा स्वर ही क्या अन्य कोई भी चीज़ मेरे और मेरे भगवान के आड़े नहीं आ सकती है वहाँ पर मुझे केवल एक ही विचार करना चाहिए कि मेरा भाव कैसा है? उस भगवान को जो पसंद है वह शुद्धभाव। क्योंकि इस भगवान को हर एक मनुष्य से यदि किसी बात की उम्मीद होती है तो वह है शुद्ध भाव। क्योंकि बिनालाभ प्रिती केवल वही करते हैं ‘वे’ अकेले ही करते हैं। इसीलिए हमें जितना संभव हो सके उतना अधिक शुद्ध एवं पवित्र प्रेम इस भगवान पर करते आना चाहिए इसके साथ ही भगवंत के प्रति होनेवाला मेरा भाव शुद्ध एवं पवित्र होना चाहिए।

करे क्यों न वह कंठ्शोष। बाबा को कलमों में संतोष।

सुनते रहते अहर्निश। निद्रामानों विष इनके समक्ष॥

(करीना का कंठशोष। बाबांसी कलम्यांचा संतोष। ऐकत राहतील अहर्निश। निद्रा तें विष तयांपुढें।)

इसीलिए फिर रोहिले का स्वर कैसा है, वह कितने समय तक, कितनी बार, कब और कैसे नामस्मरण करता है इन सब का विचार उन्हें नहीं था बल्कि बाबा को पसंद है वह केवल उसके द्वारा किया जानेवाला नामस्मरण। इसी के माध्यम से सभी संतोंने सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात जो बारंबार कही है वह है। भगवान को जो अतिप्रिय होता है वह है नामस्मरण।

यही अभिप्राय था इसी तरीके से। बाबाने सभी को दी प्रतीती।

रोहिले की संगति मुझे पसंद हो। नाम प्रिती है उसमें॥

(कोठें कलम्यांची प्रबोध वाणी। कोठें ग्रामस्थांचीं पोकळ गार्‍हाणीं। तयांसी आणावया ठिकाणीं। बतावणी ही बाबांची॥)

नामस्मरण भगवान के प्रति प्रेम और भगवान के प्रति अपना होनेवाला भाव यही बातें सही मायनेमें हर एक मनुष्य को रोहिले की कथा से सीखनी चाहिए।

और इसीलिए फिर हर एक मनुष्य को इन कथाओं से सीख मिले इसीलिए बाबा ऐसी कथाओं का प्रसंग ग्रामस्थों के समक्ष लाते रहते हैं जिससे इन कथाओं से ग्रामवासीयों को कुछ सीख मिल सके।

कहाँ कलमों की प्रबोधवाणी। कहाँ ग्रामस्थों की व्यर्थ शिकायतें।

उन्हें सही मार्ग पर लाने हेतु। सीख थी यह बाबा की।

(कोठें कलम्यांची प्रबोध वाणी। कोठें ग्रामस्थांचीं पोकळ गर्‍हाणीं। तयांसी आणावया ठिकाणीं। बतावणी ही बाबांची॥)

अर्थात इससे सीखने योग्य दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है भगवान को जो सबसे अधिक प्रिय है वह है भक्त का भोलाभाव।

वे मेरे ही हैं और मैं उनका ही हूँ। यही एक मात्र भाव ही हर किसी के पास होना चाहिए। ‘कलमों की प्रबोध वाणी।’ इसमें होनेवाली ‘प्रबोध’ वाणी अर्थात भोली भावनाओं की अभिव्यक्ति। ‘केवल भगवान ही मेरे और मैं भगवान का, भगवान के बगैर हम और कुछ भी नहीं जानते, उनके बगैर मेरा और कोई भी नहीं’ यह भाव सतत जहाँ पर अभिव्यक्त होता है, वही प्रबोधवाणी एवं वह भी भोलीभावना के साथ ही अभिव्यक्त होता है उसे रोकने की ताकत किसी में भी नहीं है। भोली भावना भगवान के पास तत्क्षण पहुँचाती ही है। इस कथा के माध्यम से हमें इस भोली भावना को भोलेभाव को ही आत्मसात करना चाहिए।

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