श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-१०२

साईबाबा को हमारी हर एक कृति की इत्थंभूत (पूरी की पूरी) खबर निरंतर कैसे लगती रहती है, यह हमने चोलकरजी की कथा के आधार से संक्षिप्त रूप में जान लिया।

१) चोलकरजी के द्वारा की गई मन्नत गुप्त थी; मग़र फिर भी उसकी खबर बाबा को चल ही गई और वह भी तुरंत ही।

२) चोलकरजी ने बाबा को देखा भी नहीं था। उनके द्वारा थाना में मन ही मन की गयी मन्नत की कृति की खबर बाबा को शिरड़ी में लग ही गई।

३) चोलकरजी को अपनी मन्नत पूरी करने के लिए शिरडी में तो जाना ही था, परन्तु आर्थिक कारणों से वे शिरडी नहीं पहुँच पा रहे थे, चोलकरजी की यह अड़चन बाबा भली-भाँति जानते थे।

४) बाबा ने मुझे परीक्षा में उसी समय पास कर दिया। बाबा ने उनका काम तो तुरंत ही कर दिया। परन्तु मैं शिरडी जा ही नहीं पा रहा हूँ, वहाँ पर जाकर अपनी मन्नत पूरी नहीं पर रहा हूँ। अर्थात् मैं अपना काम समय पर पूरा नहीं कर पा रहा हूँ तो फिर मुझे अपना काम विलंब से करने के लिए प्रायश्‍चित्त तो करना ही चाहिए।

मन्नत पूरी करने के लिए जो शक्कर मैं बाँटने वाला हूँ, जो मुझे अति प्रिय है, परन्तु प्रायश्‍चित के रूप में मैं उसका त्याग कर दूँगा। मैं चाय भी बगैर शक्कर की ही पीऊँगा। चोलकरजी के प्रायश्‍चित्त करने की खबर भी बाबा को है ही। भले ही चोलकरजी ने इस शक्कर के बारे में किसी के साथ भी चर्चा नहीं की थी, मग़र फिर भी साईनाथ इन सबके बारे में ‘इत्थंभूत’ जानते ही हैं।

चोलकरजी की कथा साईनाथजी की सर्वहृदयस्थता स्पष्ट करती है। क्या बाबा केवल शिरडी में ही रहते हैं? नहीं। बाबा जहाँ पर ना हो ऐसी कोई भी जगह अस्तित्व में नहीं है। ‘मेरे को कहाँ ढूँढ़े रे बंदे मैं तो तेरे साथ में…….’ यह महात्मा कबीरजी के द्वारा लिखित पंक्ति आपको ज्ञात होगे ही। उसी का यहाँ पर स्मरण होता है।

साईबाबा जहाँ पर ना हो ऐसा परमाणु भी अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में कहीं भी नहीं है। बिलकुल मन ही मन में भी आप जो करते हैं, उसकी भी इत्थंभूत खबर बाबा को रहती ही है।

फिर हमारे मन में यह प्रश्‍न उठता है कि बाबा ने इस संबंध में प्रचिति केवल चोलकरजी को ही क्यों दी? कभी-कभी तो बाबा ऐसा व्यवहार करते हैं कि जैसे वे कुछ जानते ही नहीं है। ऐसा वे क्यों बतलाते हैं? ‘आपुन बापु नहीं किसी में’ बाबा ऐसा क्यों कहते हैं?

साईबाबा को हर किसी की हर एक कृति की इत्थंभूत खबर होती ही है; परन्तु जो बाबा के पास आने के बावजूद भी वे बाबा से सच छिपाते हैं, सच नहीं बतलाते हैं तो बाबा भी उन्हें यही दिखाते हैं कि मैं तो कुछ नहीं जानता। साईबाबा तो शिरडी में रहते हैं, उन्हें भला कैसे कुछ पता चलेगा, ऐसा जो लोग मानते हैं तो बाबा भी उनसे यही कहते हैं कि मैं तो कुछ नहीं जानता।

भजेगा मुझे जो भी जिस भाव से।
पायेगा कृपा मेरी वह उसी प्रमाण से॥

जब चोलकरजी जैसा श्रद्धावान, जिसने बाबा को देखा ही नहीं था, परन्तु दासगुण जैसे श्रेष्ठ भक्त से बाबा की अनेक लीलाएँ सुनते ही चोलकरजी साई पर पूरा भरोसा रखते हैं और साईनाथ सब कुछ जानते ही हैं, मैं चाहे यहाँ ठाणे में हूँ और बाबा शिरडी में हैं, मग़र फिर भी साई को सब पता है और वे मेरी सहायता कर ही रहे हैं और चोलकरजी के इस भाव के, विश्‍वास के कारण कारण बाबा चोलकरजी की हर एक कृति की खबर रखते ही हैं।

यह विश्‍वास रखकर मैं चाहे कहीं भी क्यों न रहूँ, फिर भी मेरे साईनाथ सर्वत्र हैं ही और वे सब कुछ जानते ही हैं। इसी भाव के साथ वे बाबा की दिशा में एक-एक कदम बढ़ाते रहते हैं और अत एव उनके समान श्रद्धावान को बाबा सुन्दर अनुभव प्रदान करते हैं, अपनी सर्वज्ञता का परिचय देते हैं। हम दुनिया में चाहे कहीं भी क्यों ना रहें, फिर भी बाबा मेरी हर एक बात जानते ही हैं, बाबा का ध्यान मुझ पर है ही, यह विश्‍वास रखना बहुत ज़रूरी है।

सबसे अहम बात यह है कि चोलकरजी को सदैव साईनाथजी का स्मरण है ही। यह हम इस कथा में अनुभव करते हैं। साईनाथ के गुण दासगणु के कीर्तन में सुनते ही साईचरणों में चोलकरजी की श्रद्धा स्थिर हो जाती है। वे अपनी घरगृहस्थी की गाड़ी भी खींच रहे हैं, नौकरी भी कर ही रहे हैं, परन्तु ‘मेरी हर एक कृति साईनाथ देख रहे हैं और मेरी सहायता कर रहे हैं’ इस विश्‍वास के साथ ही वे अपना हर एक कर्म कर रहे हैं। वे अपनी पढ़ाई मन लगाकर कर रहे हैं। साथ ही वे जानते हैं कि मेरा परिश्रम भी बाबा देख ही रहे हैं, साई मेरी पूरी सहायता भी कर ही रहे हैं। इसी निष्ठा के साथ वे परीक्षा में अच्छे गुणों के साथ पास भी हो जाते हैं। यहाँ पर मुझे यह सीख लेनी चाहिए कि बाबा का ध्यान तो सदैव मुझ पर ही रहता है, परन्तु क्या मेरा ध्याना बाबा पर है? बाबा का तो मुझ पर ध्यान है, यह विश्‍वास क्या मेरे मन में है? क्या मुझे इस बात का नित्य स्मरण है?

पंद्रहवें अध्याय की चोलकरजी की कथा तीसरे अध्याय की ओवियों को ही दृढ़ता प्रदान करती हैं। इन पंक्तियों को हमें सदैव ध्यान में रखना चाहिए।

तुम चाहे कहीं भी रहो। भाव के साथ मुझ से जब भी सहायता माँगते हो॥
मैं भी तुम्हारे ही भाव की खातिर। रातदिन खड़ा ही रहता हूँ तुम्हारे लिए।
शरीर से चाहे भले ही मैं यहाँ हूँ। तुम सात समंदर पार भी क्यों न रहो।
तुम वहाँ चाहे जो भी करो। जान जाता हूँ मैं सब कुछ तत्काल॥
कहीं भी जाओ चाहे दुनिया के किसी भी कोने में। मैं तो रहता हूँ तुम्हारे साथ ही।
तुम्हारे हृदय में ही मेरा घर है। अन्तर्यामी हूँ मैं तुम्हारा॥

ये पंक्तियाँ इतनी सहज, सरल एवं सुंदर हैं कि सामान्य से सामान्य भक्त को भी सब कुछ सुस्पष्ट हो जाता है। साईबाबा को मेरी हर एक कृति की पूरी खबर मिल ही जाती है और वह भी उसी क्षण, यह हम तृतीय अध्याय की पंक्ति में देख ही चुके हैं। उसका उदाहरण है, पंद्रहवें अध्याय की चोलकरजी की कथा।

१) बाबा देहरूप में शिरडी में भले ही क्यों न हों, मगर फिर भी वे हर किसी के हृदय में भी हैं ही। वे अन्तर्यामी आत्माराम हैं।

२) ये आत्माराम मन के ही नहीं बल्कि बुद्धी के भी परे हैं और इसी लिए शरीर के द्वारा, मन के द्वारा, बुद्धि के द्वारा की गई हर एक कृति का इन्हें तुरंत ही पता चल जाता है।

३) हर किसी के मन में ‘सु-चित्त’रूपी ‘क्षीर-सागर’ है। यहाँ पर ‘क्षीर’ इस शब्द का अर्थ लौकिक दूध यह न होकर परमात्मा के प्रति रहने वाला वात्सल्यभाव यह है। परमात्मा के प्रति रहने वाले प्रेम का सागर यानी क्षीरसागर हर किसी के मन में होता ही है। उसे हम चित्र कहते हैं। इस क्षीरसागर में महाशेष पर आरूढ़ महाविष्णु निवास करते हैं।

बिलकुल पापी से पापी के मन में भी सु-चित्तरूपी क्षीरसागर होता ही है। केवल मैं अपनी कृति के अनुसार उसे संकुचित करता हूँ कि विकसित करता हूँ इसपर उस क्षीरसागर का मेरे जीवन में होने वाला प्रभाव यह निर्भर करता है।

ऐसे इस सु-चित्तरूपी क्षीरसागर में सबूरीरूपी महाशेष पर योगनिद्रा में लेटे हुए महाविष्णु के चरणों के पास श्रद्धारूपी लक्ष्मीजी बैठी हैं। ये महाविष्णु सभी श्रद्धावानों के हृदयस्थ हैं और इसीलिए उनसे कुछ भी छिपा नहीं रह सकता है। मेरे जीवन में भगवान सक्रिय तब ही होंगे, जब मेरे जीवन में प्रेम, श्रद्धा और सबूरी इन तत्त्वों का अधिष्ठान होगा।

जो भी ‘सु-चित्तरूपी क्षीरसागर में निवास करनेवाले साईनाथ को मेरी कृतियों की पूरी खबर होती ही है’, इस अहसास को जागृत रखकर, उनका स्मरण करके हर एक कर्म करता रहता है, उसके उस प्रत्येक पवित्र कर्म से उसके जीवन में क्षीरसागर-क्षेत्र बढ़ता रहता हैं और उसके महाविष्णु भी उसे स्पष्ट रूप में दिखाई देने लगते हैं। ‘ये ही हैं वे मेरे हृदस्थ’ यह पहचान श्रद्धावान को तब अपने आप ही हो जाती है।

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