समय की करवट (भाग २९)- ‘युरोपियन युनियन’ हुआ सुस्थिर

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।
इसमें फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उसके आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

—————————————————————————————————————————————————

‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’

हेन्री किसिंजर

————————————————————————————————————————————————–

युरोप महाद्वीप
कई स्वतंत्र राष्ट्रों का राजनीतिक दृष्टि से एक महासंघ बनने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए युरोप महाद्वीप अब अपने लक्ष्य के का़फ़ी करीब आ चुका था।

कई स्वतंत्र राष्ट्रों का महासंघ बनने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए युरोप महाद्वीप अब अपने लक्ष्य के का़फ़ी करीब आ चुका था। उससे पहले के सभी संघ, संगठन, ये विशिष्ट क्षेत्रों में आपसी सहयोग तक ही सीमित थे। लेकिन ‘सिंगल युरोपियन अ‍ॅक्ट’ इस समझौते के ज़रिये युरोप ने, महज़ विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग के बजाय, राजनयिक माध्यम से एक महादेश के रूप में एकसंध होने की दृष्टि से जो महत्त्वपूर्ण कदम उठाया था, उस प्रक्रिया की परिणति सन १९९२ की ‘ट्रीटी ऑफ़ मास्ट्रिच’ में हुई थी।

ऐसा करने का कारण यह था कि बीच के समय में ‘युरोपियन इकॉनॉमिक कम्युनिटी’ (ईईसी) को और उससे संलग्न संस्थाओं को कई समस्याओं का मुकाबला करना पड़ा था। आर्थिक क्षेत्र के सहयोग से हालाँकि कई समस्याओं का प्रभावी रूप में मुक़ाबला करना संभव हुआ था, मग़र फिर भी कई समस्याएँ ऐसी थीं, जिनके लिए राजनीतिक उपाय ही आवश्यक थे। ये समस्याएँ ‘ईईसी’ द्वारा सुलझायी नहीं जा सकी थीं। वहाँ उस उस राष्ट्र की सरकारों को राष्ट्रीय स्तर पर से ही प्रयास करने पड़े थे। साथ ही, आतंकवाद, ग्लोबल वॉर्मिंग इन जैसी किसी भी आंतर्राष्ट्रीय समस्या पर आवाज़ उठानी हो या मत व्यक्त करना हो, तो वह प्रायः सरकारी स्तर पर से ही उठानी पड़ती है। केवल आर्थिक क्षेत्र के सहयोग के लिए स्थापित हुए ‘ईईसी’ जैसे अन्य मंचों पर से अभिव्यक्त किये गये मतों को कुछ ख़ास क़ीमत नहीं दी जाती, फ़िर चाहे कई देश उसके सदस्य क्यों न हों। इस कारण इस संगठन की मर्यादा युरोपीय नेताओं की समझ में आने लगी और वहीं से युरोपीय देशों का राजनीतिक दृष्टि से एक महादेश या महासंघ बनाने की दिशा में अगले प्रयास किये गये।

ख़ासकर युरोप महाद्वीप के लोगों के मन में, ‘हम हमारे देश के साथ साथ इस युरोपीय महासंघ (ईयू) के भी नागरिक हैं’ यह एहसास प्रबल हों इसके लिए भी उस दौरान छोटे छोटे कदम उठाये गये। जिस प्रकार किसी भी देश के नागरिक को उसके देश में ‘उस देश का नागरिक’ होने के नाते कुछ अधिकार/प्रीविलेजीस रहते हैं, उसी संकल्पना का अब ‘ईईसी’ के सदस्य देशों के लोगों के लिए विस्तार किया गया। सन १९८५ से ‘ईईसी’ के सदस्य देशों के नागरिकों को उनके अपने देश के पासपोर्ट के साथ साथ युरोपीय पासपोर्ट भी जारी किया जाने लगा। सन १९८६ में युरोपियन ड्रायव्हिंग लायसन्स अस्तित्व में आया, जो ‘ईईसी’ के सदस्य देशों में कहीं पर भी वैध माना जाता था। उसीके साथ, सभी सदस्य राष्ट्रों ने अन्य सदस्य राष्ट्रों के उच्चशिक्षा डिप्लोमाओं को मान्यता देनी शुरू की। इन देशों के छात्र, रिटायर्ड लोग इन्हें किसी भी सदस्य राष्ट्र में आसानी से प्रवेश मिलें, इस दृष्टि से भी कदम उठाये गये। किसी भी हवाई अड्डे पर प्रायः आंतर्राष्ट्रीय (इन्टरनॅशनल) और आंतर्देशीय (डोमेस्टिक) ऐसे दो विभाग रहते हैं। आंतर्राष्ट्रीय विभाग में ‘कस्टम्स ड्युटी’ का काऊंटर होता है। अब ‘ईईसी’ के सदस्य देशों में अन्य सदस्य देशों में से आयीं फ्लाईट्स ‘आंतर्देशीय’ संबोधित की जाने लगीं और वे उसी विभाग में उतरने लगीं और ‘ईईसी’ के सदस्य देश का कोई भी व्यक्ति, अन्य सदस्य देशों में किसी भी वस्तु की खरीदारी करके आया, तो उस वस्तु पर की कस्टम्स ड्युटी माफ़ की गयी। सन १९९९ में युरोपियन युनियन की एकसमान ‘युरो’ मुद्रा अस्तित्व में आयी। अब तक ‘युरोपियन युनियन’ के २७ सदस्यों में से १७ सदस्यों ने ‘युरो’ का चलन के रूप में स्वीकार किया है।

इन सभी प्रक्रियाओं की परिणति सन १९९२ के मास्ट्रिच समझौते में हुई। उसमें – ‘युरोपियन इकॉनॉमिक कम्युनिटी’ ने किये ‘सिंगल युरोपियन अ‍ॅक्ट’ इस समझौते के द्वारा यह ‘ईईसी’ महज़ आर्थिक क्षेत्र के सहयोग से आगे पहुँची है, ऐसा नमूद किया गया था। इस कारण उसका नाम बदलकर ‘युरोपियन कम्युनिटीज्’ रखा गया (क्योंकि इस प्रक्रिया में, उससे पहले स्थापन हुए सभी संगठन उसी में समाविष्ट हुए थे) और अब उसका स्वतंत्र अस्तित्व न रहकर, इस नये से निर्माण हुए ‘युरोपियन युनियन’ के ३ खंभोंवाली रचना में से एक खंभा वह बनी। अन्य दो खंभे हैं – ‘कॉमन फ़ॉरेन अँड सिक्युरिटी पॉलिसी’ और ‘पुलीस अँड ज्युडिशियल को-ऑपरेशन इन क्रिमिनल मॅटर्स’।

ईयू के सदस्य बनना चाहनेवाले युरोपीय देशों को कुछ मापदंड लगाये जाते हैं। उन्हें ‘कोपनहेगन क्रायटेरिया’ कहा जाता है। उस देश में स्थिर लोकतंत्र होना चाहिए और वह देश क़ानून के राज को एवं मानवीय अधिकारों को अहमियत देनेवाला होना चाहिए। उसे ईयू की संरचना में काम करने की इच्छा होनी चाहिए, ईयू के क़ानून भी उसे मान्य होने चाहिए। प्रतिस्पर्धा का मुक़ाबला करने की क्षमता रहनेवाली मार्केट अर्थव्यवस्था उस देश की होनी चाहिए। इस प्रकार के कई मापदंड सन १९९३ में कोपनहेगन में सुनिश्‍चित किये गये।

६ राष्ट्रों ने सन १९५१ एकत्रित आकर स्थापन किये ‘युरोपियन स्टील अँड कोल कम्युनिटी’ का स्वरूप बदलते बदलते अब २७ युरोपीय देशों का महासंघ – युरोपियन युनियन (‘ईयू’) ऐसा हुआ है। सारी दुनिया के सामने एक समूह के रूप में पेश आने के लिए दुनियाभर के कई देशों में ‘ईयू’ ने अपना स्वतंत्र राजनयिक प्रतिनिधित्व स्थापन किया है। संयुक्त राष्ट्रसंघ, जागतिक व्यापार परिषद, जी-८, जी-२० इन आंतर्राष्ट्रीय संगठनों में ‘ईयू’ को स्वतंत्र प्रतिनिधित्व है। पर्यावरण के मुद्दे पर भी ‘ईयू’ के सदस्य राष्ट्र प्रायः एकमत से बात करते हैं। कार्यक्षेत्रों (‘ज्युरिस्डिक्शन’) में भी – ‘ईयू’ को प्रधानता रहनेवाले कार्यक्षेत्र, सदस्य राष्ट्र को प्रधानता रहनेवाले कार्यक्षेत्र और ‘ईयू’ एवं सदस्य राष्ट्र का समान सहयोग रहनेवाले कार्यक्षेत्र ऐसा विभाजन किया गया है। किसी देश का किसी मुद्दे को विरोध हो, तो ‘शेन्गन अ‍ॅग्रीमेंट’ पर आधारित ‘एन्हॅनस्ड को-ऑपरेशन’ यह सुविधा है ही। अर्थात् उस मुद्दे के समर्थन में, सदस्यसंख्या के एक-तिहाई सदस्य इकट्ठा किये, तो उतने सदस्य अपने देशों में उस मुद्दे पर अमल कर सकते हैं।

अब ऐसा नहीं है कि उनमें सबकुछ ‘ऑल इज वेल’। ग्रीस, स्पेन जैसे राष्ट्रों के बढ़ते आर्थिक प्रॉब्लेम्स यह ईयू का सिरदर्द बन चुका है। उनमें भी मतभेद हैं, यक़ीनन ही हैं। लेकिन उन्हें बार बार न दोहराते हुए उनमें से चर्चा के माध्यम से मार्ग निकालने की ओर ही ‘ईयू’ के सदस्य देशों का रूझान रहता है। कुछ पाने के लिए किसी चीज़ का त्याग करने की तैयारी भी होनी आवश्यक है (‘गिव्ह अँड टेक’), जो ये देश कई बार दर्शाते हैं। सबसे अहम बात यह है कि अब उनमें रहनेवाले अधिकांश वांशिक, प्रांतिक मतभेद कबके पीछे छूट गये होकर, प्रायः केवल पॉलिसी-रिलेटेड मतभेद बाक़ी हैं। हालाँकि उनमें से कई उनके लिए सिरदर्द बन रहे हैं, मग़र फिर भी बतौर ‘समूह’ एकदिल से काम करने के फ़ायदे अब उनकी समझ में आ चुके हैं। इससे पहले वे कोई किसी संघराज्य के घटकराज्य नहीं थे, बल्कि वे बाक़ायदा आज़ाद देश थे। ऐसा होने के बावजूद भी, अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए बाधा साबित हो सकते हैं ऐसे कई बंधन उन्होंने स्वयं ही खुदपर स्वेच्छा से डाल लिये – केवल ‘एक समूह’ के रूप में काम करने के लिए।

वाक़ई, संघभावना का महत्त्व वे जान गये, बाक़ी लोग कब समझेंगे?

Leave a Reply

Your email address will not be published.