इतिहास की सीख

भारत पर हुकूमत करने के लिए विदेशी, विधर्मी आक्रमकों के आपस में कई युद्ध हुए। उनके सत्तासंघर्ष में भारतभूमि बेवजह रक्तरंजित होती रही। ऐसे समय में यदि हमने संघटित होकर मुकाबला किया होता, तो इस देश पर विदेशी आक्रमणकारी कभी भी राज्य नहीं कर पाते थे। जब जब हमारे देश के विभिन्न राज्यों के राजा विदेशी आक्रमणकारियों के विरोध में संघटित हुए, तब तब विदेशी आक्रमणकारियों की उनके सामने दाल नहीं गली। इसका उदाहरण है, मोहम्मद गझनी के द्वारा सोरटी सोमनाथ पर किया गया आक्रमण।

‘गझनी यहाँ से सब कुछ लूट ले गया और किसी ने भी उसका प्रतिकार नहीं किया’ ऐसा मानकर हम चलते हैं। लेकिन यह सही नहीं हैं। सोमनाथ पर आक्रमण करके गझनी ने क़त्ले-आम और लूटमार अवश्य की, परन्तु इस आक्रमण के समय गुजरात के राणा भीमदेव ने देश के समस्त राजाओं को आवाहन किया। ‘सोमनाथ सिर्फ गुजरात का नहीं है, वह संपूर्ण भारतवर्ष का है। इस मंदिर को बचाने के लिए सभी लोगों को प्रयत्न करना चाहिये’ इस राणा भीमदेव द्वारा किये गये आवाहन को भारत के विभिन्न क्षेत्रों से प्रतिसाद मिला। कई राजाओं ने सोमनाथ मंदिर के संरक्षण के लिये अपनी-अपनी सेनाएँ भेज दीं।

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परन्तु इन सेनाओं के वहाँ पहुँचने से पहले ही गझनी का आक्रमण हो चुका था। अत: उसे प्रत्युत्तर नहीं दिया जा सका। लूटमार और कत्ले-आम करके गझनी आसानी से नहीं लौट सका। उसकी सेनाओं पर ज़बरदस्त हमले हुए और इन हमलों में गझनी को काफी बड़ी सेना को गँवाना पड़ा था। उसके बाद उसने पुन: आक्रमण करने का साहस नहीं किया। पूर्वकाल में उसके द्वारा यहाँ पर किये गये हमलों का सामना सफलतापूर्वक किया जा चुका था। उस बार गझनी को भागना पड़ा था, इसका काफी लोगों को पता नहीं है। उसका जो आक्रमण सफल माना जा रहा है, उसमें भी भारतीय राजाओं की सेना के सामने गझनी को भागना ही पड़ा था।

लेकिन पी़ठ दिखाकर भागनेवालों को छोड़ देना, यह भारतीय योद्धाओं की संस्कृति का भाग बन चुका था। उनका पीछा करके शत्रुपक्ष को पूरी तरह नेस्तनाबूद करना, हमारे संस्कारों में नहीं था। सिर्फ शत्रु की पराजय हो गयी और उसकी दुर्दशा होकर शत्रु भाग गया, तो अपना काम पूरा हो गया, ऐसा हमारे राजाओं का मानना था। इसके पीछे एक और कारण था। अपने पराक्रम पर उनको गाढ़ा विश्‍वास था। परन्तु कालांतर में यह काफी बड़ा अवगुण साबित हुआ। इसकी काफी बड़ी कीमत हमें चुकानी पड़ी।

क्योंकि भागकर जानेवाले शत्रु को भारतीयों के सामर्थ्य का पूरा-पूरा अंदाजा हो जाया करता था। अगले आक्रमण के समय क्या करना है, यह वे ठीक से समझ जाते थे। इसके कारण भारतीयों की कमज़ोरियों के बारे में विदेशी आक्रमकों को पता चलने गया। फलस्वरूप उनके अगले आक्रमण अधिक से अधिक सुसज्जित होते गये।

‘विदेशी आक्रमक भारत में घुसे, उन्होंने युद्ध किया और यहाँ के राजाओं को हराकर सत्ता हस्तगत कर ली’ ऐसा सर्वसाधारणत: मानकर चला जाता है। परन्तु आक्रमकों का किया गया प्रतिकार और उनके पराभव की जानकारी जनता को जितने प्रमाण में मिलनी चाहिये थी, उतने प्रमाण में नहीं मिली है। इसका उदाहरण है, सन १५२६ में बाबर द्वारा किया गया आक्रमण। बाबर ने आक्रमण किया, उस समय दिल्ली में इब्राहिम लोदी का शासन था। बाबर और लोदी के बीच हुआ युद्ध ‘पानिपत का पहला युद्ध’ इस नाम से इतिहास में जाना जाता है। ये दोनों ही बाहर से आये हुये आक्रमणकारी थे और लड़ रहे थे दिल्ली की सत्ता के लिये!

ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में बाबर जीत गया और तभी से मुगल शासन की शुरुआत हुयी। परन्तु भारतवर्ष के राजाओं ने बाबर का पराभव किया था। लोदी के साथ हुये युद्ध की जीत के एक वर्ष के भीतर ही बाबर का पराभव हुआ। यह पराभव मेवाड़ के महाराणा संगा ने किया था। सन १५२७ में हुए इस युद्ध में बाबर को पी़ठ दिखाकर भागना पड़ा था। शत्रु का पीछा करके उसे ख़त्म करने के संस्कार ही भारतीय राजाओं में नहीं थे। फलस्वरूप बाबर बच गया और उसे अपनी ताकत बढ़ाने का मौका मिल गया। इस मौके का उसने पूरा का पूरा फायदा उ़ठाया। वहीं, दूसरी ओर अन्य राजाओं को संघटित करने के लिये महाराणा संगा को काफी समय एवं ताकत खर्च करनी पड़ी।

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महाराणा सांगा

80 वर्ष के महाराणा संगा एक महान योद्धा थे। जितनी उनकी उम्र थी, उतने ही उनके शरीर पर युद्ध के घाव थे, ऐसा कहा जाता है। युद्ध के दौरान उनकी एक आँख नाकाम हो गयी थी। फिर भी यह योद्धा हर एक युद्ध में पराक्रम दिखाता ही रहा। परन्तु बाबर पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद ‘दिल्ली पर कौन राज्य करेगा’ इसपर हुए विवाद के कारण हाथ आ रही जीत का रूपांतरण हार में हो गया। कुछ मतलबी राजाओं ने ऐन वक़्त पर युद्ध से अपने आप को अलग कर लिया और वे अपनी-अपनी सेनाएँ लेकर लौट गये। इस विद्रोह के कारण महाराणा संगा की हार हो गयी और इसी युद्ध में उन्हें वीरमरण प्राप्त हुआ।

अब बताइए, बाबर को मिली विजय के श्रेय के असली हक़दार कौन हैं? ऐन वक़्त पर युद्ध से मुँह मोड़कर चले जानेवाले मतलबी राजा ही ना! परचक्र (विदेशी आक्रमण) आ जाने पर, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ दिलोदिमाग पर हावी हो चुके कुछ लोग, उसका अपने स्वार्थ के लिये उपयोग करते थे। राष्ट्र की उपेक्षा उन्हें अपना स्वार्थ ज्यादा महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता रहा। दरअसल, परचक्र आनेपर, अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर संघटित होना चाहिये। तभी राष्ट्र बचता है और राष्ट्र के बचने पर ही व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं का कुछ अर्थ शेष बचता है। मग़र संकुचित मनोवृत्ति वाले लोगों की समझ में यह बात कभी भी नहीं आयी। परन्तु राष्ट्र का विचार करनेवाले महापुरुष हमारे देश में पैदा हुए और उनके द्वारा दी गयी प्रेरणाओं के फलस्वरूप ही कितने सारे आक्रमकों के आघातों को सहकर भी आज हमारा राष्ट्र शान से खड़ा है।

pg12_Dr-Hedgewar1-1राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करने वाले डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार ने देश के इतिहास पर गहराई से चिंतन किया था। हमारे देश को पराक्रम की बड़ी धरोहर प्राप्त हुई है। राम, कृष्ण के देश में चाणक्य-चंद्रगुप्त हुए, बाप्पा रावळ, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, गुरुगोविंदसिंह जैसे महापुरुष हुए। फिर भी इस देश की ऐसी स्थिति क्यों हुयी, इस पर डॉ. हेडगेवार ने काफी विचारमंथन किया। इस देश ने इतिहास से कोई भी सबक नहीं सीखा, ऐसा डॉ. हेडगेवार का कहना था। भूतकाल की गलतियों को वर्तमान में सुधारना यानी इतिहास से सबक सीखना। ऐसा करने पर ही हमारे देश का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। इस विचारमंथन से, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे, समाज को एकत्रित करनेवाले संगठन की आवश्यकता डॉ. हेडगेवार को प्रतीत होने लगी। इसी से सन १९२५ में संघ की स्थापना हुयी। विदेशी शासकों द्वारा छिपाकर, दबाकर रखे गये देश के गौरवशाली इतिहास की यादों को जगाना और हमारे द्वारा की गयी गलतियों की पुनरावृत्ति ना हों इसके लिये सावधान रहना अत्यधिक आवश्यक था। सांस्कृतिक दृष्टि से भारत यह हमेशा ही एक राष्ट्र था। परन्तु सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भारत कभी भी एक नहीं हुआ। इस एकता के न होने के कारण ही देश पर हुए विदेशी आक्रमण सफल साबित हुए। अतुलनीय पराक्रम करने के बावजूद भी, एकसंघ ना होने के कारण, हमें इन आक्रमणों की आँच सहनी पडी। हमें इतिहास के इस सबक को कभी भी भूलना नहीं चाहिए।  (क्रमश:)

– रमेशभाई मेहता

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