श्रीगुरुजी का आवाहन

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ -भाग १८

pg 12-golwalkarदेश स्वतंत्र हो गया| बँटवारे के बड़े जख्म के बावजूद भी देश की स्वतंत्रता का उत्सव मनाया जा रहा था| परन्तु इसी समय में कुछ लोग निराशा से हिम्मत हारकर बैठे थे| स्वातंत्र्यवीर सावरकर को देश के इस बँटवारे का असह्य दुख हो रहा था| स्वातंत्र्यवीर सावरकर और श्रीगुरुजी जैसे देशभक्तों का कहना था कि यह भौगोलिक बँटवारा अप्राकृतिक है, क्योंकि हमारे और अलग देश की मॉंग करनेवाले पाकिस्तान के पूर्वज एक ही थे| आज नहीं तो कल, हमारे साथ रहने के लिए वे यक़ीनन ही राज़ी हो जाते| देश की अखंडता के लिए यदि और अधिक दृढ़ता से प्रयास किये जाते, तो उन्हें निश्‍चित रूप से सफलता मिल गयी होती, ऐसा स्वातंत्र्यवीर सावरकर और श्रीगुरुजी जैसे देशभक्तों का मानना था| परन्तु वैसा कुछ हुआ नहीं| खैर, बँटवारे की स्थिति में ही सही, लेकिन देश स्वतंत्र हो चुका था| लेकिन यह स्वतंत्रता अँग्रेज़ों ने तोहफ़े के रूप में नहीं दी थी| इस स्वतंत्रता के लिये अनेक लोगों ने बलिदान दिया था| शुरुआत में मुगल और उसके बाद अंग्रेज़ों के चंगुल से देश को मुक्त करवाने के लिए, अनेक लोगों द्वारा किये गये बलिदान और त्याग का स्मरण करके, उन्हें नमन करके हम आगे बढ़ते हैं|

स्वतंत्रता के बाद श्रीगुरुजी ने पूरे देश में प्रवास शुरू किया| जगह जगह पर गुरुजी के भाषणों से समाज को चेतना मिल रही थी| स्वतंत्रता के बाद देश में राजनीति का माहौल शुरू हो चुका था और राजनीतिक चढ़ाऊपरी में एक-दूसरे को मात देना स्वाभाविक होता है| ऐसे हालातों में, प्रतिस्पर्धियों द्वारा किये गये अच्छे कार्यों की प्रशंसा करने की सहृदयता राजनीतिक दृष्टि से घातक साबित होती है| केवल सत्ता की राजनीति करनेवाले ही नहीं, बल्कि विशिष्ट विचारों के पुरस्कर्ता भी अपने प्रतिस्पर्धियों के अच्छे कार्यों की प्रशंसा नहीं करते; किंबहुना वे एक-दूसरे की बुराइयॉं बताने का ही प्रयत्न करते हैं| संघ कभी भी ऐसी राजनीति में नहीं फँसा, क्योंकि संघ पर डॉक्टरसाहब और गुरुजी के संस्कारों की छाप थी| गुरुजी तो अजातशत्रु ही थे| उनके मन में किसी के प्रति वैरभाव नहीं था| ‘संघ का कार्य यह ईश्‍वरीय कार्य है| यह कार्य हमेशा समाज और राष्ट्र के हित के लिए होना चाहिये| परन्तु किसी अन्य के द्वारा भी देश के हित के कार्य किये जा रहे हो, तो हमें उनकी प्रशंसा करना सीखना चाहिये’ ऐसी गुरुजी की सीख थी|

श्रीगुरुजी की किसी के भी साथ वैरभाव ना रखने की प्रवृत्ति और उनकी अमृतमयी वाणी तथा उसके अनुसार आचरण करना, इन आदर्शों का स्वयंसेवकों ने भी स्वीकार कर लिया| १४ जनवरी १९४८ को श्रीगुरुजी ने मुंबई की एक विराट सभा में सामाजिक समरसता का संदेश दिया| संघ के विचारों का प्रसार करनेवाला साहित्य, गीत बड़ी मात्रा में छापे जा रहे थे| उसे जनता से ज़ोरदार प्रतिसाद मिल रहा था| संघ की बढ़ती शक्ति और लोकप्रियता को देखकर राजनीतिक पार्टियों के भी दिल की धडकनें बढ़ने लगी थीं| क्या हमारा सामना किसी नये प्रतिस्पर्धि के साथ होनेवाला है, इस डर से उन्हें ग्रस्त कर दिया था| जैसा कि पहले ही बताया गया था, स्वतन्त्रता के बाद की राजनीति शुरू हुई, वह केवल अपने खुद के लिए और अपने पक्ष (पार्टी) के लिए; देश का विचार अब पीछे छूटता जा रहा था| ऐसे दौर में, संघ जैसे लोकप्रिय संगठन को प्रतिस्पर्धी के रूप में कोई नहीं चाहता था| राजनीतिक क्षेत्र में काम करनेवालों लोगों की असुरक्षितता देखकर श्रीगुरुजी किसी अबोध बालक की तरह हँसा करते थे| ‘हमें ना तो राजनीति चाहिये और ना ही तुम्हारी सत्ता| समाज को संघटित करना, सुसंस्कारित करना और आत्मविश्‍वास जगाना, यह हमारा कार्य है’ ऐसा गुरुजी बार बार कहा करते थे| फिर भी संघ के बारे में ड़र कम नहीं हुआ|

सन् १९४८ में महाराष्ट्र में संघ का विशाल शिबिर आयोजित किया जानेवाला था| इस शिबिर में एक लाख से भी ज़्यादा स्वयंसेवक उपस्थित रहनेवाले थे| परन्तु उस समय की सरकार ने इसकी इज़ाजत देने से  इन्कार कर दिया| उस समय की राजनीतिक व्यवस्था में शामिल रहनेवाले कई लोगों के मन संघ के बारे में अकस था, यह साबित करने के लिए यह घटना काफी थी| ये लोग संघ पर प्रतिबंध लगाने का मौक़ा ढूँढ़ रहे थे| ३० जनवरी १९४८ को गॉंधीजी की हत्या हो गयी| गुरुजी को यह समाचार मिला और उन्हें बहुत गहरा सदमा पहुँचा| इस समय गुरुजी यात्रा पर थे| परन्तु अपनी यात्रा बीच में ही स्थगित करके गुरुजी नागपुर पहुँचे| गुरुजी ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को शोक संदेश का टेलीग्राम भेजा| इस संदेश में गुरुजी ने, महात्मा गांधी के असाधारण व्यक्तित्व की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हुए गांधीजी की हत्या पर गहरा शोक व्यक्त किया|

इसके बावज़ूद भी १ फरवरी १९४८ की रात को गुरुजी को गिऱफ़्तार कर लिया| ४ फरवरी को सरकार ने संघ पर पाबंदी लगाने की घोषणा की| जेल से ही पत्र लिखकर गुरुजी ने प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री से पूछा कि आपने किस आधार पर संघ पर पाबंदी लगायी है?

मुझे आज भी वह दिन याद आता है| ५ फरवरी १९४८ को मैं हमेशा की ही तरह संघ की बालशाखा में गया| वहॉं पर हमारे शिक्षक खड़े थे| शाखा शुरू नहीं हुयी थी| शिक्षकों ने हमें समझाया कि अगले कुछ दिनों तक शाखा सम्मिलित नहीं होगी| बाद में शाखा जब शुरू होगी, तो तुम्हें खबर दी जायेगी| तब तक हम सब लोग, समर्थ व्यायाम मंदिर के अखाड़े में नियमित रूप से मिलते रहेंगें| यह सब घटित हुआ मेरे जन्मस्थान में यानी सौराष्ट्र के अमरेली गॉंव में|

मेरा जन्म २६ मई १९४२ को हुआ था| मेरे पिता हरिलाल जेठालाल मेहता, कॉंग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे| उनके मन में लोकमान्य टिलक के प्रति विशेष आदर था| उन्होंने ही मुझे संघ की शाखा में भेजा| ‘तुम अकेले ही मत खेलो, दूसरों के साथ खेलना’ ऐसा उन्होंने मुझे संघ की बालशाखा में भेजते  समय बताया था| उस समय ‘संघ की बालशाखा में जाना’ यानी ‘खोखो, लंगड़ी, हुतूतू खेलना और खेल समाप्त हो जाने पर सभी लोगों के द्वारा मिलकर देशभक्तिपर गीत गाना और बाद में प्रार्थना करना’ इतना ही मुझे पता था| संघ के विचारों को समझने लायक मेरी वह उम्र नहीं थी| परन्तु संघ के संस्कारों का प्रभाव हमपर होने लगा था| अत: अब संघ की शाखायें सम्मिलित क्यों नहीं होंगी, ऐसा प्रश्‍न मेरे बालमन में आने लगा था|

गांधीजी की हत्या की जाने के कारण संघ पर पाबंदी लगा दी गयी है, ऐसा बाद में मालूम पड़ा|  परन्तु इन दोनों घटनाओं का क्या संबंध है, इसका मुझे उस उम्र में पता नहीं चला था और आज भी मैं नहीं जान पाया हूँ, क्योंकि सन् १९४२ में गांधीजी की हत्या के षड्यंत्र को संघ ने ही पहले उजागर किया था, फिर भी गांधीजी की हत्या का आरोप संघ पर लगाया गया और आज भी पूर्वग्रहदूषित कुछ लोग गांधीजी की हत्या का संबंध संघ से जोड़ते हैं| उन्हें यह इतिहास ही ज्ञात नहीं हैं या फिर वे असली इतिहास जानना भी नहीं चाहते, ऐसा कहना गैरवाजिब नहीं होगा|

स्वयंसेवकों ने इस अन्याय के विरोध में सत्याग्रह शुरू किया| सरकार के कुछ लोगों का मानना था कि चार-पॉंच हजार लोग कुछ दिनों तक आंदोलन करेंगे और बाद में भूल जायेंगें| परन्तु ७७०९० स्वयंसेवकों ने पाबंदी और गुरुजी की गिरफ़्तारी के विरोध में ‘जेलभरो’ आंदोलन में हिस्सा लिया| अन्याय का विरोध करते समय भी स्वयंसेवकों ने मर्यादा नहीं छोड़ी और हिंसा का इस्तेमाल नहीं किया| इस दौरान कई स्वयंसेवकों के परिवारों को भयंकर कष्ट सहना पड़ा| फिर भी संयम न छोड़ते हुए, स्वयंसेवक अपने मार्ग से संघर्ष करते रहे|

पूजनीय गुरुजी ने जेल से ही स्वयंसेवकों को आवाहन किया, ‘‘यह धर्म का अधर्म से, न्याय का अन्याय से, उदारता का संकुचितता से, स्नेह का दुष्टता से संघर्ष है| इस संघर्ष में हमारी विजय निश्‍चित थी क्योंकि धर्म के साथ श्रीभगवान और विजयश्री रहती ही है| तो फिर हृदयाकाश से जगदाकाश तक भारत की जयध्वनि की ललकारी देकर कार्य पूरा किजिए|

भारत माता की  जय!’’
(क्रमश:)

-रमेशभाई मेहता

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