पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद की जागृति!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग ७

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इतिहास की जानकारी प्राप्त की जाती है, वह केवल स्मरणरंजन के लिए नहीं, बल्कि भूतकाल में हुईं ग़लतियों को वर्तमान में टालने के लिए। इसीके साथ, अपने गौरवशाली इतिहास को समझने के लिए, अपने समाज के सामर्थ्य को जानने के लिए और सबसे अहम बात यह है कि विदेशियों के द्वारा अपने स्वार्थ के लिए की गयी इतिहास की तोड़फ़ोड़ को जानकर उसे नकारने के लिए इतिहास का अध्ययन आवश्यक ही है। डॉ. हेडगेवार ने इस देश के इतिहास को जाना, समझा। इस देश में आज भी ज़बरदस्त सामर्थ्य है, लेकिन संगठित न होने की वजह से सारा सामर्थ्य व्यर्थ हो रहा है, यह बहुत पहले ही डॉ. हेडगेवार जान चुके थे।

सन १८५७ का संग्राम, यह भारतीयों के द्वारा अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ छेड़ा गया पहला स्वतंत्रतासंग्राम था। इस स्वतंत्रतासंग्राम में चाहे अँग्रेज़ों की पराजय न भी हुई हो, मग़र फिर भी भारतीयों में बड़ी मात्रा में जागृति निर्माण हुई। झाँसी की रानी, तात्या टोपे, राजा कुंवरसिंह और अन्य वीरों का बलिदान यक़ीनन ही व्यर्थ नहीं गया। वहीं, नानासाहेब पेशवे अँग्रेज़ों के हाथ नहीं लग सके। ऐसा माना जाता है कि ‘उन्होंने नेपाल में आश्रय लिया और वहीं पर उनका निधन हो गया।’ लेकिन यह गलत है। नानासाहेब पेशवा ने कुछ समय तक नेपाल में अवश्य वास्तव्य किया, लेकिन उसके बाद वे गुजरात के सौराष्ट्र में स्थित भावनगर के पास शिहोर गाँव में आ गए। इस गाँव के शिवमंदिर में वे एक संन्यासी के रूप में रहे और जीवन के अंतिम क्षणों तक वे वहीं थे।

अँग्रेज़ों ने नानासाहेब पेशवा पर उस ज़माने में एक लाख रुपये का इनाम घोषित किया था। फिर भी नानासाहेब पेशवे उनके हाथ न लग सके। शिहोर के शिवमंदिर के पुजारी के दो लड़के थे। वे दोनों भी नानासाहेब की सेना में सैनिक थे और अँग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध में सहभागी भी हुए थे। इन दोनों ने संन्यासी भेसधारी नानासाहेब की अंतिम समय तक सेवा की। दरअसल सन १८५७ के स्वतंत्रतासंग्राम में नानासाहेब द्वारा दिये गए योगदान पर इतिहास ने ग़ौर नहीं किया है। रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और सारे देश में अँग्रेज़ों के विरोध में जो दावानल भड़का, उसका नेतृत्व नानासाहेब ने ही किया था। नानासाहेब शिहोर गांव में संन्यासी के भेस में कितनें सारे वर्षों तक रहें, इस इतिहास को दर्ज़ नहीं किया गया है, लेकिन यहाँ के कुछ निवासियों को यह बात निश्चित रूप से ज्ञात थी।

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झवेरभाई पटेल यानी सरदार वल्लभभाई पटेल के पिताजी। वे भी नानासाहेब पेशवे की सेना में उच्च अधिकार के पद पर कार्यरत थे। नानासाहेब की सेना की भोजनव्यवस्था की और घायल सैनिकों की सेवा-शुश्रुषा करने के काम की देखरेख करना, यह झवेरभाई पटेल की ज़िम्मेदारी थी। जब स्वामी विवेकानंदजी भारत भ्रमण कर रहे थे, उस दौरान शिहोर के इस शिवमंदिर में आये थे और उनकी मुलाक़ात, संन्यासी के रूप में रहनेवाले नानासाहेब पेशवे से हुई थी। देश में आयी अँग्रेज़ी हुकुमत के कारण नानासाहेब बेचैन थे। भारतमाता के इस सपूत ने सन १९०१ में शिहोर में ही अंतिम साँस ली। सन १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम का परिणाम देशभर में दिखायी देने लगा। सभी स्तरों पर अब मंथन शुरू हो चुका था। विवेकानंद ने भी इस देश की युवा शक्ति को जागृत करने का काम किया। उनके शब्द इतने प्रभावी हैं कि वे आज भी देश के जवानों को जागृत कर सकते हैं। जिस समय अँग्रेज़ी हुकूमत इस देश में अपनी जड़ें जमा रही थी, उसी समय इस बात पर विचार होने लगा था कि आखिर हमारे समाज की ऐसी स्थिति क्यों हुई है। समाजसुधारणा की आवश्यकता महसूस हो चुके समाजसुधारक, अपनी जान की बाज़ी लगाकर समाजसुधारणा का काम कर रहे थे। आर्य समाज, ब्राह्मो समाज, प्रार्थना समाज इत्यादि का उदय हुआ था। दूसरी ओर, अँग्रेज़ों को इस देश से खदेड़ दिये बग़ैर इस देश का उद्धार संभव नहीं हैं, इसका यक़ीन हो चुके क्रांतिकारी, अँग्रेज़ों को चुनौती दे रहे थे। वासुदेव बलवंत फड़के, बाघा जतिन इत्यादि महान क्रान्तिकारियों का कार्य आज भी हमें स्फूर्ति प्रदान करता है। लेकिन इसी दौरान देश के कुछ विचारक इस बात पर भी विचार कर रहे थे कि इस देश पर हजार वर्षों से परचक्र क्यों आते रहे हैं और बहुत ही सामर्थ्यशाली होते हुए भी हमारा समाज विदेशी सत्ता के कब्ज़े में क्यों आ गया। डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार इसी दिशा में विचार कर रहे थे। देश स्वतंत्रता के लिये लड़ रहा था। सन १८८५ में राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना हुई थी। जनजागरण शुरू हुआ था। देश की स्वतंत्रता का जुनून सिर पर सवार हुए नौजवान अलग-अलग मार्गों से अँग्रेज़ों को चुनौती देने लगे थे। डॉ. हेडगेवार भी राष्ट्रीय काँग्रेस के सदस्य बन गये और देशहित के लिए कार्य करने लगे। परंतु उनका अखंड चिंतन शुरू ही था। बहुत से लोग इतिहास पढ़ते हैं, याद रखते हैं; परन्तु कुछ लोग इतिहास सिर्फ़ पढ़ते ही नहीं, बल्कि उसका गहराई से अध्ययन भी करते हैं, इतिहास को समझ लेते हैं। वहीं, कुछ लोग इतिहास को समझने तक ही सीमित न रहकर, इतिहास का वास्तविक आकलन भी करते हैं। ‘इतिहास में ज़्यादा मन लगाना ठीक नहीं है, उसका कुछ भी फ़ायदा नहीं होता’ ऐसा कहनेवाले बहुत सारे लोग हमारे समाज में हैं। परन्तु इतिहास की जानकारी प्राप्त की जाती है, वह केवल स्मरणरंजन के लिए नहीं, बल्कि भूतकाल में हुईं ग़लतियों को वर्तमान में टालने के लिए।

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इसीके साथ, अपने गौरवशाली इतिहास को समझने के लिए, अपने समाज के सामर्थ्य को जानने के लिए और सबसे अहम बात यह है कि विदेशियों के द्वारा अपने स्वार्थ के लिए की गयी इतिहास की तोड़फ़ोड़ को जानकर, उसे नकारने के लिए इतिहास का अध्ययन आवश्यक ही है। डॉ. हेडगेवार ने इस देश के इतिहास को जाना, समझा। इस देश में आज भी ज़बरदस्त सामर्थ्य है, लेकिन संगठित न होने की वजह से सारा सामर्थ्य व्यर्थ हो रहा है, यह बहुत पहले ही डॉ. हेडगेवार जान चुके थे। हमारे समाज में जात-पात, उच्च-नीच का भेदभाव क्यों हैं? यह प्रश्न उन्हें सताता रहता था। इन्हीं दुर्गुणों के कारण भारत का पतन हुआ। व्यक्तिगत स्वार्थ, अहंकार, अति-महत्त्वाकांक्षा, असावधानी इन सारी बातों के कारण मुट्ठी भर विदेशी लोग हमारे समाज पर राज कर सके। उन्होंने भारतीय समाज के पराक्रम का उपयोग भारत के ही विरोध में किया। यह प्रक्रिया हजारों वर्षों से चल रही थी परन्तु हमारे राजा लोग और हमारा समाज जागृत नहीं हुआ। इस देश ने विदेशी आक्रमणकारियों का समय-समय पर मुक़ाबला किया, लेकिन देश संघटित नहीं हुआ और इसके भयंकर परिणाम देश को भुगतने पड़ें।

भारत के जितनी गौरवशाली और समृद्ध परंपरा और महान संस्कृति की धरोहर अन्य किसी भी देश को नहीं मिली है। हमारा देश बहुभाषिक है, अर्थात् विभिन्न भाषाओं से देश की संस्कृति सजी-धजी है। ये भाषाएँ यानी भारत का वैभव है। संस्कृत से विकसित हुईं ये भारतीय भाषाएँ, एक-दूसरे की बहनें ही हैं। प्राचीनकाल में भारत को ज्ञानभूमि माना जाता था। संपूर्ण विश्व को दिशा प्रदान करने का काम भारत कर रहा था। ज्ञान की अनेक शाखाओं का उत्कर्ष इस देश में हुआ था। क्योंकि हमारे श्रेष्ठ ऋषि-महर्षि ये श्रेष्ठ वैज्ञानिक ही थे। ज्ञानप्राप्ति के लिए दुनिया के कोने-कोने से विद्यार्थी यहाँ आया करते थे। परन्तु हमारा समाज इस महान विरासत को भूलता जा रहा है। इस बात का दुख डॉ. हेडगेवार को था।

हमारे समाज में ये सब दोष घुस गये, क्योंकि हम संघटित नहीं हैं। जब-जब भी महापुरुषों ने हमारे समाज को संघटित किया, उस समय पुन: हमारा समाज शक्तिशाली बना और इस संघटित समाज ने विदेशी आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया। इसीलिए सबसे बड़ी आवश्यकता है, इस देश के सामर्थ्य को जागृत करनेवाले संगठन की। व्यक्तिगत स्वार्थ को बाजू में रखकर, देशहित को सर्वोच्च प्रधानता देनेवाली संघटना ही इस देश को एकसंघ कर सकती है, इस बात का यक़ीन डॉ. हेडगेवार को हो चुका था।

उम्र के ३५ वे वर्ष में डॉ. हेडगेवार ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की। परंतु उसके काफ़ी पहले से ही उन्होंने चिंतन शुरू कर दिया था; दरअसल, बचपन से ही। सभी महान विभूतियों के बारे में एक बात हमें समझ लेनी चाहिए कि उन्हें सामान्य बचपन का लाभ मिलता ही नहीं, बल्कि वे बचपन में ही बड़े हो जाते हैं। डॉक्टर के जीवन में भी यही घटित हुआ। उनके चिंतन की शुरुआत बचपन से ही हो चुकी थी। (क्रमश:)

– रमेशभाई मेहता

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