गुरुजी का वास्तव्य

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ४२

‘गुरुजी, आपका वास्तव्य कहाँ पर रहता है?’ – ऐसा किसी ने पूछा। ‘रेल के डिब्बे में!’, गुरुजी ने एकदम सहजता से उत्तर दिया। यह गुरुजी द्वारा किया हुआ हँसीमज़ाक नहीं था। वाक़ई गुरुजी ने अपने जीवन का बहुत समय प्रवास में व्यतीत किया है। गुरुजी

कई बार देशभ्रमण करनेवाले गुरुजी या तो रेल के डिब्बे में या फिर  बस में या कभीकभार मोटरकार में हुआ करते थे। इस यात्रा की बहुत बड़ी थकान गुरुजी उत्साह के साथ सह लेते थे। इसका प्रचंड तनाव गुरुजी के शरीर पर आता रहा। लेकिन उन्होंने उसकी कभी शिक़ायत नहीं की। प्रवास के दौरान खानेपीने की ओर भी गुरुजी दुर्लक्ष ही किया करते थे, उसका भी विपरित परिणाम गुरुजी के स्वास्थ्य पर हुआ। लेकिन यह सारा तनाव गुरुजी ने मुस्कुराते हुए सहन किया। किसी को भी उसका पता नहीं चलने दिया।

डॉक्टर हेडगेवार ने संघ की स्थापना की और संघ का विस्तार करने के लिए अपार कष्ट उठाये। गुरुजी को डॉक्टरसाहब से अधिक आयु का वरदान मिला। इस जीवन का हर एक क्षण गुरुजी ने संघ के विस्तार के लिए ही खर्च किया। उसके लिए गुरुजी के शरीर को हर पल कष्ट सहने पड़े। लेकिन इसके बावजूद भी गुरुजी ने अपना प्रवास और जनसंपर्क खंडित नहीं किया। ३३ साल अखंडित रूप में प्रवास करते रहना यह कोई आसान बात नहीं थी। शरीर पर आनेवाले असह्य तनाव को सहते हुए, चेहरे पर मुस्कान लिये गुरुजी प्रवास करते रहे। चाहे कड़ी धूप हो या बरसात, तेज़तूफानी हवाएँ हों या फिर  अन्य कोई संकट अथवा उनका खुद का स्वास्थ्य बिगड़ा हुआ हो; इनमें से कुछ भी गुरुजी के प्रवास पर असर नहीं कर सका। गुरुजी प्रवास करते रहे और स्वयंसेवकों को प्रेरणा देते रहे। इस कारण संघकार्य का विस्तार हुआ। पहले संघ के प्रखर विरोधक रहनेवाले कई लोग, गुरुजी के संपर्क में आने के बाद पूरी तरह बदल गये होने के उदाहरण हैं।

भारतमाता को परमवैभव प्राप्त हों इसलिए अथक रूप में परिश्रम करते रहना, यह गुरुजी का स्वभावधर्म बन गया था। इसके लिए संघ अधिक से अधिक समर्थ बनना चाहिए और संघ को यदि समर्थ एवं व्यापक बनाना है, तो जनसंपर्क के बिना और कोई चारा ही नहीं है, ऐसा गुरुजी का मानना था। संघ ने पाबंदी का अनुभव किया है और संघ उसमें से बाहर भी निकल आया है। ‘पाबंदी की कभी भी चिंता मत करना; जब तक दो व्यक्तियों को एक दूसरे के साथ बात करने की आज़ादी है, तब तक संघ पर किसी भी पाबंदी का परिणाम नहीं होगा’ ऐसा संदेश श्रीगुरुजी ने स्वयंसेवकों को दिया था। ज़ाहिर है, जनसंपर्क यह संघ की बहुत बड़ी ताकत है।

आज के ज़माने में अपने विचार औरों तक पहुँचानेवाले अत्याधुनिक माध्यम उपलब्ध हैं। हम अलग अलग मार्गों से दूसरों के साथ बात कर सकते हैं, संवाद बढ़ा सकते हैं। लेकिन संपर्क के ये माध्यम जब नहीं थे, तब से यानी आज़ादीपूर्व समय से संघ का विस्तार होता रहा, इसका कारण था – संघ का व्यापक जनसंपर्क। स्वयंसेवकों में इसके संस्कार डॉक्टर हेडगेवार और गुरुजी ने बोये हैं। आज भी हालाँकि संपर्क के अलग अलग माध्यम उपलब्ध हैं, मग़र फिर  भी ठेंठ और प्रत्यक्ष संपर्क का कोई विकल्प नहीं है, ऐसा संघ का मानना है।

सन १९२५  में शुरू हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्र की सेवा करनेवाले कई संगठनों की स्थापना की। अल्प अवधि में ही इन संगठनों को बहुत बड़ी सफलता मिली, इसकी जानकारी हमने ली ही है। इस सफलता के पीछे गुरुजी का मार्गदर्शन और स्वयंसेवकों के अविरत प्रयास थे। ‘संघटन’ यह संघकार्य का मूलमंत्र है। संघ की प्रतिज्ञा में ही संघ के उद्दिष्टों का वर्णन किया गया है। ‘संस्कृति और समाज की रक्षा और उसकी सर्वांगीण उन्नति करते रहना यह अपना कर्तव्य है’ ऐसा संघ का मानना है। हम यदि अपने राष्ट्र के लिए कुछ करते हैं, तो उसमें विशेष ऐसा कुछ भी नहीं है, यह भाव हर एक के मन में अंकुरित होना चाहिए, ऐसी संघ की सीख है।

हम राजा मनु की कहानी जानते हैं। राजा मनु एक छोटी-सी मछली की जान बचाता है और यही छोटी-सी मछली आगे चलकर विराट मत्स्यरूप धारण करके, मनु के साथ साथ मानवजाति को भी महाप्रलय से बचाती है। इसी मत्स्य ने सृष्टि के बीजों की रक्षा की। इसी प्रकार संघ भी मानवता की रक्षा कर, ‘भारतीयता’ के तेज से समूचे विश्‍व को प्रकाशमान् करने के प्रयास कर रहा है।

संघ के विचारों का और ध्येयनीतियों का प्रसार करनेवाले तथा राष्ट्रहित के लिए आवश्यक रहनेवालीं बातों को निर्भयतापूर्वक प्रस्तुत करनेवाले नियतकालिकों की बहुत बड़ी आवश्यकता थी। इसीलिए देशभर में जगह जगह अख़बार, साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया गया। विभिन्न भाषाओं में पूरे देशभर में यह साहित्य छपा जाने लगा। ‘ऑर्गनायझर’, पाँचजन्य, विवेक, राष्ट्रधर्म, केसरी, जागृति, स्वस्तिक, आलोक, विक्रम ऐसे कई नियतकालिक प्रकाशित होने लगे। शिक्षाक्षेत्र, वनवासीक्षेत्र इनमें किये जानेवाले संघकार्य के विवरण, इन माध्यमों के ज़रिये नियमित रूप से जनता के सामने आने लगे। मज़दूर क्षेत्र में साम्यवादी विचारों के संगठनों का वर्चस्व था। उनके लाल झँड़े का मुक़ाबला कर इस क्षेत्र में संघ ने किये कार्य के कारण, भगवे ध्वज का महत्त्व अधोरेखित हुआ।

संघ की प्रेरणा से स्थापन हुए ‘भारतीय मज़दूर संघ’ ने, ‘विश्‍व के मज़दूरों, एक हो जाइए’ इस संदेश के बदले, ‘मज़दूरों, विश्‍व को एक बनाइए’ ऐसा समन्वय साधनेवाला विधायक संदेश दिया। धार्मिक क्षेत्र में ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ का कार्य शुरू हुआ। इससे समाज को धार्मिक चेतना प्राप्त हुई और हिंदु धर्म के सभी पंथों के आचार्य, संतमहंत एक छत्र तले आ गये और समाज में घुलमिलकर कार्य करने लगे। लेकिन इस सारे कार्य की शुरुआत करनेवाला संघ, उसके द्वारा स्थापन किये गये इन संगठनो से अलिप्त ही रहा। आज भी इन संगठनों के कार्य में संघ कभी भी दख़लअन्दाज़ी नहीं करता।

शाखाओं से लेकर विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे संघ के कार्य का वास्तविक अर्थ, भगवद्गीता के १३ वें अध्याय के १४ वें श्‍लोक में समाया हुआ है ऐसा कह सकते हैं। ‘सभी इंद्रियों के ज्ञान से संपन्न रहनेवाले, लेकिन स्वयं इंद्रियरहित; सबको धारण करनेवाले और सबका पोषण करनेवाले, मग़र आसक्तिविरहित; सभी गुणों के भोक्ता, मग़र स्वयं निर्गुण’ ऐसा परमेश्‍वर का गुणवर्णन इस श्‍लोक में किया गया है। उसी की तरह संघ ने, देश और समाज की सेवा के लिए विभिन्न संगठन स्थापन किये और ये संगठन आज व्यापक बने हैं। लेकिन संघ, उसने खुद ही स्थापन किये हुए इन संगठनों से अलिप्त रहता है। ‘सेवा है यज्ञकुंड, समिधा सम हम जले’ अर्थात् ‘राष्ट्राय स्वाहा, राष्ट्राय इदं न मम्’ यह गुरुजी का बहुत ही पसंदीदा वाक्य था। वे बार बार उसका उच्चारण करते रहते थे। ये संस्कार संघ पर रहने के कारण, संघ द्वारा खुद ही स्थापित किये गये किसी भी संगठन पर हु़कुमत जमाने के वृत्ति संघ में कभी भी नहीं आयी। इन संगठनों को संघ द्वारा पूरी आज़ादी दी गयी। उन्हें कभी ज़रूरत महसूस हुई, तो संघ की सहायता एवं मार्गदर्शन इन संगठनों को मिलते रहता है।

संघ का और संघ के साथ जुड़े हुए संगठनों का प्रचंड विस्तार देखते हुए, उसके पीछे रहनेवाले गुरुजी के परिश्रमों का एहसास होते रहता है। लेकिन इन अथक परिश्रमों के परिणाम गुरुजी के शरीर पर हुए। साठ साल की उम्र में गुरुजी की तबियत बिग़ड़ने लगी। सन १९७०  के मई महीने में गुरुजी की छाती में गाँठ हुई दिखायी दी। यह गाँठ कॅन्सर की थी, यह मालूम हुआ। उस ज़माने में कॅन्सर हुआ होने का पता चलते ही, मरीज़ों का धीरज टूट जाता था। लेकिन गुरुजी की प्रतिक्रिया अलग थी। मुंबई के ‘टाटा कॅन्सर हॉस्पिटल’ में डॉक्टर प्रफुल्ल देसाई ने शल्यकर्म (ऑपरेशन) कर इस गाँठ को निकाला।

डॉक्टर देसाई का संघ के साथ वैसे संबंध नहीं था। लेकिन गुरुजी के व्यक्तित्त्व से वे प्रभावित हुए। दरअसल, ढ़लती उम्र में दुर्बल होता जा रहा गुरुजी का देह क्या कॅन्सर के शल्यकर्म का सामना कर सकेगा, ऐसा सवाल डॉ. देसाई के मन में उठा था। लेकिन ‘जिस धीरज के साथ गुरुजी मुस्कुराते हुए इस शल्यकर्म के लिए राज़ी हो गये, इस शल्यकर्म के लिए उन्होंने जो सहयोग दिया, वह अद्भुत घटना थी’ ऐसा डॉ. देसाई ने कहा था। शल्यकर्म के दूसरे ही दिन गुरुजी घूमने-फिर ने लगे थे। इससे सभी लोग अचंभित हो गये।

इस ऑपरेशन के बाद गुरुजी ने डॉक्टर देसाई से पूछा, ‘मैं अब और कितने समय तक जी सकूँगा?’ उसपर डॉक्टर द्वारा दिया गया उत्तर सुनकर गुरुजी खुश हुए। ‘अरे वा, मेरे पास अब भी बहुत समय है’ ये गुरुजी के उद्गार डॉक्टर को हैरान कर गये। क्योंकि डॉ. देसाई ने बतायी हुई कालावधि कुछ ख़ास लंबी नहीं थी। उसके बाद गुरुजी अधिक तेज़ी से काम में जुट गये। नित्यनियमित रूप में शाखा, पत्रलेखन और प्रवास आदि गुरुजी के कार्यक्रम शुरू थे ही। उसके चन्द कुछ महीनों बाद, सन १९७१  का युद्ध शुरू हुआ। सन १९६५  के युद्ध में यदि पाक़िस्तान को हमेशा के लिए सबक सिखाया गया होता, तो आगे चलकर युद्ध छेड़ने की पाक़िस्तान की हिम्मत ही नहीं हुई होती, ऐसा गुरुजी का मानना था। महज़ छः वर्षों की कालावधि में गुरुजी के बोल सच साबित हुए। सन १९७१   में पाकिस्तान ने भारत के साथ युद्ध छेड़ दिया।

‘यह सरकार पर नहीं, बल्कि हमारे राष्ट्र पर हुआ आक्रमण है। सारे देश को मिलकर इसका एकता के साथ मुक़ाबला करना होगा। उसके लिए सरकार के साथ संपूर्ण सहयोग करने के लिए हम तैयार हैं’ ऐसी घोषणा गुरुजी ने की।

(क्रमश:)

Leave a Reply

Your email address will not be published.