परमहंस-५८

दास्य, सख्य, वत्सलता ऐसे विभिन्न मार्गों से रामकृष्णजी की ‘राधाभाव’ की साधना शुरू थी कि तभी उन्हें राधाजी के सगुणसाकार रूप में दर्शन हुए और उनकी उपासना अधिक ही ज़ोर से होने लगी। एक दिन उस भगवान श्रीकृष्ण के ही, उसके नित्यमनोहर रूप में उन्हें दर्शन हुए। रामकृष्णजी भावावस्था में मंत्रमुग्ध होकर उस दर्शन को आँखों से पी रहे थे कि तभी उनका शारीरिक दाह शान्त होता गया। उस श्रीकृष्ण ने भी उनके देह में प्रवेश किया होने का एहसास उन्हें थोड़ी देर बाद हुआ।

उनकी यह अवस्था लगभग दो-तीन महीने टिकी थी। उसमें एक और बार श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिये। विष्णुमंदिर में चल रहा भागवत का पाठ सुनते हुए वे बरामदे में बैठे थे; तब अचानक वे भावावस्था में चले गये और वह श्रीकृष्ण उनके सामने प्रकट हुआ। उसके चरणों से दीप्तिमान् किरनें निकलकर उस भागवत की पोथी पर पड़ीं और वहाँ से निकलकर रामकृष्णजी तक आयीं। किसी रस्सी की तरह दिखायी देनेवालीं उन ईश्‍वरीय प्रकाशशलाकाओं के त्रिकोन ने रामकृष्णजी को मानो श्रीकृष्ण भगवान के चरणों से बाँध लिया था। ‘श्रीकृष्ण और उसका तत्त्वज्ञान ज़रा भी अलग नहीं है, यह मुझे उस पल ज्ञात हुआ’ ऐसा रामकृष्णजी ने बाद में एक बार अपने शिष्यों से वार्तालाप करते हुए बताया था।

भक्ति के इन मार्गों पर चलने के बाद अब रामकृष्णजी और आगे जाकर अधिक कठिन साधना करें, यह तो क्रमप्राप्त ही था। अद्वैत सिद्धांत का मार्ग अब उनकी राह देख रहा था।

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‘निर्विकल्प समाधी’ यह ‘अद्वैत’ तत्त्वज्ञान के सबसे महत्त्वपूर्ण ध्येयों में से एक माना जाता है। लेकिन इस बहुत ही कठिन पड़ाव पर वही साधक पहुँच सकता है –

जो ‘केवल ब्रह्म ही सत्य है’ इस सिद्धांत पर अटल भरोसा रखता है, जिसे ईश्‍वर के अलावा और किसी बात की चाह नहीं होती, जिसने भौतिक सुखों से निवृत्ति अपनायी है, जिसे कर्मफल की आशा न होकर वह कर्मफल ईश्‍वरचरणों में अर्पण करता है, संयम (सब्र) जिसकी नस नस में भरा है, जो केवल ईश्‍वरचरणों का अनुसंधान करता है आदि।

हमने अब तक का रामकृष्णजी का जो जीवनप्रवास देखा, उसमें ये बातें रामकृष्णजी की नस नस में भरीं दिखायीं देतीं हैं।

इस कारण, उपासना के इन विभिन्न पड़ावों से होकर जाते हुए रामकृष्णजी के जीवन में उनके अगले ‘मार्गदर्शक’ का आगमन हुआ – अद्वैत तत्त्वज्ञान का प्रतिपादन करनेवाले ‘तोतापुरी’ नामक एक संन्यासी ने दक्षिणेश्‍वर में कदम रखा। यह लगभग इसा १८६४-६५ की घटना है।
तोतापुरी ये ‘दशनामी’ पंथ के साधु होकर, अद्वैत सिद्धांत के साधक एवं प्रतिपादक थे। उन्हें उससे पहले ईश्‍वर के दर्शन हुए थे। वे सदैव तीर्थयात्रा पर रहते थे और कभी भी बन्द कमरे में नहीं रहते थे और किसी एक स्थान पर तीन दिन से अधिक नहीं रुकते थे।

उस समय रामकृष्णजी गंगानदी के एक घाट पर चिंतन में मग्न होकर बैठे थे। ऐसे में तोतापुरी का दक्षिणेश्‍वर में आगमन हुआ। तोतापुरी ने रामकृष्णजी को दूर से ही देखा और रामकृष्णजी के चेहरे पर का तेज देखकर तोतापुरी रामकृष्णजी की ओर खींचे गये और ‘अद्वैत’ सिद्धांत की साधना की दीक्षा देने के लिए यही सुयोग्य साधक है, ऐसी उनके मन ने ठान ली।

इन्हीं तोतापुरी ने रामकृष्णजी को – ‘यह कहाँ इस ‘ईश्‍वर के दर्शन’ आदि बातों में उलझे हो? क्या तुम जैसे साधक को अब ईश्‍वर स्थूल दर्शन से आगे जाना नहीं चाहिए?’ ऐसा ठेंठ प्रश्‍न पूछा, ऐसा बताया जाता है।

रामकृष्णजी से मिलने पर, उन्हें अद्वैत सिद्धांत पढ़ाने की इच्छा तोतापुरी ने उनके पास ज़ाहिर की। तब – ‘मुझे जो सीखना चाहिए ऐसा मेरी माता को लगता है, मैं उतना ही सीखता हूँ और उसके अलावा कुछ भी नहीं सीखता’ ऐसा जवाब रामकृष्णजी ने तोतापुरी को दिया।

रामकृष्णजी के इस जवाब पर ग़ुस्सा न होते हुए तोतापुरी ने उल्टे कौतुक के साथ, यह अद्वैत साधना सीखने हेतु माता से अनुमति पूछने के लिए रामकृष्णजी से कहा।

रामकृष्णजी सीधे दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर में गये और उन्होंने कालीमाता के सामने खड़े रहकर, अद्वैत साधना सीखने के लिए उन्होंने माता से अनुमति माँगी। उसपर देवीमाता ने उन्हें – ‘हाँ, अवश्य। तुम्हें यह सीखाने के लिए ही तोतापुरी को यहाँ लाया गया है’ ऐसा प्रत्यक्ष रूप से कहा, ऐसा रामकृष्णजी ने आगे चलकर अपने शिष्यों से इसके बारे में बात करते हुए कहा था।

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