परमहंस-१४१

१८८६ साल धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा – मई….जून…जुलाई!

रामकृष्णजी की तबियत में कोई सुधार नहीं था, उल्टी वह ढ़हती ही जा रही थी। उनके इस भौतिक अवतार की समाप्ति नज़दीक आ रही होने का एहसास उनके शिष्यों को हो रहा था। रामकृष्णजी के वियोग की कल्पना हे वे सभी हालाँकि एकान्त में रो पड़ते थे, लेकिन अब इस अपरिहार्य भविष्य का स्वीकार करने के लिए सभी के मन की तैयारी हो चुकी थी। क्योंकि रामकृष्णजी का वियोग इतनी जल्दी न हों ऐसी तो सभी की ही इच्छा थी, मग़र रामकृष्णजी के देह को जो प्रचंड वेदनाएँ सहनी पड़ रही थीं, वे अब उनसे देखी नहीं जा रही थीं। कुछ शिष्यों ने तो आध्यात्मिक मार्ग से उनकी बीमारी खुद पर लेने की भी तैयारी दर्शायी थी; लेकिन रामकृष्णजी ने उससे साफ़ इन्कार कर वह मन्तव्य ख़ारिज कर दिया।

एक बार रामकृष्णजी ने ही बातें करते समय अपने शिष्यों से कहा था कि ‘मेरा क्या, मैं एक ही पल में इस दुनिया को छोड़कर जा सकता हूँ, क्योंकि अब मुझे देह की ये वेदनाएँ भी असहनीय होने लगीं हैं। लेकिन यदि इस पड़ाव पर मैं चला गया, तो तुम्हारे दिलों पर मानो बिजली ही टूट पड़ेगी, क्योंकि अभी तक तुम्हारे मन की तैयारी नहीं हुई है; इसलिए मैं यह सबकुछ सह रहा हूँ।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णकिसी दिन यदि वेदनाएँ चरमसीमा तक पहुँचती थीं, तो वे भावसमाधिअवस्था में अपने मन को देहबुद्धि से दूर ले जाते थे और फिर ‘अब कुछ वेदनाएँ नहीं हो रही हैं। जब मन देहबुद्धि में उलझा हुआ होता है, तब शरीर को होनेवालीं वेदनाएँ मन को ही सहनी पड़ती हैं। जब मन को देहबुद्धि से दूर ले जाकर उस ईश्‍वर पर केंद्रित करोगे, तभी शरीर को होनेवालीं वेदनाएँ महसूस नहीं होंगी। अपने हाथ पर ग़र्म पानी पड़ा, तो हाथ जलता है। हम कहते हैं, पानी ने हाथ जलाया। लेकिन दरअसल पानी से हाथ जला नहीं होता है, बल्कि पानी में होनेवाली उष्मा के कारण जला होता है। वैसा ही यह है’ ऐसा वे अपने शिष्यों से कहते थे।

ऐसे कई प्रसंगों से सीख पाते पाते अधिकांश शिष्यों के मन की तैयारी हो चुकी थी। लेकिन शरीर को हालाँकि वेदनाएँ हो रही थीं, उनका मन अभी तक कोमल ही था और उनके स्वभाव की यह कोमलता अब उल्टी शिष्यों को अधिक से अधिक महसूस होने लगी थी। उन्हें अपने शिष्यों का आध्यात्मिक कल्याण करने की इच्छा के साथ साथ, शिष्यों के मन में होनेवालीं छोटी से छोटी भावनाओं का एहसास था और बीमारी की प्रचंड पीड़ा हो रही होने के बावजूद भी शिष्यों के मन की उचित भावनाओं का क़दर करने का वे प्रयास करते थे।

उदाहरण के तौर पर, उनके एक शिष्य ने अपने लिए यह नियम बना लिया था कि जब तक रामकृष्णजी खाना नहीं खायेंगे, वह खाना नहीं खायेगा और उनके उच्छिष्ट को (जूठे अन्न को) प्रसाद के रूप में ग्रहण करने के बाद ही खाना खायेगा। एक दिन रामकृष्णजी के गले में प्रचंड जलन हो रही थी और एक कण तक का भी भोजन करने की उनकी इच्छा नहीं थी। लेकिन यदि मैंने खाना नहीं खाया, तो यह शिष्य भी भूखा रहेगा, इसका एहसास होने के कारण उन्होंने खुद के लिए खाना मँगवाया; लेकिन उसमें से केवल एक कण – जिसे निगलने में भी उन्हें तकलीफ़ हो रही थी, फिर भी – खाया और बाक़ी का खाना उस शिष्य को खाने के लिए दे दिया।

ऐसी छोटी छोटी घटनाओं में से रामकृष्णजी और उनके शिष्यों के बीच के नाज़ूक भावबंध खिल उठे थे।

अगस्त महीना शुरू हुआ। अगस्त के पहले हफ़्ते में रामकृष्णजी ने ‘सहज ही’ अपने पट्टशिष्यों में से एक ‘जोगिन’ को बुलाया और कॅलेंडर लाने के लिए कहा। उसके बाद उन्होंने उसे भारतीय पंचांग की कौनसी तिथि चालू है, यह पूछा। तब श्रावण महीना शुरू हो चुका था। फिर उन्होंने उसे एक-एक करके अगले कुछ दिनों की तिथियाँ पूछीं, जो कि उसने पढ़कर बतायीं।

उसके बाद ८-९ दिन में ही श्रावण महीना ख़त्म होकर भाद्रपद शुरू होनेवाला था। जब इस तरह पढ़ते पढ़ते जोगिन ‘श्रावण अमावस’ तक पहुँचा, तब रामकृष्णजी ने उसे ‘अब बस्स्’ ऐसा इशारा करके कॅलेंडर रखने के लिए कहा। ऐसा उन्होंने क्यों किया होगा, इसका किसी को भी कोई अँदेसा नहीं था।

उसके बाद ऐसे ही कुछ दिन बीते….श्रावण अमावास नज़दीक आयी….

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