नेताजी- १८४

जापान ले जानेवाली पनडुबी का इन्तज़ार करते समय सुभाषबाबू हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं थे। अन्य मार्गों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की उनकी कोशिशें जारी ही थीं। साथ ही, अनिश्चितता के ढलते हुए उस समय के साथ उनके मन में एमिली के बारे में फ़िक्र भी बढ़ ही रही थी। उसके प्रसूत होने का वक़्त क़रीब आता जा रहा था। यदि पनडुबी या अन्य किसी साधन की उपलब्धता होकर फ़ौरन पूर्वी एशिया जाने के लिए निकलना पड़ जाये तो एमिली का क्या, यह चिन्ता उस ‘प्रेमल पति’ के मन के किसी कोने में पनप रही थी।

अपने प्रति अपने पति के मन में रहनेवालीं कोमल भावनाओं को जाननेवालीं एमिली भी यक़ीनन ही ‘शान्त’ नहीं थीं। एक बार पूर्वी एशिया प्रयाण करने के बाद सुभाषबाबू से मुलाक़ात पुनः कब होगी, यह कहा नहीं जा सकता था और इसीलिए सुभाषबाबू अपनी सन्तान को देखने के बाद ही प्रस्थान करें, एमिली में रहनेवाली ‘माँ’ सोच रही थी। वहीं, एमिली में रहनेवाली – अपने पति एवं उनके कार्य की महानता को भली-भाँति जाननेवाली, अपने कर्तव्यकठोर पति की उतनी ही कर्तव्यकठोर पत्नी – इसका खयाल रख रही थी कि यह नाज़ुक बन्धन सुभाषबाबू के लिए कहीं ‘ममता का पाश’ न बन जाये। सुभाषबाबू के पूर्वी एशिया जाने के बाद, आगे चलकर लम्बे अरसे तक उनसे मुलाक़ात होना मुश्किल है यह जानकर, तब तक उनके मिलनेवाले सहवास को एक पल के लिए भी खोने के लिए वे तैयार नहीं थीं। अत एव ऐसी नाज़ुक हालत में बर्लिन के उस अनिश्चितता एवं भागदौड़भरे माहौल में रहने से बेहतर है कि वे व्हिएन्ना अपने नैहर में सुरक्षित रहें और यह बात उसके नैहर के लोगों द्वारा बार बार कहे जाने के बावजूद भी, इतना ही नहीं, बल्कि सुभाषबाबू द्वारा भी इसी बात को ज़ोर देकर कई बार कहे जाने के बावजूद भी वे बर्लिन छोड़ने के लिए तैयार नहीं थीं।

सुभाषबाबू भी अपनी स़ख्त समयसारिणी को सँभालकर अपनी अर्धांगिनी का खयाल रख रहे थे। एमिली को कहीं थोड़ाबहुत भी कुछ हो जाता था, तो सुभाषबाबू का दिल दहल जाता था। वक़्त निकालकर वे उनके साथ बातें करते थें। उनके कर्तव्यकठोर मन के इस कोमल हिस्से को एमिली बेतहाशा चाहती थीं। ‘बेटा होगा या बेटी’ इस बात पर तो कई बार उनकी बातचीत रंग लाती थी। आदिमाता के परमभक्त रहनेवाले सुभाषबाबू ‘बेटी ही होगी और आदिशक्ति के स्त्रीत्व का ही रूप रहनेवाली बेटी ही चाहिए’ यह दृढ़तापूर्वक कहते थे, तब एमिली को बहुत अच्छा लगता था।

इसी दौरान सुभाषबाबू काम के सिलसिले में अ‍ॅनाबर्ग कॅम्प, बर्लिन स्थित जापानी एम्बसी, पॅरिस, रोम के चक्कर काट रहे थे। सितम्बर में भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम को अपना समर्थन ज़ाहिर करने के लिए हॅम्बुर्ग में ‘इंडो-जर्मन सोसायटी’ की स्थापना की गयी थी। वहाँ व्यासपीठ पर हिटलर के ‘थर्ड राईश’ के ध्वज के साथ साथ ‘आज़ाद हिन्द सेना’ का तिरंगा ध्वज भी शान से लहरा रहा था। वह देखकर सुभाषबाबू को, तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व, जर्मनी में ही स्टटगार्ड में हुई एक विश्‍वपरिषद में, मादाम कामा द्वारा भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के ध्वज का दुनिया के सामने अनावरण किया जाना, इस घटना की याद आयी और वे गद्गद हो गये।

पूर्वी एशिया जाने के लिए यातायात के साधनों की खोज चल ही रही थी कि सितम्बर के अन्त में रोम से उन्हें यह ख़बर मिली कि अक्तूबर के मध्य में एक साहसी जर्मन विमानचालक रोम से ठेंठ रंगून तक उड़ान भरनेवाला है और उसमें से मेरे जाने की व्यवस्था हो सकती है। लेकिन इस स़फ़र में रहनेवाले ख़तरों पर ग़ौर करके, हिटलर की राय इसके लिए कुछ ख़ास अनुकूल नहीं थी। मुख्य रूप से, युद्ध का किसी भी प्रकार का दबाव न लेनेवाला रोम का बे़फ़िक्र राजकीय माहौल, इस योजना के बारे में गुप्तता रखने की दृष्टि से जर्मन लोगों को सुरक्षित नहीं लग रहा था। लेकिन पूर्वी एशिया जाने के लिए तिलमिलानेवाले सुभाषबाबू को तो वह एक स्वर्णिम अवसर ही प्रतीत हो रहा था। कुछ भी न करते हुए बर्लिन में सड़ते रहने की अपेक्षा बेहतर है कि पूर्वी एशिया जाने की कोशिशों में शहीद हो जाना और यह बात वे कई दिनों से सोच रहे थे। कई जर्मन फ़ौजी अ़फ़सरों ने भी उन्हें समझाने की कोशिशें कीं, लेकिन वे किसी की एक सुनने को तैयार नहीं थे। सीधे सामान बाँधकर एमिली को भावपूर्ण अलविदा कहकर व ट्रॉट के साथ रोम जाने निकले।

उड़ान का दिन आ गया। उतने में ‘जर्मनी में राजाश्रय ले चुके भारतीय नेता सुभाषचन्द्र बोस पूर्वी एशिया के लिए प्रस्थान कर रहे हैं’ यह ख़बर ही इटालियन प्रसारमाध्यमों द्वारा ज़ाहिर किये जाने के कारण ऐन वक़्त पर उन्हें अपनी योजना स्थगित करनी पड़ा और सुभाषबाबू को ख़़फ़ा होकर बर्लिन लौटना पड़ा। मेरे जापानगमन की योजना में हर बार कोई न कोई रोड़ा भला क्यों आ रहा है, यही वे समझ नहीं पा रहे थे।

उन्होंने शान्ति से सोचा और उन्हें ‘जवाब’ मिल गया। ये इतने सारे अड़ंगें आ रहे हैं, इसका अर्थ है कि नियती का इसमें कुछ न कुछ संकेत ज़रूर है, यह सोचकर उन्होंने उनके जापानगमन में आनेवालीं इन नकारात्मक बातों की ओर सकारात्मक नज़रिये से देखा और सन्तानमुख देखकर ही जापान जाने का तय कर लिया। यह समझते ही एमिली के मन ने तो मानो सातवें आसमान को ही छू लिया। सुभाषबाबू नवजात अर्भक को देखकर ही जापान के लिए प्रस्थान करें यह उनके मन की आस पूरी होनेवाली थी। लेकिन उसके लिए उन्होंने उसके सामने एक शर्त रख दी और वह थी कि इस जंग के माहौल में बर्लिन में न रहकर वे व्हिएन्ना जाकर रहें। सुभाषबाबू अपनी सन्तान को देखकर ही जापान जानेवाले हैं, इस अत्यानन्द में उन्होंने उस बात को मान लिया और दिल पर पत्थर रखकर वे व्हिएन्ना चली गयीं।

नवम्बर के अन्त में एमिली ने बेटी को जन्म दिया – ‘अनिता’ का जन्म हुआ! स्वयं का ही प्रतिरूप रहनेवाली उस नन्हीं सी जान को देखकर एमिली फ़ूले नहीं समा रही थी। ऐसे मौ़के पर ‘हमारी’ इस सन्तान के स्वागत के लिए मेरे पति यदि यहाँ पर होते, तो अच्छा होता यह आवाज़ उनके मन के एक कोने से आ ही रही थी। लेकिन उनकी स़ख्त समयसारिणी और जापान जाने के लिए उनके द्वारा किये जा रहे महत्प्रयास एमिली जानती थीं और वे कभी भी क़ामयाब हो सकते हैं यह जानकर उसने अपने दिल पर पत्थर रख दिया था।

इस ख़बर को सुनते ही सुभाषबाबू का मन खुशी से झूम उठा और अपनी बेटी को देखने के लिए उनसे सब्र नहीं हो रहा था। वे नंबियारजी को लेकर व्हिएन्ना गये। स्वयं का प्रतिरूप रहनेवाली उस नन्हीं सी परी को देखकर उसे अपने हाथ में उठाते हुए, उसके लिए क्या करूँ और क्या नहीं, ऐसी उनकी स्थिति हो गयी थी। का़फ़ी देर तक उसे अपनी गोद में लेकर वे उसके साथ ‘बातें’ कर रहे थे, प्यार-दुलार के साथ उसे चूम रहे थे।

अब फ़िर मुलाक़ात कब होगी यह अनिश्चित रहने के कारण, वे उस नन्हीं सी परी को अपनी आँखों से मन के सिंहासन पर बिठाकर उसकी छबि को हमेशा के लिए अपने दिल में विराजमान करके, दिलपर पत्थर रखकर बर्लिन लौट आये।

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