नेताजी-१९२

जर्मन पनडुबी से स्थानान्तरित हुए सुभाषबाबू को लेकर जापानी पनडुबी की वापसी यात्रा शुरू हो गयी। वह दिन था, २८ अप्रैल १९४३। जर्मन पनडुबी की अपेक्षा यह पनडुबी थोड़ीबहुत ठीक थी, इसमें एकदम हाथ-पैर सिकुड़कर बैठने की नौबत नहीं थी।

पनडुबी में पहुँचते ही कप्तान जुईची इझु और जापानी नौसेना के सबमरिन फ्लोटिला कमांडर मेसाओ टेराओका ने सुभाषबाबू का हार्दिक स्वागत किया। वे दोनों भी सुभाषबाबू के साथ सम्मानपूर्वक पेश आ रहे थे, क्योंकि ‘आप जिन्हें ले आनेवाले हैं, उनकी श़िख्सयत किसी राष्ट्रप्रमुख से कम नहीं है’ ऐसी स्पष्ट सूचना उन्हें खुद जापान के प्रधानमन्त्री टोजो से प्राप्त हुई थी। उसीके साथ, रूढ अर्थ से नौसैनिक न होते हुए भी सुभाषबाबू ने ख़ौले हुए समुंदर में उस पनडुबी में से इस पनडुबी तक आते हुए, रा़फ़्ट के हैरतअंगेज़ स़फ़र में जो क़माल कर दिखाया था, उससे तो वे दोनों भी अत्यधिक प्रभावित हुए थे और सुभाषबाबू के साथ और भी नम्रता से पेश आ रहे थे।

जर्मन पनडुबी में सुभाषबाबू को खानेपीने के मामले में का़फ़ी दिक्कतें उठानी पड़ी थीं। लेकिन जापानी पनडुबी के कप्तान ने, सुभाषबाबू भारतीय हैं, यह बात ध्यान में रखते हुए पेनांग बन्दरगाह से निकलते समय भोजन के मसालें-अचार आदि चीज़ें भी ले रखी थीं। अतः सुभाषबाबू को का़फ़ी अरसे के बाद दाल-चावल के अलावा अन्य भारतीय व्यंजन भी नसीब हुए। लेकिन कुछ ही समय में इस सुख को ‘ना’ कहने की नौबत उनपर आ गयी। वह हुआ यूँ कि जापानी सरकार अपने नौसैनिकों का का़फ़ी ख़याल रखती थी। परंपरागत जापानी मनुष्य दिन में चार बार भोजन करता था। यही सुविधा जापानी नौसेना की मुहिम पर रहनेवाले नौसैनिकों के लिए भी दी गयी थी। इसलिए पनडुबी पर अमल की जानेवाली परिपाटी के अनुसार उनके लिए भी दिन में चार बार भोजन आता था। पहले ही दिन इस इस अजीबोंग़रीब बात को देखकर सुभाषबाबू हैरान हो गये। एक तो, पनडुबी के प्रवास में, उसकी दोनों छोरों को जोड़नेवाले एक संकरे पॅसेज में से एक छोर से दूसरी छोर तक चलना, बस इतनी ही उनकी ‘क़सरत’ थी। अत एव, इतना सबकुछ खाना उनके लिए मुश्किल बन गया। इसलिए जब तीसरी बार भरीपूरी थाली उनके सामने आ गयी, तब ‘क्या इसे खाना ज़रूरी है’ यह उन्होंने चिन्तित होकर तेराओका से पूछा।

दूसरा दिन – २९ अप्रैल यह तो और भी मज़ेदार था – वह तत्कालीन जापानी सम्राट का जनमदिन था। इसलिए पनडुबी में किसी शाही पार्टी की तरह माहौल था। तरह तरह के जापानी व्यंजन, सुभाषबाबू के लिए ख़ास रूप में बनाये गये भारतीय व्यंजन अत्यधिक प्रमाण में बनाये गये थे।

सुभाषबाबू का मन तो इनमें से किसी भी बात में नहीं लग रहा था। कब यह पनडुबी का स़फ़र पूरा करके टोकियो पहुँचकर काम की शुरुआत करता हूँ, यह उनका दिल कह रहा था। वे उत्सुकतापूर्वक पनडुबी के दिशादर्शक यन्त्रों के निरीक्षण पढ़ते थे। आयसीएस के अध्ययन में इन सब बातों को सीखने के कारण, नौकानयन के उपकरणों द्वारा बताये जानेवाले निरीक्षण और नक़्शे में इनका तालमेल वे आसानी से बिठा सकते थे। पनडुबी भारत के दक्षिण से – हिन्द महासागर से ही आगे पेनांग जानेवाली थी। दो-चार दिनों में पनडुबी एक ऐसी जगह पहुँच गयी, जो पनडुबी के रास्ते में, भारत के दक्षिणी छोर से सबसे क़रीबी जगह थी। बीच में भले ही सैंकड़ों मील की दूरी क्यों न हों, लेकिन सुभाषबाबू स्वयं को भारतमाता के पास पाकर भावव्याकूल हो गये। उस बिन्दु पर पनडुबी के पहुँचते ही उन्होंने उत्तर की ओर देखकर वहाँ से स्थूल चक्षुओं से दिखायी न देनेवाली भारतमाता को प्रणाम किया। मन में बंकिमचन्द्रजी के ‘वन्दे मातरम्’ के सूर गूँजने लगे और ग़ुलामी की दर्दनाक ज़़ख्म से लहुलुहान हुई मेरी भारतमाता मेरी राह निहार रही है, इस सोच से उनकी आँखों में से आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा….

लेकिन पनडुबी को तो उसके उदर में स्थित व्यक्तियों की भावभावनाओं के साथ कोई लेनादेना नहीं था, इसलिए वह एकसमान गति से कहीं पर भी न रुकते हुए अपनी राह चल ही रही थी। सुभाषबाबू को कप्तान ने मार्ग की जानकारी दी थी। लेकिन पूर्वनियोजित योजना के अनुसार पेनांग की दिशा में आगे न बढ़ते हुए जब पनडुबी किसी और दिशा में ही मुड़ गयी, तब अचम्भित होकर सुभाषबाबू ने कप्तान के पास इस बारे में पूछा। कप्तान ने उन्हें बताया कि कुछ ही देर पहले पेनांग बन्दरगाह से रेडिओ पर यह सन्देश आया था कि ‘चन्द्रा बोस इस पनडुबी में से यहाँ आ रहे हैं, इस बात का बड़ा ज़ोरदार चर्चा चल रहा है और यहाँ पर अँग्रेज़ गुप्तचर भी बड़ी तादाद में सक्रिय हैं। इसलिए यहाँ आने का ख़तरा न मोल लेते हुए आप सीधे साबांग बन्दरगाह की ओर प्रस्थान कीजिए।’ और इसीलिए हमने अपना मार्ग बदल दिया है।

आगे बढ़ते बढ़ते पनडुबी ६ मई को साबांग पहुँच गयी।

८ फ़रवरी से लेकर ६ मई तक! ८८ दिन!

८८ दिन का जलप्रवास….उसमें सुबह-दुपहर-शाम-रात को डीज़ल की तीव्र गन्ध और इंजन की घरघर आवाज़, दिन का अधिकतर समय हाथ-पैर सिकुड़कर बैठने में बिताना, चारों ओर बस पानी और पानी….और वही हररोज़ के आठदस चेहरें….

अत एव ज़मीन पर कदम रखकर खुली हवा में साँस लेते हुए सुभाषबाबू एक नयी आज़ादी के एहसास को महसूस कर रहे थे। आख़िर पूर्वी एशिया में उन्होंने कदम रख ही दिया।

सचमुच, मानो यह ईश्वर ने ही उनके लिए निर्धारित किया हुआ स़फ़र था। वरना इतने धधकते हुए प्रतिकूल युद्ध के हालातों में, दुश्मन द्वारा पानी में कदम कदम पर बारूद बिछाये जाने के बावजूद भी, दुश्मन के निगरानी हवाई जहाज़ों द्वारा निरन्तर आसमान में गश्त लगाये जाने के बावजूद भी और ख़ौलते हुए सागर में एक पनडुबी में से दूसरी पनडुबी में स्थानान्तरित होने की आवश्यकता होने के बावजूद भी और मुख्य रूप से, उनके दुश्मन के पास उनके इस स़फ़र की पूरी जानकारी रहने के बावजूद भी….वे सहीसलामत अपने गन्तव्यस्थान तक पहुँच चुके थे।
साबांग बन्दरगाह पहुँचते ही जापानी पनडुबी के सभी अ़फ़सर और खलासियों ने पनडुबी के ड़ेक पर सुभाषबाबू के साथ आग्रहपूर्वक ग्रुप-फ़ोटो खींच ली।

प्रत्येक की कापी पर सुभाषबाबू ने हस्ताक्षर करके सन्देश लिखा था – ‘यह अनोख़ा हैरतंगेज़ जलस़फ़र मुझे हमेशा याद रहेगा!’
उनमें से हर एक ने अपनी अपनी कापी जान से भी ज़्यादा सँभालकर रखी….अपने बच्चों-पोतों से यह कहने के लिए कि ‘जी हाँ, उन महामानव के इस हैरतंगेज़ स़फ़र के हम भी गवाह थे!’

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