नेताजी-१६४

सुभाषबाबू बर्लिन लौटे, वह ग़ुस्से में ही। पहले ही २२ जून १९४१ को जर्मनी ने रशिया पर आक्रमण किया था, जिससे कि उनकी योजनाओं को मानो बारूद ही लग गया था। साथ ही, बर्लिन पहुँचते ही, मुसोलिनी मुझसे न मिलें इसलिए हिटलर द्वारा किये गये कारस्तानों की जानकारी भी उन्हें मिली। वे ख़ौलकर फौरन विदेश मन्त्रालय में गये। उनके उस ग़ुस्से को देखकर हक्केबक्के रह चुके वहाँ के कनिष्ठ कर्मचारियों ने, भला इस आँधी का सामना कौन करेगा, यह सोचकर उन्हें ठेंठ विदेश सचिव केपलर के पास भेज दिया। ग़ुस्से में इस मुलाक़ात में कुछ अनहोनी उत्पन्न न हों, इस उद्देश्य से ट्रॉट, रीथ आदि उनके जर्मन दोस्त भी दौड़कर उनके साथ केपलर के पास गये। बात से बात बढ़ती गयी। उसमें भी सुभाषबाबू को जर्मन भाषा की गहरी जानकारी न होने तथा केपलर की अँग्रेज़ी की जानकारी भी सीमित रहने के कारण ग़लत़ङ्गहमियाँ भी हुईं और केपलर के साथ उनका ज़ोरदार झगड़ा हुआ।

भारत स्थित बुद्धिवादियों पर रशिया का प्रभाव रहने के कारण और अँग्रेज़ों द्वारा पहले ही अपने प्रभावी प्रसारप्रचारतन्त्र के ज़रिये हिटलर को ‘जंगपरस्त आक्रमक’ के रूप में बदनाम किया था और इसी वजह से ‘जर्मनी द्वारा रशिया पर किया गया आक्रमण’ इस घटना के कारण भारत में जर्मनी को ‘दुश्मन’ के नज़रिये से देखा जायेगा, यह सुभाषबाबू ने केपलर से सा़फ सा़फ कहा। साथ ही, जर्मनी द्वारा अब भी भारत की स्वतन्त्रता को अपना अधिकृत समर्थन न दिया जाने के कारण, मैं जर्मनी में जो प्रयास कर रहा हूँ, वह भारतस्थित अँग्रेज़ी हुकूमत को हटाकर उसकी जगह जर्मनी की सत्ता लाना चाहता हूँ ऐसा प्रचार किया जायेगा, इस बात पर भी ग़ौर करने के लिए उन्होंने केपलर से कहा।

जर्मनी की राजधानी में जाकर ठेंठ फ्यूरर के फैसलों की ही आलोचना करने के कारण मुझे जर्मनी से सहायता मिलने की संभावना का अस्त हो सकता है या मुझे जेल भेजा जा सकता है, इस बात से सुभाषबाबू अनजान थे ऐसी बात नहीं थी। लेकिन ‘भारतीय स्वतन्त्रता’ के अपने ध्येय के सामने दुनिया की हर बात को ज़रासी भी अहमियत न देनेवाले सुभाषबाबू, उस ध्येय के ख़िला़ङ्ग जानेवाली किसी भी बात की परवाह नहीं करते थे। और रही बात जेल में सड़ने की, तो सुभाषबाबू का आदिमाता चण्डिका पर तथा खुद पर इतना असीम भरोसा था कि उनके शब्दकोष में ‘डर’ यह लब्ज़ ही नहीं था। इस अटूट विश्‍वास के बलबूते पर ही उन्होंने – जब जर्मन विदेश मन्त्रालय के कनिष्ठ अ़फसर के साथ चन्द कुछ ही दिनों पूर्व, प्रस्तावित ‘आझाद हिन्द रेडिओ केन्द्र’ की स्वायत्तता के मुद्दे पर से बहस छिड़ी थी, तब भी ‘जहाँ सर्वसमर्थ अँग्रेज़ी हुकूमत का बहुत ही कार्यक्षम रहनेवाला गुप्तचरविभाग मुझे भारत छोड़ने से नहीं रोक सका, वहाँ आपकी पुलीस भला मेरा क्या बिगाड़ेगी’ यह बात उस अ़फसर से सा़फ सा़फ कही थी।

सुभाषबाबू को गिऱफ़्तार करके उन्हें जेल भेज देना चाहिए, यह विचार पल भर के लिए केपलर के मन में आया तो था, लेकिन ‘बोसजी की ख़ातिरदारी विदेशी राजदूत की तरह की जाये’ यह स्वयं फ्यूरर का आदेश रहने के कारण उसके हाथ भी बँधे हुए थे।

मग़र तब तक इस सारे घटनाक्रम से बेहद बेचैन हो चुके सुभाषबाबू को दिलासा देने की दृष्टि से उनके जर्मन दोस्त काम में जुट गये थे। सुभाषबाबू ने विदेशों में रहकर की हुई कोशिशों में इन जर्मन दोस्तों का भी महत्त्वपूर्ण सहभाग था। उनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे – ट्रॉट। जर्मनी को पुनः गतवैभव के शिखर पर ले जाने के साथ साथ इस जर्मन देशभक्त ने सुभाषबाबू के ध्येय को भी अपना मक़सद मान लिया था और वह कई बार ‘आऊट ऑ द वे’ जाकर सुभाषबाबू की सहायता करता था।

इसके पीछे की वजह भी बड़ी अजीब थी। नाझी सरकार तथा नाझी पक्ष में सुभाषबाबू द्वारा निर्माण की गयी गुप्तचर यन्त्रणा द्वारा जब उन्हें यह समाचार मिला था कि हिटलर की हुकूमतपरस्त वृत्ति से ऊब चुका नाझी पक्ष स्थित ‘क्रेई सू’ नामक गुट हिटलर की हत्त्या करने की योजना भी बना रहा है, तब उनके होश उड़ गये थे। अब ज़ाहिर है कि जर्मनी में ख़ु़फिया पुलीस – गेस्टापो के ख़ौंफ के कारण कोई भी इस मामले की चर्चा खुलेआम करता भी कैसे? इसी वजह से इस गुट के नेता के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करना आसान नहीं था। लेकिन सुभाषबाबू के कान, आँखें निरन्तर चौकन्नी रहती थीं और मुख्य रूप से उनका दिमाग़ हमेशा सतर्क रहता था। इसीलिए बाहरी हालात, व्यक्ति और घटनाओं का अध्ययन वे निरन्तर करते रहते थे। इस तर्कशुद्ध (लॉजिक) प्रक्रिया द्वारा, ‘वह’ नेता कौन हो सकता है, इस गुत्थी को सुलझाते हुए सुभाषबाबू के मन में एक नाम स्थिर हो गया।

ट्रॉट….?

येस! ट्रॉट ही ‘वह’ नेता था। हिटलर के बहुत ही ख़ास अन्तर्गत गुट में रहने के बावजूद भी, हिटलर अपनी हुकूमतपरस्त मिजाज़ की वजह से जर्मनी को नर्क में धकेल रहा है, यह समझते ही जर्मनी को हिटलर के शिकंजे में से छुड़ाना यह उसका एकमात्र मक़सद बन गया था। सुभाषबाबू द्वारा अपनी तर्कसंगत प्रक्रिया के ज़रिये इस अनुमान तक पहुँचते ही, ठेंठ ट्रॉट के पास की गयी विचारणा से वह हक्काबक्का रह गया। गेस्टापो को भी जहाँ मुझपर अंशमात्र भी शक़ नहीं हो सका, वहाँ मेरे इस रहस्य को सुभाषबाबू ने भला कैसे जान लिया, यह देखकर वह दंग रह गया।

जर्मनी को हिटलर के चंगुल से छुड़ाने की धुन ट्रॉट के सिर पर सवार थी….

अपनी मातृभूमि को ब्रिटन के चंगुल से छुड़ाने की धुन सुभाषबाबू के सिर पर सवार थी….

दोनों का लक्ष्य एक ही था – अपनीअपनी मातृभूमि को उसके दुश्मन के चंगुल से मुक्त करना….

….और यहीं पर उनकी दोस्ती हो गयी और वे दोनों एकदूसरे के ‘आप्त’ बन गये। अब तक के महज़ आपसी औपचारिक (फॉर्मल) व्यवहार की जगह, अपने सुखदुख एकदूसरे के साथ बाँटना, प्राप्त हुईं ख़ु़फिया जानकारियाँ एकदूसरे को देना, युद्ध के निरन्तर बदलते रहे हालात के अनुसार अगला कदम क्या उठाना चाहिए इस मामले में एकदूसरे को प्रामाणिक सलाह देना, यह फर्क़ उनके व्यवहार में आ चुका था।

इसी ‘आप्तभावना के कारण’, सुभाषबाबू जब ग़ुस्से से आगबबूले होकर केपलर की केबिन में गये थे, तब वहाँ कुछ अनहोनी न हों, इस उद्देश्य से ट्रॉट भी उनके पीछे पीछे केबिन में दाखिल हो गया था। जर्मनी की राजधानी में पनाह लेने के बावजूद भी फ्यूरर के ही फैसले की आलोचना करने की जुर्रत करनेवाले सुभाषबाबू को जेल की सलाख़ों के पीछे डाल देना चाहिए यह विचार, सुभाषबाबू के केबिन से बाहर निकलते ही केपलर ने जब व्यक्त किया, तब ‘बोसजी की ख़ातिरदारी विदेशी राजदूत की तरह की जाये’ इस फ्यूरर के आदेश को ट्रॉट ने ही केपलर को याद दिलाया था और इसी वजह से मामला बिग़ड़ने से बच गया।

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