नेताजी-१७९

आख़िर सुभाषबाबू ने जर्मनी में कदम रखने के दिन से जिस उद्देश्य के लिए दिनरात एक करके मेहनत की थी, वह लक्ष्य उनके सामने आ गया था – तेरह महीनों के लंबे इन्तज़ार के बाद हिटलर ने उनसे मिलने की बात को क़बूल कर लिया और मुलाक़ात का दिन मुक़र्रर किया गया था – २९ मई, १९४२।

लेकिन यह तेरह महीनों की कालावधि सुभाषबाबू के लिए बिलकुल फ़िज़ूल ही साबित नहीं हुई। भारत में से अँग्रेज़ों के शिकंजे में से छूटने के बाद कई मुश्किलों का सामना करते हुए अ़फ़गानिस्तान से जब वे जर्मनी में दाखिल हुए थे, तब जर्मन शासकों की दृष्टि से महज़ ‘भारत से निर्वासित होकर जर्मनी में राजाश्रय लेनेवाले एक व्यक्ति’ इससे कुछ अधिक महत्त्व उनके प्रति नहीं था। केवल जाज्वल्य देशप्रेम, उनकी भारतमाता को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जक़ड़नेवाले अँग्रेज़ों के प्रति रहनेवाला बहुत सारा ग़ुस्सा, आदिमाता चण्डिका के प्रति रहनेवाली अटूट श्रद्धा और अपनी क्षमता के बारे में रहनेवाला गगनस्पर्शी आत्मविश्‍वास इनके अलावा सुभाषबाबू के पास भला और था भी क्या? लेकिन यही जमापूँजी उनके अगले स़फ़र की बुनियाद साबित हुई और शून्य में से शुरुआत करके इन तेरह महीनों में उन्होंने इस कदर अपने पैर जमा लिए कि हिटलर के लिए भी उन्हें नज़रअन्दाज़ करना मुमक़िन नहीं था। हिटलर की गुप्तचरयन्त्रणा उसे दुनिया भर की सारी जानकारी दे ही रही थी। इसलिए सुभाषबाबू जर्मनी में पनाह लेना चाहते हैं, यह ख़बर हिटलर तक पहुँचते ही, ज़ाहिर है कि उसने उनके बारे में सारी जानकारी इकट्ठा की थी। उसमें, भारतीय जनमानस ने गाँधीजी की बराबरी की जगह उन्हें दी है, यह जानते ही उसने, उन्हें जर्मनी में पनाह देते हुए भी अँग्रेज़ों के ख़िला़फ़ के प्रचारकार्य में उनका उपयोग करने की योजना बनायी थी और वह का़फ़ी हद तक क़ामयाब भी हुई होगी; क्योंकि उसके प्रचार-प्रसार विभाग के प्रमुख रहनेवाले उसके माहिर सहकर्मी गोबेल्स के ड़ायरी के पन्नें कुछ इस तरह बयान करते हैं –

‘बोस बड़ी ही होशियारी से क़ाम करते हैं। उन्हें यह समझाने में हमें क़ामयाबी मिली है कि उनके कार्य को पूरज़ोर गति मिलने की दृष्टि से, उनके द्वारा ब्रिटन के ख़िला़फ़ जंग का ऐलान किया जाना ज़रूरी है। जब वे इस तरह की घोषणा करेंगे, तब उस बात को जर्मन प्रसारमाध्यमों के द्वारा सर्वोच्च पब्लिसिटी कैसी दी जाये, इसपर हम ग़ौर करेंगे।’

लेकिन सुभाषबाबू को ‘विजनवास स्थित सरकार’ (‘गव्हन्मेंट-इन-एक्साईल’) के रूप में फ़िलहाल मंज़ूरी देने की कल्पना जर्मन शासकों को मंज़ूर नहीं थी, क्योंकि ‘इस तरह से घोषित किये गयीं विजनवास स्थित सरकारों के लिए जल्द से जल्द ठोस समर्थन जुटाना आवश्यक है; वरना उनका अस्तित्व महज़ कागज़ पर ही रहता है’ यह राय गोबेल्स ने एक जगह ज़ाहिर की थी। लेकिन इन तीनों अक्षराष्ट्रों द्वारा भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम तथा उनके इन कार्यक्रमों को खुलेआम समर्थन जब तक दिया नहीं जाता, तब तक हमारे द्वारा इस तरह की, ब्रिटन के ख़िला़फ़ युद्ध करने की घोषणा की जाना फ़िज़ूल ही है, यह सुभाषबाबू की राय थी; वहीं, युरोप और रशिया मुहिम में व्यस्त रहनेवाली हमारी सेना ने अब तक भारत तक का स़फ़र तय नहीं किया है और ऐसे हालात में इस तरह के खोख़ले समर्थन को ज़ाहिर करना और सुभाषबाबू को ‘विजनवास स्थित सरकार’ के रूप में मंज़ूरी देना महज़ बचकानी हरक़त साबित होगी, यह हिटलर का कहना था।

हालाँकि इस तरह की मंज़ूरी उन्हें जर्मनी ने नहीं दी, लेकिन बाक़ी बहुत सारी सहायता उन्हें जर्मनी द्वारा दी गयी।

लेकिन उसके बावजूद भी हिटलर के साथ प्रत्यक्ष रूप से मुलाक़ात न हो पाने पर, वे बहुत ही बेचैन हो रहे थे। प्रत्यक्ष मुलाक़ात में ही का़फ़ी सारे मसलों पर हिटलर को सहमत कराने में मुझे क़ामयाबी मिल सकती है, इस बात का सुभाषबाबू को यक़ीन था।

आख़िर यह मुलाक़ात तय हो ही गयी। सुभाषबाबू ने अपना ‘होमवर्क’ शुरू किया। वहाँ हिटलर ने भी अपना ‘होमवर्क’ शुरू कर दिया था। सुभाषबाबू के खाने-पीने की पसन्द-नापसन्द से लेकर भारत में घटीं उनसे सम्बन्धित घटनाएँ, परिस्थिति, उनके जीवन में घटे घटनाक्रम, जर्मनी में आने के बाद उनके द्वारा अब तक हुआ कार्य, उनकी माँगें इन सब बातों की ताज़ा ख़बरें (‘अपडेट्स’) के बारे में उसने पूछा। इस भारतीय नेता की ख़ातिरदारी में कोई भी क़सर नहीं रहनी चाहिए, ऐसे ‘ऑर्डर्स’ स्वयं हिटलर द्वारा दिये जाने के कारण वहाँ के अ़फ़सरों की भागदौड़ चल रही थी।

इस मुलाक़ात के लिए बर्लिन से दूर, पूर्वीय प्रशिया के रास्टेनबर्ग स्थित हिटलर के फ़ौजी हेडक्वार्टर्स इस स्थान का चयन किया गया था। उससे एक दिन पूर्व सुभाषबाबू, उनके लिए आयोजित किये गये एक ख़ास हवाई जहाज़ से वहाँ पहुँचे। उनके साथ ट्रॉट, केपलर आदि जर्मन विदेश मन्त्रालय के वरिष्ठ अधिकारी भी थे। रास्टेनबर्ग के हवाई अड्डे पर उनके स्वागत के लिए स्वयं जर्मन विदेश मन्त्री रिबेनट्रॉप, हिटलर के विशेष दूत बोरमन, साथ ही हिमलर, गोअरिंग आदि हिटलर के निकटवर्तीय माने जानेवाले विश्‍वासू सहकर्मी भी उपस्थित थे। हिटलर जिसे इतनी अहमियत देता है, वह ‘बोस’ नाम का यह शक़्स आख़िर है कौन, यह उत्सुकता उनमें से कइयों के मन में थी।

साथ ही, एक अन्य व्यक्ति को भी हिटलर द्वारा सूचित करने पर वहाँ बुलाया गया था। वह थे, म्युनिक विश्‍वविद्यालय में पढ़ानेवाले संस्कृत के प्राध्यापक प्रो. वुएस्ट! लोकमान्य टिळकजी ने ‘आर्यवंशियों का मूळ निवास स्थान’ इस विषय पर किया हुआ संशोधन, यह इन प्राध्यापक महोदय का ख़ास दिलचस्पी का विषय था! हिटलर को अपने अस्सल जर्मन वंश का गर्व तो था ही और जर्मन वंश ही मूल शुद्ध आर्य वंश है, यह उसका पसन्दीदा मत होने के कारण, इस विषय में संशोधन करनेवाले प्रो. वुएस्ट पर उसकी ख़ास ‘कृपादृष्टि’ थी और उसके ऑफ़िस में उनका कई बार आनाजाना रहता था।

पूर्व रात को रिबेनट्रॉप ने सुभाषबाबू के लिए एक ख़ास दावत का इन्तज़ाम किया था। हिटलर के वहाँ के सभी उच्च-अधिकारी इस दावत में शरीक़ हुए थे। लेकिन यह सब मेरा मन्तव्य, जर्मनी से रहनेवाली मेरी अपेक्षाएँ जानने के लिए हैं, यह बात सुभाषबाबू जानते थे।

उस रात उनकी प्राध्यापक महोदय के साथ अच्छी-ख़ासी गपशप हुई। ख़ासकर, आर्यवंशियों का मूल निवासस्थान और वे स्थलान्तरित होते होते कहाँ से कहाँ गये होंगे, इसके बारे में सुभाषबाबू ने प्राध्यापक महोदय के साथ चर्चा की।

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