नेताजी-१८३

विश्‍वयुद्ध के रंग हर घड़ी बदल रहे थे और उसके अनुसार सम्बन्धितों के पैंतरें भी। सुभाषबाबू वहाँ बर्लिन में, जर्मनी से जापान जाने के लिए पणडुबी की व्यवस्था कब होती है, इसके इन्तज़ार में थे और उसी समय भारत में कई घटनाएँ हो रही थीं।

२७ अप्रैल को इलाहाबाद में हुई काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में, गाँधीजी द्वारा अँग्रेज़ों को दिया गया ‘भारत छोड़ो’ का आरपार का इशारा प्रस्ताव के तौर पर मंज़ूर हुआ ही था। उसके बाद के अपने लेखन में भी गाँधीजी ‘स्वराज के लिए अब कब तक प्रतीक्षा करनी होगी’ यह सूर अलाप रहे थे। ‘उपनिवेशीय स्वराज, क्रमशः स्वराज’ इस शब्दजाल में भारतीयों को हमेशा ही फ़ॅंसाकर, ऐन वक़्त पर अपनी बात से मुक़र जानेवाले अँग्रेज़ सीधे तरी़के से देश छोड़कर जायेंगे, यह भ्रम अब सबके मन से मिट चुका था। गाँधीजी के मन में भी ‘आरपार के’ देशव्यापी आन्दोलन का वक़्त क़रीब आता जा रहा है, यह विचार भी दृढ़ होने लगा था।

उसके बाद ६ जुलाई को वर्धा में हुई काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में गाँधीजी ने अँग्रेज़ों को ‘छोडो भारत’ (‘क्विट इंडिया’) यह आदेश देने का एवं उसके लिए देशव्यापी आन्दोलन छेड़ने का अपना मानस ज़ाहिर किया था। आन्दोलन की मानसिक तैयारी न रहनेवाले कई नेताओं ने विरोधी भूमिका अपनायी। तब गाँधीजी ने ‘कार्यकारिणी यह सम्पूर्ण भारत नहीं है….यदि कार्यकारिणी आन्दोलन करने तैयार नहीं है, तो मैं ठेंठ भारतीय जनता को ही आवाहन करूँगा’ ऐसा कड़ा रवैया अपनाया। गाँधीजी के बिना काँग्रेस, यह संकल्पना ही किसी के मन में आ नहीं सकती थी। इसलिए इस प्रस्ताव में थोड़ेबहुत फ़ेरफ़ार करके कार्यकारिणी ने उसे पारित कर दिया।

उसी दौरान विख्यात अमरिकी पत्रकार लुई फ़िशर भारत आया था। उसने गाँधीजी का इन्टरव्ह्यू लिया। उस इन्टरव्ह्यू में उसने, सुभाषबाबू द्वारा तानाशाहों से सहायता लेने के मामले में गाँधीजी से सवाल पूछा, तब गाँधीजी ने उसे सुस्पष्ट रूप में – ग़ुलामी में रहनेवाले एशियाई देशों को विश्‍वयुद्ध के बाद स्वतन्त्रता बहाल करनेवाला; इंग्लैंड़-अमरीका द्वारा ही जनतन्त्र के नाम से दहाड़ लगाकर तैयार किया गया ‘अटलांटिक चार्टर’ ‘भारत को लागू नहीं होगा’ यह बेमुरौवत कहनेवालें चर्चिल की याद दिलायी और ‘इंग्लैंड़ और फ़ॅसिस्ट के बीच में अब क्या फ़र्क रह गया है’ यह खरी खरी सुनायी। साथ ही, गाँधीजी ने, ‘सुभाष का मार्ग हालाँकि मुझे पसन्द न भी हों, मग़र तब भी सुभाष की देशभक्ति औरों से रत्ती भर भी कम नहीं है’ यह फ़िशर से दृढ़तापूर्वक कहा और ‘देशभक्तों का देशभक्त’ (‘पॅट्रियॉट ऑफ़ पॅट्रियॉट्स’) यह कहकर सुभाषबाबू का गौरव किया।

उसके बाद ७ एवं ८ अगस्त १९४२ को गाँधीजी के प्रस्ताव को अन्तिम मंज़ूरी देने के लिए मुंबई के गोवालिया टँक में काँग्रेस महासमिति का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में लाखों उत्सुक भारतीय उपस्थित थे। सारा माहौल एक अनोखे ही आवेश से भर गया था। ८ अगस्त को अँग्रेज़ों को ‘चले जाव’ यह आदेश देकर गाँधीजी ने निम्न आशय का आवेगपूर्ण उत्कट भाषण किया –

‘मैं जीवन भर अहिंसा के मार्ग का पुरस्कार करते आ रहा हूँ और आगे भी करता ही रहूँगा। लेकिन अब इस अहिंसा के ‘हथियार’ को आरपार की लड़ाई के लिए उठाने का समय आ चुका है। मैं आज यहाँ अँग्रेज़ों से कह रहा हूँ कि तुम देश छोड़कर चले जाओ – चले जाओ! ‘हम यदि भारत छोड़कर जाते हैं, तो भारत में अ़फ़रात़फ़री मच जायेगी’ यह हौआ खड़ा करना अब छोड़ दो। हमारी बात हम देख लेंगे। मेरे देशवासियों, अब स्वतन्त्रता से रत्ती भर भी कुछ भी कम स्वीकार नहीं करेंगे। आज से हर एक भारतीय अँग्रेज़ साम्राज्यवादियों का हुक़्म बिलकुल भी न मानते हुए, स्वयं को आज़ाद ही मानें। आज से हमारा मन्त्र यही है – करेंगे या मरेंगे!’

९ अगस्त से देशभर में ‘चले जाव’ आन्दोलन शुरू हो गया। ९ अगस्त की भोर के समय ही गाँधीजी को ग़िऱफ़्तार किया गया, लेकिन उनके द्वारा दिखायी गयी राह से स्वतन्त्रतासूर्य को भारत के क्षितिज पर ले आनेवाली ‘पौं’ दिखानेवाला उषःकाल कबका हो चुका था। गाँधीजी के ‘करेंगे या मरेंगे’ इस मन्त्र से देश में चेतना की लहर दौड़ रही थी।

‘चले जाव’ आन्दोलन के तू़फ़ान से अँग्रेज़ों की सत्ता की नौका गोते खाने लगी थी। सन १८५७ के स्वतन्त्रतासमर से भी इस ‘अहिंसक’ आंदोलन का प्रहार का़ङ्गी तगड़ा था। ब्रिटीश प्रशासनयन्त्रणा के देशभर में सब जगह फ़ैले हुए छोटे-बड़े केन्द्र इस असहकार आन्दोलन के लक्ष्य बन गये थे। उत्स्फ़ूर्ततापूर्वक लोग आगे आकर सरकार के आदेश मानने से इनकार करके स्वयं को ग़िऱफ़्तार करवा रहे थे। आन्दोलकों के ‘जेल भरो’ से जेलें भर रही थीं।

इस आन्दोलन का नारा और उसे प्राप्त हो रही कल्पनातीत स़ङ्गलता देखकर वहाँ बर्लिन में सुभाषबाबू खुशी से झूम रहे थे। इसी बात के लिए तो वे पहले से आग्रहशील थे।

३१ अगस्त को ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ पर से किये गये भाषण में सुभाषबाबू ने निम्न आशय की बात कही – ‘स्वयं को भारतीय माननेवाले हर एक को इस आन्दोलन में शामिल होना चाहिए। देश के इतिहास की इस इम्तिहान की घड़ी में हर एक भारतीय को चाहिए कि वह स्वतन्त्रता मिलने तक जूझता रहे। विदेश जाकर ‘आज़ाद हिन्द सेना’ के माध्यम से भारत की ब्रिटीश हुकूमत पर आख़िरी प्रहार करने की कोशिशें मैं और मेरे जैसे ही कई लोग कर रहे हैं। हमपर उस उस सत्ता के हस्तक होने के आरोप हालाँकि किये जा रहे हैं, मग़र तब भी हमपर भरोसा रखिए कि देशहित के लिए घातक रहनेवाला कुछ भी हमारे हाथों नहीं होगा। यदि हम हस्तक हैं भी, तो वह स़िर्फ़ भारत के ही हैं। लेकिन हमारी कोशिशों को क़ामयाब बनाने के लिए हर एक भारतीय को इस आन्दोलन के माध्यम से, आपसी मतभेद भूलकर एकदिल होकर प्रयास करने ही चाहिए। हमें हमारी स्वतन्त्रता देशव्यापी वज्रनिग्रह एवं स्वावलंबन से ही प्राप्त करनी पड़ेगी, उसके लिए बाहर से चाहे कोई लाख कोशिशें भी क्यों न करें, वे अपर्याप्त (इनसफ़िशन्ट) ही साबित होंगी।

इस विश्‍वयुद्ध में ब्रिटीश साम्राज्य आख़िरी साँसें ले रहा है और अँग्रेज़ी हु़कूमत में रहनेवाले कई देशों में आज़ादी की जंग चल रही है। लंदन यह ‘दुनिया की राजधानी’ है, इस घमण्ड़ का चकनाचूर हो जाने की अन्तिम घड़ी क़रीब आ रही है। लेकिन उसका फ़ायदा भारत अपनी आज़ादी को हासिल करने की दृष्टि से यदि करना चाहता है, तो उसके लिए हर एक भारतीय का एक ही उद्देश्य रहना चाहिए – सर्वस्वसमर्पण!’

अब विश्‍वयुद्ध के धधकते पूर्वीय मोरचे पर कूद पड़ने की ऊर्मि सुभाषबाबू के मन में और भी ज़्यादा उमड़ने लगी।

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