नेताजी-१८५

एमिली और अनिता के साथ सन १९४२ का ख्रिसमस व्यतीत करके सुभाषबाबू व्हिएन्ना से बर्लिन लौट आये। नन्हीं सी अनिता के साथ गुज़ारे हुए वे दिन तो सुभाषबाबू के छोटे से गृहस्थाश्रमी जीवन के सर्वोच्च आनन्द का एक हिस्सा थे। उसकी बाललीलाओं को निहारने में उनका वक़्त कैसे बीत जाता था, इसका उन्हें पता ही नहीं चलता था। जब वे व्हिएन्ना में थे, उस वक़्त का हर एक पल एमिली ने तो बस जैसे अपने मन की एक महकते कोने में भरकर रख दिया था। सुभाषबाबू जब बर्लिन लौट रहे थे, तब अब फ़िर मुलाक़ात होगी भी या नहीं, इस आशंका से उनका दिल दहल गया था, लेकिन सीने पर पत्थर रखकर उन्होंने सुभाषबाबू से बिदा ली।

इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में १९४३ साल शुरू हो गया और बेसब्र हुए सुभाषबाबू ने अपने पूर्वी एशिया जाने के प्रयासों को पुनः तेज़ कर दिया। इसी दौरान पूर्व में हुए एक और घटनाक्रम से उनकी बेसब्री बढ़ गयी थी। पूर्वी एशिया में ‘इंडियन नॅशनल आर्मी’ (‘आयएनए’) का नेतृत्व कर रहे कॅप्टन मोहनसिंग को जापानी सरकार ने गिऱफ़्तार कर दिया था।

हुआ यूँ था कि जापान में लंबे अरसे से बस रहे राशबिहारी बोसजी के प्रति सभी स्वतन्त्रतासैनिकों में तथा खुद जापान में भी बड़े ही सम्मान की भावना थी। लेकिन उनके उस प्रदीर्घ वास्तव्य के कारण ही मोहनसिंग के मन में उनकी देशनिष्ठा के बारे में सन्देह उत्पन्न हो गया। जब जापान की शरण में आ रहे अँग्रेज़ी फौजों के, ‘आयएनए’ में दाखिल हो रहे भारतीय युद्धबन्दियों का आँकड़ा बढ़ने लगा, तब मोहनसिंग की महत्त्वाकांक्षा भी बेतहाशा बढ़ने लगी। हमें फौरन कुछ न कुछ करना चाहिए, ऐसा वे बार बार कहने लगे थे। लेकिन ‘आयएनए’ के इस शिवधनुष्य को सफ़लतापुर्वक उठाने का व़कूब केवल सुभाषबाबू में ही है, मोहनसिंग में वह क्षमता नहीं है, इस बात को राशबाबू, ‘आयएनए’ के अन्य वरिष्ठ सेनाधिकारी एवं जापानी फौजी अधिकारी भी भली-भाँति जानते थे। मोहनसिंग की देशभक्ति के बारे में किसी को भी तनिक भी सन्देह नहीं था। उनकी इस ज्वलन्त देशभक्ति के कारण ही मेजर जगन्नाथराव भोसले जैसे, सेना में अधिकार एवं अनुभव में उनसे काफ़ी वरिष्ठ रहनेवाले अधिकारी भी उनके हाथ के नीचे काम करने के लिए तैयार हुए थे। लेकिन देशभक्ति के बारे में आत्मीयतापूर्वक बोलना और देशकार्य में अधिक से अधिक क़ामयाब बनने के लिए उचित परिपक्वता के साथ कदम उठाना, ये दो अलग अलग बाते थीं। जल्दबाज़ी में उठाया गया ग़लत कदम ख़तरनाक़ साबित हो सकता था। इसीलिए राशबाबू उन्हें कई बार सब्र करने का परामर्श देते थे। लेकिन राशबाबू के इस परामर्श को मोहनसिंग राशबाबू की बढ़ती उम्र के साथ आयी हुई क़ायरता समझ बैठे थे। आगे चलकर तो मोहनसिंग का यह ‘राश-द्वेष’ इतना बढ़ गया कि राशबाबू को ‘जापानी एजंट’ कहने तक की हद उन्होंने कर दी। मेरी और मेरे सैनिक़ों की देश के लिए बलिदान करने की तैयारी होने के बावजूद भी राशबाबू हमें कुछ भी करने की इजाज़त नहीं देते, वे तो बस जापानी सरकार के हाथ की कठपुतली बन गये हैं, यही बात मोहनसिंग की ज़हन में बैठ गयी थी। यदि मेरी बात न मानी जाये, तो मैं ‘आयएनए’ बरख़ास्त कर दूँगा, यह धमकी भी वे बार बार दे रहे थे। आख़िर इस तनाव को न सहते हुए, दिसम्बर १९४२ के आसपास मोहनसिंग ने एक निवेदन प्रसृत करके, मैं ‘आयएनए’ बरख़ास्त कर रहा हूँ, यह घोषित भी कर दिया! दरअसल ‘आयएनए’ यह ‘इंडियन इंडिपेन्डन्स लीग’ (‘आयआयएल’) के अधिकारक्षेत्र का सैनिक़ी विभाग होने के कारण मोहनसिंग को ऐसा करने का अधिकार ही नहीं था। मोहनसिंग द्वारा उठाये गये इस कदम से अन्य बुज़ुर्ग सैनिक़ी अधिकारी ख़ौल उठे और उन्होंने मोहनसिंग का यह क़ाम ग़ैरक़ानूनी है, यह निवेदन ज़ाहिर कर दिया।

राशबाबू के बारे में मोहनसिंग के मन में कटुता पैदा होने की वजह थी, राशबाबू के ख़िला़फ मोहनसिंग के कान भरनेवाले कई लोग उस वक़्त थे। शुरू शुरू में राशबाबू के प्रति सम्मान की भावना रखनेवाले मोहनसिंग का मन राशबाबू के ख़िला़फ कलुषित करनेवालों में अग्रसर था एक कर्नल, जो हमेशा मोहनसिंग के साथ रहता था और मोहनसिंग को जापानी सरकार द्वारा दिये गये बंगले में ही डेरा जमाये बैठा था। शुरू शुरू में हालाँकि मोहनसिंग उसकी बातों पर ग़ौर नहीं करते थे, लेकिन आगे चलकर वह अपनी ‘कोशिशों’ में क़ामयाब हो गया। वह अँग्रेज़ों से मिला हुआ है, यह बात आगे चलकर सामने आयी। हालाँकि पहले से ही यह शक़ रहने के कारण जापानी गुप्तचर विभाग की उसपर कड़ी नज़र थी ही। साथ ही, प्रत्यक्ष सबूत भी मिल गया। रंगून मोरचे पर कुछ सैनिकों को भेजा गया था। इन सैनिकों का चयन इस कर्नल की श़िफारिश से ही किया गया था। वे सैनिक सीधे सीधे जाकर वहाँ की अँग्रेज़ सेना से मिल गये। वे अपने साथ उस इला़के के कुछ नक़्शें और अन्य संवेदनशील जानकारी भी ले गये थे, यह बात त़फतीश में सामने आ गयी। कर्नल की फोन पर हुई बातचीत को भी रिकार्ड़ किया गया था। पु़ख्ता सबूत मिलने के कारण उस कर्नल को जापानी सेना ने ग़िऱफ़्तार कर दिया। ‘आयएनए’ बरखास्त करके जापानी अधिकृत ध्येयनीति को विरोध करने के इलज़ाम में मोहनसिंग को भी जापानी सेना ने ग़िऱफ़्तार कर दिया। उनके सभी सैनिक़ी अधिकार रद कर दिये गये।

मोहनसिंग द्वारा की गयी ‘आयएनए’ की बरख़ास्ती को ‘आयआयएल’ द्वारा ख़ारिज़ कर दिया गया। सुभाषबाबू के पूर्वी एशिया आने तक मेजर जगन्नाथरावजी भोसले को ‘आयएनए’ का ज़िम्मा अस्थायी रूप से सौंपा गया। लेकिन इस मोहनसिंग वाक़ये के बाद, पूर्वी एशिया में से, ख़ासकर जापान की सहायता से चलाये जानेवाले भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की ओर देखने का, जापानी सेना का और सरकार का नज़रिया थोड़ा-बहुत दूषित ही बन गया। इस वाक़ये से और हानि न पहुँचें इसलिए राशबाबू सुभाषबाबू को पूर्वी एशिया जल्द से जल्द लाने के बारे में जापानी सरकार के पास राशबाबू तक़ाज़ा करने लगे। उसका उचित परिणाम भी हुआ ही और जर्मन सरकार के साथ समन्वय स्थापित करके फरवरी की शुरुआत में सुभाषबाबू को बर्लिन से पूर्वी एशिया में ले आने की बात तय हो गयी। सुभाषबाबू को पनडुबी द्वारा लाया जायेगा, यह बात भी निश्चित हो चुकी थी।

इसी दौरान सुभाषबाबू के सान्निध्य में कुछ समय बिताया जाये और उनके स़ङ्गर की ठीक से तैयारी भी की जाये, इस उद्देश्य से जनवरी के मध्य में एमिली बर्लिन आ गयी। लेकिन ये दिन भी किसी पंछी की तरह देखते देखते उड़ गये और आख़िर बिछड़ने की वह घड़ी क़रीब आने लगी!
८ फरवरी १९४३ यह ‘वह’ दिन मुक़र्रर किया गया था….

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