नेताजी- १७०

अ‍ॅनाबर्ग का शिविर बर्लिन से लगभग डेढ़सौ मील दूर था। उसमें ख़ासकर जर्मन सेनानी रोमेल की सेनाओं द्वारा अफ्रिका की मुहिम में परास्त किये गये अँग्रेज़ी फ़ौज़ के युद्धबन्दियों को रखा गया था। हालाँकि उनमें अधिकतर अँग्रेज़ों के लिए जंग लड़नेवाले भारतीय सैनिक ही थे, मग़र फिर भी ‘अफ़सर’ दर्जे के युरोपीय भी काफ़ी संख्या में थे।

जब सुभाषबाबू ने अनुमान करने के लिए वहाँ पर अबिद हसन आदि प्रतिनिधियों को भेजा, तब जर्मनों के ये टट्टू हमारा बुद्धिभेद करने के लिए भेजे गये हैं, यह ग़लतफ़हमी वहाँ के युद्धबन्दियों के मन में हो जाने के कारण, वहाँ जाते ही उन्हें कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन उन प्रतिनिधियों ने किसी भी प्रकार की तीव्र प्रतिक्रिया न देते हुए सामंजस्य का रवैया अपनाया, जिससे कि उन युद्धबन्दियों का विरोध घटकर उन्हें इन प्रतिनिधियों की प्रामाणिकता पर यक़ीन हो गया था।

Netaji

मग़र वे युरोपीय अफ़सर उन बेचारे अर्धशिक्षित जवानों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करके लगातार उनका बुद्धिभेद करने के कारस्तान कर रहे थे। ‘तुमने इंग्लैंड़ की रानी का नमक खाया है’ इस बात को बार बार याद दिलाते रहते थे। भारत में ‘जिसका नमक खाया है, उसके साथ नमकहरामी नहीं करनी चाहिए’ यह सबक बचपन से सिखाया जाता था और इसी वजह से उनका मन दुविधा में पड़ जाता था। दरअसल ग़लती उनकी नहीं थी। युद्ध की जब शुरुआत हुई, तब भारत में अधपेट या भूखे पेट रहनेवालों को चुनकर उन्हें रोज़ी-रोटी का लालच दिखाकर उस समय भारत में कई जगह प्रचलित रहनेवाली पद्धति के अनुसार ‘नमक की सौगन्ध’ दिलाकर अँग्रेज़ी सेना में भर्ती किया गया था। अत एव अब वे किसी भी प्रकार का संबंध न रहते हुए भी अँग्रेज़ों की लड़ाई लड़ रहे थे।

सुभाषबाबू के आने के एक दिन पहले अबिद ने उन युद्धबन्दियों से ‘कल सुभाषबाबू यहाँ पधार रहे हैं’ यह कहा।

‘सुभाषबाबू और यहाँ ?’ अविश्‍वास, आश्चर्य, आनन्द आदि संमिश्र भावनाओं की लहरें उठने लगीं। सुभाषबाबू के बर्लिन में दाखिल होने की ख़बर कोई नहीं जानता था। उसमें भी अँग्रेज़ सरकार इस मामले में असमंजसता को बढ़ाने के लिए जानबूझकर बीच बीच में ‘सुभाषबाबू के साधु के भेस में पकड़े जाने की’ या ‘सुभाषबाबू की हवाई जहाज़ दुर्घटना में मौत होने की’ ख़बरें ‘विश्‍वसनीय सूत्रों का हवाला देकर’ प्रसारमाध्यमों में से प्रसारित कर रही थी। इसी वजह से सुभाषबाबू यहाँ अ‍ॅनाबर्ग के शिविर में आ रहे हैं, यह सुनने के बाद वहाँ के भारतीय युद्धबंदियों को हुई खुशी यह अविश्‍वासमिश्रित थी।

….और इसी बात का फ़ायदा उठाकर वहाँ उनके साथ युद्धबन्दी बने हुए युरोपीय अफ़सरों ने उस रात को पुनः उनका बुद्धिभेद करना शुरू कर दिया। ‘‘अरे, सुभाषबाबू कहाँ, वे तो कबके रफ़ादफ़ा हो चुके हैं। उनकी कहीं कोई ख़बर नहीं है। कल तो उनका हमशकल आनेवाला है। इस दिखावे का शिक़ार मत हो जाना। ‘अँग्रेज़ राज’ के खाये हुए नमक को याद रखकर नमकहलाल बनो। इन जर्मन टट्टुओं का कारस्तान सफल मत होने देना। यदि तुम किसी भी प्रकार की गड़बड़ी करोगे, तो यह याद रखना कि तुम हमसे पंगा ले रहे हो। हम भारत में सँदेश भेजकर तुम्हारे घरबार पर कब्ज़ा कर लेंगे और तुम्हारे परिवार को भूखा मरना पड़ेगा’’ यह प्रचार हर बराक में करना उन्होंने शुरू कर दिया था।

आख़िर ‘वह’ दिन आ ही गया। उस शिविर में लकड़ियों से बनाया गया एक छोटा-सा सिनेमा थिएटर था। वहाँ पर सुभाषबाबू का भाषण आयोजित किया गया था। आसपास का इलाक़ा सुबह से ही युद्धबन्दियों की भीड़ से खचाखच भर गया था। अधिकतर लोग मन में उत्सुकता लिये वहाँ पर आ गये थे। साथ ही, हुल्लड़बाज़ी करने के उद्देश्य से विरोधक भी पूरी तैयारी के साथ आये थे। कुछ विरोधक तो अफ़रातफ़री फैलाने के मक़सद से थिएटर में भी दाखिल हो चुके थे।

सुभाषबाबू का वहाँ पर आगमन हुआ। उन्हें क़रीब से देखने भीड़ इकट्ठा हो गयी। उस भीड़ में से राह निकालते हुए किसी तरह उन्हें बन्दोबस्त में थिएटर ले जाया गया। वे भाषण करने खड़े हो गये। उन्होंने भाषण करना शुरू किया ही था कि पूर्वनियोजित योजना के अनुसार विरोधक ख़ाँसने की आवाज़ें निकालने लगे, लकड़ी से बनी फ़र्श पर जूतें पीटने लगे। विरोध में नारेबाज़ी करने लगे। वहीं, कुछ लोग ध्यान से उनका भाषण सुन रहे थे। इस बात से प्रोत्साहित होकर सुभाषबाबू ने विरोध की परवाह न करते हुए, जिस तरह स्वभावसिद्ध कीर्तनकार यदि उसके सामने एक श्रोता हो तब भी बड़ी खुशी के साथ कीर्तन करता है, उसी तरह शान्ति से सुननेवालों के लिए सुभाषबाबू ने अपना भाषण जारी रखा। जैसे जैसे विरोधियों की नारेबाज़ी बढ़ती गयी, वैसे वैसे सुभाषबाबू का स्वर भी चढ़ता गया।

सर्वप्रथम, ‘यदि अहिंसा से स्वराज मिलता, तो मैं यह मशक्कत कभी न करता’ यह साफ़ साफ़ कहते हुए सुभाषबाबू ने ‘आज़ाद हिन्द सेना’ की स्थापना करने के पीछे की भूमिका को स्पष्ट करना शुरू किया। आज़ादी कोई किसी को अपने आप बहाल नहीं करता, उसे संघर्ष करके ही प्राप्त करना पड़ता है, यह सुस्पष्ट रूप में कहा। ‘….और उसके लिए मुझे आपकी सहायता की ज़रूरत है। यदि जीत जाओगे, तो इतिहास में अमर हो जाओगे और यदि हार जाओगे, तो आँसू बहानेवाला कोई नहीं होगा। यह सभी का कार्य है, सबको मिलकर ही करना है’ यह समारोप करके सुभाषबाबू बैठ गये। उनके आवेश के सामने विरोधियों का स्वर कबका दब चुका था।

लेकिन कइयों के मन में कई शंकाएँ थीं – तऩख्वाह का क्या, पिछली नौकरी का क्या, पद क्या रहेगा वगैरा वगैरा। सुभाषबाबू ने किसी भी प्रकार का झूठा आश्‍वासन न देते हुए उनसे साफ़ साफ़ कहा- ‘अँग्रेज़ सरकार आपको नौकरी से निकाल देगी और तुम्हारे सारे अधिकारों को रद कर देगी। हम भी कुछ ज़्यादा तो दे नहीं सकते। इस कार्य में कठिनाइयाँ ही ज़्यादा हैं। उन्हें सहने की तैयारी जिसकी है और जो काम को ‘अपना’ मानता है, वही उसमें शामिल हो। लेकिन एक बाद याद रखिए, मैंने और आपने परतन्त्रता में, फ़िरंगियों की ग़ुलामी में भले ही जन्म लिया हो, लेकिन यदि इस कार्य में हम क़ामयाब हो जाते हैं, तो कम से कम हमारे बेटे-पोते को आज़ाद हिन्द में जन्म लेंगे और अपनी स्वतन्त्र मातृभूमि में सीना तानकर विकासपथ पर से आगे चलेंगे।’

सुभाषबाबू को जो कहना था, वह उन्होंने कह दिया था। अब फैसला करना था उपस्थितों को। फ़ौरन वहाँ पर कुछ ख़ास प्रतिसाद तो नहीं मिला, लेकिन सुभाषबाबू हार माननेवालों में से नहीं थे। उन्होंने, चाहे जो भी हो जाये लेकिन अ‍ॅनाबर्ग की बाज़ी जीतनी ही है, इस निर्धार के साथ वहाँ पर कदम रखा था। इसीलिए वहीं पर कम से कम दो-तीन दिन तक डेरा डालने का फैसला उन्होंने कर लिया।

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