कानपुर

गंगा नदी यह पूरे भारत देश के लिए अत्यधिक पवित्र है। इस गंगा नदी के आध्यात्मिक महत्त्व के साथ-साथ ही उसका भूगोलीय दृष्टिकोन से भी महत्त्व है। हिमालय से बहनेवाली इस गंगा नदी ने उसके तीर पर हजारों मानवों के निवास के लिए कईं अनुकूलताओं का निर्माण किया। और इस गंगा नदी के तीर पर सैंकड़ों गॉंव और शहर बस गये और सम्पन्न हुएँ।
ऐसी इस गंगा नदी के तीर पर उत्तर भारत का एक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र ‘कानपुर’ बसा हुआ है। कानपुर शहर की स्थापना के विषय में कईं मत हैं। सचेंदी नामक रियासत के हिन्दु राजा चन्देल ने इस शहर की स्थापना की, ऐसा एक मत है। वहीं दूसरे मत के अनुसार यह कृष्णकन्हैयाजी का गाँव था और कन्हैयाजी या कान्हाजी के नाम से ही इस नगर को ‘कन्हैयापुर’ नाम से सम्बोधित किया जाता था। आगे चलकर इस ‘कन्हैयापुर’ नाम का संक्षेप होकर वह ‘कान्हापुर’ बन गया और कुछ समय बाद यह नगर ‘कानपुर’ इस नाम से जाना जाने लगा। अंग्रेजों के द्वारा यहाँ पर उनकी सत्ता स्थापित करने के बाद उन्होंने अपनी उच्चारण की आदत के अनुसार कानपुर का ‘कवानपोर’ इस तरह उच्चारण करना शुरू किया। अर्थात् यह उच्चारण केवल अंग्रेजों तक और उनके काल तक ही सीमित रहा। हर एक भारतीय इस शहर को ‘कानपुर’ नाम से ही सम्बोधित करता है।

Bithur_Kanpur 9 Sept

इस ‘कानपुर’ नाम के सन्दर्भ में महाभारत के समय की एक घटना का उल्लेख किया जाता है। अर्जुन के प्रतिद्वन्द्वी कर्ण को दुर्योधन ने इस विभाग के राजा के रूप में नियुक्त किया और आगे चलकर कर्ण के नाम से यह नगर ‘कर्णपुर’ नाम से जाना जाने लगा। और मगर कुछ साल पश्चात् कर्णपुर का कानपुर में रूपान्तरण हो गया। ऐसे हैं, कानपुर के नामकरण के विषय में भिन्न-भिन्न मत।

ऊपर दिये गये सन्दर्भों के अलावा १३वी सदी तक कानपुर शहर का इतिहास में नामोल्लेख नहीं है। लेकिन यदि कानपुर का उल्लेख ना भी मिलता हो, तब भी कानपुर के ‘बिठूर’ और ‘जाजमाऊ’ इन दो उपनगरों के बारे में ऐतिहासिक उल्लेख प्राप्त हुए हैं।

कानपुर शहर से ८ कि.मी. पूरब की ओर बसा है जाजमाऊ। इस जाजमाऊ में एक पहाड़ी है। पुराने जमाने में यह एक क़िला था। इस स्थान पर की गई खोदाई से अन्वेषकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि यह विभाग बहुत प्राचीन है, सम्भवतः यह विभाग वेदकाल से सम्बन्धित हो सकता है। एक कथा के अनुसार यह प्राचीन क़िला चन्द्रवंशी राजा ययाति का हो सकता है।

बिठूर यह उपनगर कानपुर शहर से २० कि.मी. की दूरी पर है। पुराणों के अनुसार सृष्टि-उत्पत्ति करने के तुरन्त बाद ही ब्रह्माजी ने इस स्थान पर अश्‍वमेध यज्ञ किया और वहॉं शिवलिंग की स्थापना की। यह बिठूर ‘ब्रह्मावर्त’ के नाम से भी जाना जाता है। वहीं पौराणिक सन्दर्भ यह भी प्रतिपादित करते हैं कि वाल्मीकि ऋषि का आश्रम यहॉं पर था और यहीं पर उन्होंने रामायण की रचना की।

इसवी १२०७ में प्रयागस्थित राजा कान्तिदेव, जो कन्नौज की राजगद्दी से जुड़े हुए थें, उन्होंने ‘कोहना’ नामक गॉंव बसाया, जो आगे चलकर कानपुर नाम से जाना जाने लगा। हर्षवर्धन, भोज, मिहिर, जयचंद के काल में कानपुर के कन्नौज के साथ सम्बन्ध थें। आगे यहॉं जौनपुर और सूर राजघराने का वर्चस्व स्थापित हुआ। इसवी १५७९ में शेरशहा के शासनकाल में कानपुर का प्रथम उल्लेख प्राप्त होता है। आगे १८वी सदी के पूर्वार्ध तक इस शहर को नजरअन्दाज किया गया। इसवी १७७३ से १८०१ तक यह शहर अवध राज्य में समाविष्ट था। मई १७६५ में शुजाउद्दौला इस अवध के नवाब को अंग्रेजों ने परास्त कर दिया। १८०१ में तो यह शहर पूरी तरह अंग्रेजों के कब्जे में चला गया। अवध का नवाब सादत अली खान और अंग्रेजों के बीच १८०१ में हुई सुलह के अनुसार कानपुर पर अंग्रेजों का राज स्थापित हो गया। उससे पहले ही युरोपीय व्यापारियों ने कानपुर में अपना डेरा जमाना शुरू किया था। उनके जान-माल की रक्षा के लिए अवध की फौजों को इसवी १७७८ में कानपुर में तैनात किया गया।

Jajmau_Kanpur 9 Sept

अंग्रेजों ने इस शहर की फौजी महत्त्वपूर्णता को पहचाना और बहुत ही कम समय में कानपुर अंग्रेजों का भारतस्थित एक महत्त्वपूर्ण फ़ौजी थाना बन गया। २४ मार्च १८०३ को अंग्रेजों ने कानपुर को जिले का दर्जा दिया।

१८५७ के भारतीय स्वतन्त्रतायुद्ध की एक चिंगारी कानपुर में भी गिरी। फ़ौजी थाना होने के कारण अंग्रेजों ने उनकी फ़ौज का इन्तजाम कानपुर में किया हुआ था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठों के पेशवा बाजीराव-२ इन्हें बिठूर इस स्थान पर निर्वासित किया था। पेशवा ने धोंडोपन्त नाम के एक लड़के को गोद लिया और यह लड़का नानासाहब के नाम से पहचाना जाने लगा। इस तरह नानासाहब यह पेशवा के वारीस बनें। नानासाहब के तात्या टोपे नामक मित्र थें और अझिमुल्ला खान नामक दिवान भी उनकी सेवा में थें। नानासाहब को अंग्रेजों ने पेशवों का वारीस मानने से इन्कार कर दिया। जनरल व्हीलर के अधिपत्य में काम करनेवाले कानपुर के सैनिकों ने विद्रोह किया। और इन सैनिकों का नेतृत्व नानासाहब ने अपने हाथ में ले लिया। वास्तव में देखा जाय, तो शुरुआत में नानासाहब की अंग्रेजों से शत्रुता नहीं थी, लेकिन उन्हें वारीस न माने जाने की बात उन्हें खटक रही थी। इन सैनिकों ने लगभग ३ हफ्तों तक अंग्रेजों को घेर लिया था। अन्ततः नानासाहब की शर्तों को मानने के अलावा व्हीलर के पास और कोई चारा नहीं था। लेकिन उनके बीच की शर्तों के अनुसार अंग्रेज आसानी से अलाहाबाद तक पहुँच सके, यह तय हुआ था। उसके अनुसार पास ही के सत्तीचौरा घाट पर अंग्रेज उनके शस्त्रास्त्रों के साथ निकल पड़े। उन्हें अलाहाबाद पहुँचाने के लिए नावों की व्यवस्था की गयी थी। लेकिन इन सारी घटनाओं के दरमियान कहीं से बिगुल की आवाज हुई और उसके बाद घमासान जंग छिड़ गई। इस घमासान जंग में और बाद में भी कईं अंग्रेज मारे गये। इस पूरी घटना का बदल लेने की भावना से नील नामक अंग्रेज जनरल ने कानपुर पर कब्जा करते ही, वहाँ के नागरिकों पर अनन्वित अत्याचार किये और उनका कत्ल किया। कुछ इतिहासकारों की यह राय है कि इस सत्तीचौरा घाट की जंग में जिंदा बचे हुए अंग्रेजों को बन्दी बनाया गया। अंग्रेज फ़ौज पुनः कानपुर पर कब्जा करने से पहले इन बन्दियों के बारे में कुछ फ़ैसला करने से विद्रोही सैनिकों ने इन्कार कर दिया। लेकिन स्थानीय कसाइयों द्वारा यह काम किया गया। इस तरह बिगुल की केवल एक आवाज ने कईं मनुष्यों के जीवन को खत्म कर दिया।

कानपुर अंग्रेजों के कब्जे में आते ही नानासाहब गायब हो गये। तात्या टोपे के द्वारा नवम्बर १८५७ में कानपुर पर फ़िर से कब्जा करने की कोशिश की गई, लेकिन वह नाकाम रही।
उत्तर भारत का महत्त्वपूर्ण औद्योगिक केन्द्र कानपुर, २०वी सदी में ‘भारत का मँचेस्टर’ इस नाम से जाना जाता था। कपड़ा उद्योग में उस समय कानपुर अग्रसर माना जाता था। १८५७ के बाद कानपुर भारत के चर्मोद्योग एवं वस्त्रोद्योग का महत्त्वपूर्ण शहर बन गया। १८६० में ङ्गौज को खोगीर और बख्तर की पूर्ति करनेवाली कंपनी की शुरुआत हुई। कानपुर में १८६२ में कपास से कपड़ा बनानेवाली पहली मिल की स्थापना की गयी। इस तरह केवल वस्त्र ही नहीं, बल्कि चर्मोद्योग, तेल, फ्लोर मिल इनसे सम्बन्धित उद्योगों की यहाँ शुरुआत हुई। भारत के चर्मोद्योग व्यवसाय से सम्बन्धित एक महत्त्वपूर्ण शहर के रूप में कानपुर आज भी जाना जाता है।

कानपुर का स्थान केवल उद्योग क्षेत्र से ही जुड़ा हुआ नहीं है, बल्कि साहित्य के क्षेत्र में भी इस शहर ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। यह शहर कईं प्रख्यात कवियों का जन्मस्थल है। ‘नीरज’ इस नाम से हिन्दी फिल्मों के गीत लिखनेवाले और ‘विजयी विश्‍व तिरंगा प्यारा। झँडा ऊँचा रहे हमारा।’ इस गीत के रचनाकार कानपुर से ही हैं।

IIT Kanpur_9 Sept

आज के विज्ञानयुग में कानपुर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शिक्षा संस्थान से जुड़ा हुआ है और वह शिक्षा संस्थान है, आय.आय.टी. (इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी) कानपुर। साथ ही हरकॉर्ट बटलर टेक्नॉलॉजिकल इन्स्टिट्यूट (एच.बी.टी.आय.) इस शिक्षा संस्थान से भी कानपुर का नाम जुड़ा हुआ है।

आय.आय.टी. कानपुर की स्थापना १९५९ में हुई। शुरुआत में एच.बी.टी.आय. में इनकी क्लासें होती थीं। १९६३ में यह शिक्षा संस्थान उसके वर्तमान स्थान पर कार्यान्वित हुआ।
आय.आय.टी. कानपुर यह भारत का पहला शिक्षा संस्थान है, जहाँ पर कॉम्प्युटर सायन्स की शिक्षा का आरम्भ हुआ। अगस्त १९६३ में आय.बी.एम. १६२० नामक सिस्टीम पर शुरुआती कॉम्प्युटर कोर्स का आरम्भ हुआ। इस तरह भारत में सर्वप्रथम कॉम्प्युटर सायन्स की शिक्षा का प्रारम्भ करने का श्रेय इस संस्थान को प्राप्त होता है।

सर स्पेन्सर हरकॉर्ट बटलर के द्वारा जिसकी नींव रखी गयी, वह ‘हरकॉर्ट बटलर टेक्नॉलॉजिकल इन्स्टिट्यूट’ नामक संस्थान यह भारत का सबसे पुराना एवं बेहतरीन इंजिनियरींग कॉलेज है। इसवी १९२१ में इसकी नींव रखी गयी और तब इसका नाम ‘गव्हर्न्मेंट टेक्नॉलॉजिकल इन्स्टिट्यूट’ रखा गया। आगे चलकर इसवी १९२६ में इसका नाम ‘हरकॉर्ट बटलर टेक्नॉलॉजिकल इन्स्टिट्यूट’ रखा गया। इस इन्स्टिट्यूट के पहले प्रिन्सिपल थें, यशवंत दत्तात्रेय आठवलेजी।

किसी समय शायद कृष्णकन्हैयाजी का गाँव रहा हुआ, भारतीय स्वतन्त्रतायुद्ध की ज्वाला जहाँ भड़की, ऐसे इस शहर ने उद्योग, साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में निश्चित ही अपने कर्तृत्व की मुहर लगाई है।

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