८९. पहली कसौटी तथा उपाययोजना

लेकिन युनो ने किये विभाजन में, ज्यूधर्मियों के हिस्से में बहुत ही कम ऊपजाऊ या ख़ेतीयोग्य ज़मीन आयी थी, बाकी कुल मिलाकर शुष्क रेगिस्तानी ज़मीन ही थी।जन्मते ही अरब राष्ट्रों के साथ घमासान युद्ध का सामना करना पड़े हुए इस्रायल की स्थिति, उस युद्ध को जीतकर भी कुछ अच्छे नहीं थे। एक तो युद्ध का खर्च प्रचण्ड हुआ था। राष्ट्र के सभी संसाधनों पर काफ़ी बोझ पड़ गया था। उसीमें, इस्रायल में स्थलांतरित होनेवाले ज्यूधर्मियों की संख्या दिनबदिन बढ़ती ही चली जा रही थी। उनके पुनर्वास का भी विचार करना अनिवार्य था। बेन-गुरियन ने इस्रायल की स्वतन्त्रता की घोषणा करते समय, इस्रायल को ‘ज्यूधर्मियों का हक़ का घर’ ऐसे संबोधित किया था, लेकिन उसे अब सच करने के लिए अफाट परिश्रम करने पड़नेवाले थे।

ऐसी पूरी तरह प्रतिकूल परिस्थिति में इस्रायल ने अपने पहले लड़खड़ाते कदम उठाने की शुरुआत की। लेकिन कदम कदम पर लड़खडाकर गिरने की नौबत आयें, इतनी समस्याएँ कदम कदम पर खड़ीं हो रही थीं।

सर्वप्रथम इस ज्यू स्थलांतरितों की धारा के कारण इस्रायल की जनसंख्या २-३ सालों में ही दुगुनी होने जा रही थी….लेकिन उपलब्ध संसाधन तो वही और उतने ही थे!

रेशनिंग के दौर में जीवनावश्यक वस्तुओं के लिए इस्रायली नागरिकों की इस तरह क़तारें दूकानों के बाहर लगती थीं।

साथ ही, ये सभी स्थलांतरित ज्यूधर्मीय हालाँकि मूलतः ‘ज्यूधर्मीय’ थे, मग़र फिर भी अलग अलग हालातों से, पार्श्‍वभूमियों से आये थे। वे दुनिया के जिस किसी स्थान से आये थे, वहाँ उनकी कई पीढ़ियाँ बसने के कारण उस स्थान की संस्कृतियों के और रीतिरिवाज़ों के संस्कार उनपर हुए थे और वह अपने अपने इन संस्कारों को लेकर आग्रही थे। उसीके साथ, बायी विचारधारा के, समाजवादी, कट्टर धार्मिक ऐसीं सभी विचारधाराओं के ज्यूधर्मीय भी थे। उन सबको ‘एकसमान ज्यूधर्मीय’ बनाना, यह अपने आप में एक बहुत ही बड़ी चुनौती थी। डेव्हिड बेन-गुरियन जैसे मज़बूत, आग्रही, वास्तववादी और हालाँकि थोड़ासा बायी समाजवादी विचारधारा की ओर रूख था, फिर भी केवल राष्ट्रहित को मद्देनज़र रखते हुए सबको साथ लेकर जानेवाले मध्यममार्गी नेतृत्व के कारण ही इस चुनौती का काफ़ी हद तक सामना किया जा सका।

लेकिन युद्ध के कारण सरकारी तिज़ोरी खाली हो चुका इस्रायल, इन सबके लिए आवश्यक ऐसा प्रचंड पैसा कहाँ से लानेवाला था? दुनिया के कोने कोने से ज्यूधर्मियों से सहायता तो आ रही थी, लेकिन इस संकट का स्वरूप ही इतना महाप्राय था कि वह सहायता पर्याप्त नहीं थी। किसी अमीर, विकसित देश के लिए भी इसका सामना करना मुश्किल पड़ जाता, वहाँ इस नवजात, जेब में पैसा न होनेवाले इस्रायल राष्ट्र के लिए तो यह नामुमक़िन सी बात थी। युद्ध के कारण पहले से ही डाँवाडोल हो चुकी अर्थव्यवस्था अधिक ही ढ़हने लगी। परिणामस्वरूप धीरे धीरे जीवनावश्यक वस्तुओं की कमी महसूस होने लगी, बेरोज़गारी बढ़ने लगी। विदेशी मुद्रा के रिझर्व्हज़् भी तेज़ी से कम होते जा रहे थे। निर्यात आयात की एक-तिहाई तक आ पहुँची। सन १९५१ ख़त्म होने तक विदेशी बँकों तथा गॅसकंपनियों ने भी कर्ज़ा देना लगभग बन्द कर दिया था।

इसपर उपाय के रूप में सर्वप्रथम ‘ऑस्टेरिटी मेझर्स’ अर्थात् मितव्ययिता के उपायों को अमल में लाने का निर्णय लिया गया। इन ऑस्टेरिटी मेझर्स में – सरकारी और सामाजिक स्तरों पर फ़ज़ूलखर्ची को टालना, साथ ही, जीवनावश्यक एवं अन्य वस्तुओं का नियंत्रित और समान वितरण (‘रेशनिंग’) इन जैसे ‘उपायों का’ समावेश था।

शुरू शुरू में तो केवल तेल, शक्कर, मक्खन इन जैसे खाद्यपदार्थों का ही रेशनिंग किया जाता था; लेकिन बाद में हालातों का जायज़ा लेकर फर्निचर, जूतें इन जैसी वस्तुओं को भी इस यंत्रणा के दायरे में लाया गया। एक नागरिक को एक महीने में, तत्कालीन मुद्रा के मूल्य के हिसाब से ६ इस्रायली पौंड क़िमत के खाद्यकूपन दिये जाते थे, जिनमें से प्रतिदिन अंदाज़न् १६०० कॅलरीज् पेट में जायें इतना खाना मिल सकता था। यदि छोटे बच्चें, बुज़ुर्ग और गर्भवती महिलाएँ घर में हों, तो अधिक अनाज का प्रबंध किया जाता था।

इन ऑस्टेरिटी मेझर्स पर ग्रासरूट लेवल तक ठीक से अमल किया जा रहा है या नहीं, इसकी देखरेख करने के लिए ‘मिनिस्ट्री ऑफ रेशनिंग अँड सप्लाय’ इस नये विभाग का निर्माण किया गया। उसीके साथ, कहीं इन वस्तुओं का ‘कालाबाज़ार’ (ब्लॅकमार्केटिंग) तो नहीं हो रहा है, इसपर नज़र रखने के लिए ब्लॅकमार्केटविरोधी स्वतंत्र विभाग की भी स्थापना की गयी थी।

मार्केट में खोले गये कालाबाज़ार-प्रतिबंधक ऑफिस में तैनात अधिकारी नागरिकों की शिकायतों पर व्यक्तिशः ग़ौर करते थे।

लेकिन मितव्ययिता करके फ़ज़ूलखर्ची भले ही टाली गयी हो, आय तो बढ़ नहीं रही थी, मग़र ज्यू स्थलांतरितों का ताँता तो जारी ही था। रेशनिंग यंत्रणा पर अतिरिक्त तनाव आने लगे था। लेकिन ऐसा था, फिर भी इन ऑस्टेरिटी मेझर्स के कारण ही इस्रायली लोगों का जीवनमान कम से कम किमान स्तर पर तो टिका रहा, ऐसा कहना बेबुनियाद नहीं होगा। इतना ही नहीं, बल्कि इस दौर में इस्रायल में आये स्थलांतरितों के प्रचंड रेले का पुनर्वास करने में भी इस्रायली सरकार काफ़ी हद तक सफल रही।

लेकिन आर्थिक दृष्टि से यह उपाययोजना नाक़ाम ही साबित हुई। बेरोज़गारी बड़ी मात्रा में बढ़ गयी, महँगाई बढ़ गयी, सरकार पर कर्ज़े का पहाड़ तैयार हो गया। बँकों के कर्ज़ों पर सबकुछ जैसे तैसे चल रहा था।

यह उपाययोजना काफ़ी समय तक व्यवहार्य साबित होनेवाली नहीं थी। फिर इस मामले में बेन-गुरियन ने एक अलग ही विचार प्रस्तुत किया।

ये सभी ज्यूधर्मीय मूलतः इस्रायल में लौट ही क्यों रहे थे? क्योंकि वे जहाँ कहीं भी थे, वहाँ उन्हें समाज से धुत्कार, अनन्वित पीड़ा, वांशिक भेद सहना पड़ रहा था। इनमें से सबसे अधिक पीड़ा युरोप से आये ज्यूधर्मियों को, ख़ासकर जर्मनीस्थित ज्यूधर्मियों को सहना पड़ा था। कॉन्सन्ट्रेशन कँप्स आदि से बचे हुए ज्यूधर्मियों की, वहाँ होनेवाली मालमत्ता, गहनें, पैसा वगैरा को ज़ब्त किया जाकर, उन्हें केवल पहने हुए कपड़ों पर वहाँ से निकाल बाहर किया गया था।

डेव्हिड बेन-गुरियन जैसे मज़बूत, आग्रही, वास्तववादी आणि और सबको साथ ले जानेवाले मध्यममार्गी नेतृत्व के कारण ही नवराष्ट्रगठन की चुनौती का काफ़ी हद तक सामना किया जा सका।

दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद हालात बदल गये थे और युद्ध हारे हुए जर्मनी का पूर्वी तथा पश्‍चिम जर्मनी इन दो देशों में विभाजन किया गया था। पूर्वी जर्मनी सोव्हिएत रशिया के अधिकार में होकर वहाँ कम्युनिस्ट विचारधारा की, सोव्हिएतपरस्त सरकार सत्ता में आयी थी। वहीं, पश्‍चिम जर्मनी पर अमरीका, ब्रिटन और फ्रान्स इन पूँजीवादी पश्‍चिमी राष्ट्रों का नियंत्रण था। पश्‍चिम जर्मनी इन राष्ट्रों की देखरेख में तेज़ी से प्रगतिपथ पर चल रहा था। इतना ही नहीं, बल्कि महायुद्धपूर्वकाल में जर्मनी में ज्यूधर्मियों पर नाझी प्रशासन द्वारा जो अत्याचार किये गए, उसके बारे में जर्मनी के सर्वोच्च सरकारी स्तर पर से भी ज़ाहिर खेद व्यक्त किया जाने लगा था।

ये सारे बदले हुए हालात और ऑस्टेरिटी मेझर्स की अपर्याप्तता इनका एकत्रित विचार कर फिर बेन गुरियन ने अपनी व्यवहारिक और वास्तववादी योजना प्रस्तुत की।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

 

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