९५. कृषिसंशोधन

विद्यमान जागतिक जनसंख्यावृद्धि के रेट को देखते हुए, आनेवाले कुछ सालों में दुनिया की आबादी १० अरब तक जा पहुँचेगी, ऐसा डर अभ्यासक व्यक्त कर रहे हैं। इसलिए इस आबादी को जीने के लिए आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता भी धीरे धीरे कम होती जायेगी, यह बात भी ज़ाहिर है।

उसीके साथ – संसाधनों की फ़ज़ूलखर्ची, विभिन्न स्तरों पर लापरवाही के कारण होनेवाले रिसाव (लीकेजेस्) ऐसे कई कारणों से, उपलब्ध संसाधन भी घटते जायेंगे।

साथ ही, ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ जैसी समस्याओं को मद्देनज़र करते हुए, निसर्गमान भी धीरे धीरे अधिक से अधिक प्रतिकूल होता जा रहा है। ऐसे समय, उपलब्ध संसाधनों का मितव्ययिता से इस्तेमाल करने की ज़रूरत प्रतिपादित की जा रही है;

और ‘उपलब्ध संसाधनों का मितव्ययिता से इस्तेमाल’ कहा जाये, तो पहला उदाहरण दिया जाता है इस्रायल का!

हमने देखा ही है कि आधुनिक इस्रायल के जन्म के समय मानवीय और नैसर्गिक ऐसी लगभग हर परिस्थिति ही इस्रायल के लिए प्रतिकूल थी। सीधीसादी खेती का ही उदाहरण लें, तो कम पर्जन्यमान, इस कारण पानी की कमी, ख़ेतीलायक ज़मीन बहुत कम; ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में इस्रायल ने पहले कदम उठाना शुरू किया था।

जब खेती का मौसम नहीं होता है, तब युरोपियन मार्केट्स में माँग होनेवाले फूल, फल, सब्ज़ियाँ इनका उत्पादन ‘ग्रीनहाऊसेस’ (तपमान आदि घटकों को नियंत्रित रखे हुए काचघर) की सहायता से किया जाता है।

उपलब्ध संसाधनों का मितव्ययिता से और प्रगल्भता से इस्तेमाल करने के साथ साथ, किसी भी क्षेत्र में कम से कम संसाधनों में से अधिक से अधिक उत्पादन कैसे निकाला जा सकता है, इसके बारे में भी संशोधन शुरू हुआ। उन्हीं में से महत्त्वपूर्ण था – ‘कृषिसंशोधन’।

इस्रायली सरकार, वैज्ञानिक, कृषितज्ञ, किसान और कृषिविषयक उद्योग इनके एकत्रित तथा परस्परपूरक प्रयासों के कारण ही इस्रायल का कृषिसंशोधन खिल गया और आज इस्रायल कृषिसंशोधन और विकास में सारी दुनिया में अग्रसर माना जाता है। इस कृषिसंशोधन के द्वारा इस्रायल ने देश की ख़ेती में केवल संख्यात्मक दृष्टि (‘क्वांटिटेटिव्ह’) से ही नहीं, बल्कि गुणवत्ता (‘क्वालिटेटिव्ह’) की दृष्टि से भी बढ़ोतरी कैसे होगी, इसकी तरफ़ ध्यान दिया। उसके माध्यम से पेड़ों की और फसलों की नयीं नयीं प्रजातियाँ विकसित हुई हैं, जिनका – स्वाद, ऊपजाऊपन आदि गुणधर्म तो उस उस फ़सल की मूल जाति से बेहतर हैं ही, साथ ही, ये संकरित बीज उत्पादन भी अधिक देते हैं। इनमें से कई संकरित कृषिउत्पादनों की ‘शेल्फ-लाईफ’ भी उनकी मूल प्रजातियों से अधिक होती हैं।

उसी के साथ फ़सल उगाने की पद्धतियों पर भी संशोधन हुआ। किसी ज़मीन में साल भर में एक ही फ़सल उगाने के बजाय बारी बारी से अलग अलग फ़सलें उगायीं, तो ज़मीन का ऊपजाऊपन टिके रहता है, यह बात ध्यान में लेकर उस उस स्थान की ज़मीन में उग सकनेवाली अन्य फ़सलें भी उगायी जाने लगीं। साथ ही, ज़मीन का उपजाऊपन बढ़कर अधिक से अधिक उत्पादन पाने के लिए, उस उस स्थान की मिट्टी के प्रकार के लिए पूरक साबित हों ऐसे संशोधित किये हुए ‘सॉईल कंडिशनर्स’ (जिन्हें उस उस मिट्टी में मिलाने पर उत्पादन बढ़ने में सहायकारी साबित हो सकते हैं), वैसे ही ‘ड्रिप इरिगेशन’ ऐसी कई संबंधित बातों में संशोधन किया गया।

‘एआरओ’ की सुसज्जित प्रयोगशाला में मिट्टी के नमूने, पानी के नमूने ऐसी विभिन्न बातों पर कृषिसंशोधन किया जाता है।

जब ख़ेती का मौसम समाप्त हो जाता था, उदा. ठण्ड़ का मौसम, तब युरोपियन मार्केट्स में माँग होनेवाले फूल, फल, सब्ज़ियाँ इनका उत्पादन ‘ग्रीनहाऊसेस’ (तापमान आदि घटक नियंत्रित रखे हुए काँचघर) की सहायता से लिया जाने लगा।

इस कृषिसंशोधन का फ़ायदा स्वाभाविक रूप में हुआ। फ़सल में संख्यात्मक बढ़ोतरी होने का फ़ायदा देश के नागरिकों का पेट पालने के लिए निश्चिसत रूप में हुआ; लेकिन फ़सल की गुणवत्ता को बढ़ाने के संशोधन का फ़ायदा इस्रायल के निर्यात (एक्स्पोर्ट) की दृष्टि से, विदेशी मुद्रा कमाने की दृष्टि से हुआ।

उदाहरण के तौर पर – इस्रायल में उगनेवाले टमाटर स्वाद में बेहतरीन माने जाते हैं और उसकी फ़सल भी भरपूर आती है, जिसके लिए कृषिसंशोधन ज़िम्मेदार है। इन टमाटरों को दुनियाभर में अच्छीख़ासी माँग है। लेकिन जितने पैसे एक क्रेट टमाटर बेचकर मिलते हैं, उसके दसगुना पैसे उतने टमाटरों के कृषिसंशोधित बीज (सीड्स) बेचकर मिलते हैं। इस्रायल के इस तरह के संशोधित कृषिउत्पादनों को दुनियाभर में बहुत माँग है और इन उत्पादनों की बिक्री यह इस्रायल के लिए अच्छी-ख़ासी आय का साधन बनी है।

इस सारे कृषिसंशोधन के केंद्रस्थान में है – ‘अ‍ॅग्रीकल्चरल रिसर्च ऑर्गनायझेशन’ (‘एआरओ’)। इस्रायल स्वतन्त्र होने से पहले ही, यानी सन १९२१ में ही ‘अ‍ॅग्रीकल्चरल एक्सपरिमेंट स्टेशन’ की स्थापना हो चुकी थी। उसीका रूपांतरण आगे चलकर ‘एआरओ’ में हुआ।

यह ‘एआरओ’ कृषिक्षेत्र के नये नये संशोधन तो किसानों तक पहुँचाता ही है; लेकिन उसीके साथ लगातार किसानों के संपर्क में रहकर, हर एक स्थान की ज़मीन का ऊपजाऊपन-हवामान आदि की जानकारी संग्रहित की जाती है। उसके अनुसार, पर्यावरण को ख़तरा न पहुँचें ऐसी ख़ेती की पद्धतियाँ, कौनसी फ़सलें उगानी चाहिए, पानी का मितव्ययिता से इस्तेमाल करने की पद्धतियाँ, कृषिउत्पादन संग्रहपद्धतियाँ, बीज और कीटनाशकों का इस्तेमाल, किसानों को मार्केट्स के संपर्क में रखना ऐसीं कई बातों में ‘एआरओ’ किसानों को मार्गदर्शन करता रहता है। ख़ासकर नये से निर्माण होनेवाले कृषिसंकुलों को तो शुरू से ही मार्गदर्शन करना पड़ता है।

‘अ‍ॅग्रीकल्चरल रिसर्च ऑर्गनायझेशन’ (‘एआरओ’) का परिसर

स्थानीय मार्केट्स में कृषिउत्पादन भेजने के साथ ही, किसानों की आय बढ़ाने के लिए कृषिनिर्यात को विकसित करने का काम भी ‘एआरओ’ करता रहता है। इसमें कृषिउत्पादनों के जगह जगह के अद्यतन मार्केट रेट्स से लेकर, किसी देश को यदि कृषिउत्पादन निर्यात करने हों, किन नियमों का पालन करना पड़ता है, यह जानकारी भी किसानों की दी जाती है।

लेकिन यह महज़ इकतरफ़ा प्रक्रिया न होकर, उसमें किसान भी अपने मत प्रस्तुत कर सकते है। इसके ज़रिये किसानों को भी अपनी नयीं नयीं संकल्पनाओं को प्रस्तुत करने का मौक़ा यहाँ मिलता है और उन संकल्पनाओं पर यहाँ संशोधन किया जाता है।

पानी के अपव्यय को टालने के लिए ‘प्रिसिजन अ‍ॅग्रीकल्चरल’ यह पद्धति भी विकसित की गयी है। किसी खेत को यदि पानी देना हो, तो थोक तरीके से न देते हुए, वह ठेंठ केवल पेड़ों की या फसलों की जड़ों को ही मिलें और आवश्यक जितना ही मिलें इस प्रकार ‘ड्रिप इरिगेशन’ योजना द्वारा दिया जाता है और यह आवश्यकता भी, उस उस ज़मीन के प्रकार को और उस उस दिन के हवामान को मद्देनज़र रखते हुए तय की जाती है; और कॉम्प्युटराईज्ड स्वयंचलित यंत्रणाओं की सहायता से फसलों को यह पानी की आपूर्ति की जाती है।

यह हुआ इस्रायल के कृषिसंशोधन का परिचय! इस कृषिसंशोधन के बलबूते पर ही इस्रायल अनाज के क्षेत्र में प्रायः स्वयंपूर्ण बन गया है।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

 

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