वॉल्टर रिड (१८५१-१९०२)

सन १९०० की बात है, अमरीका में कुछ स्थानों पर ‘पीला राक्षस’ खुले आम घुम रहा था। रोगियों के कपड़े जला देना, घर स्वच्छ करना, ऐसे कुछ प्रयोग करके इस पिले राक्षस से घबराकर गाँव छोड़कर दूर चले जाना चाहिए, यही एक रास्ता अब रह गया था। क्युबा में तो इस ‘पिले बुखार’ ने तहलका मचा दिया था। इसका उपाय ढूँढ़ने का काम चल रहा था, परन्तु इससे कोई लाभ नहीं हो रहा था। शास्त्रज्ञों के द्वारा इसके प्रति किए गए विधान हवा के झोंके के समान उड़ जाते थें। परन्तु यह बुखार फैलता ही चला जा रहा था। क्युबा में लड़नेवाले सैनिक (स्पॅनिश-अमरीकन युद्ध में) इससे काफ़ी परेशान थे और आवश्यक उपाय योजना करने की ज़िम्मेदारी मेजर व्लॉटर रिड को सौंपी गयी। रिड द्वारा किया गया परिश्रम इस बुखार के जन्तुओं की खोज करने में सकल हुआ।

वॉल्टर रिड

व्हर्जिनिया प्रांत में बेलरॉय नामक स्थान पर रिड का जन्म हुआ था। व्हर्जिनिया महाविद्यालय की ओर से एम.डी. की उपाधि १८६९ में प्राप्त कर १८७० में रिड ने बेलेव्ह्यु हॉस्पिटल मेडिकल कॉलेज से पुन: एम. डी. किया। १८७५ में जंतुशास्त्र एवं रोग का निदान शास्त्र की और भी अधिक शिक्षा उन्होंने हासिल की। क्योंकि यह उनके कार्य के लिए ज़रूरी था। १८७६ में विवाहबद्ध हो चुके वॉल्टर रिड के दो बेटे होने के बावजूद भी एक भारतीय लड़की को उन्होंने गोद लिया था। १८९३ तक अनेकों महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियों कोरिड ने स्वयं सँभाला। इसके पश्‍चात वॉशिंग्टन डि. सी. के आर्मी मेडिकल स्कूल में संशोधन के प्रकल्पों को संभाला। १९०० में आर्मी बोर्ड के प्रमुखपद उनकी नियुक्ति हुई। वहाँ के सर्जन जॉर्ज मिलर के साथ मिलकर उष्ण कटिबद्धवाले रोगों के अध्ययन हेतु रिचर्ड का नाम सुझाया गया।

वॉल्टर रिड ने क्युबा में जाने पर इस पिले बुखार से लड़ने के लिए डॉ. जेम्ल कॅरोल, जेस लाझीर, अ‍ॅग्रामाँट एवं स्वयं डॉ.वॉल्टर ऐसे चार लोगों की समिति बनायी गई। अ‍ॅग्रामाँट क्युबन तो जेस लाझीर ये यूरोपीयन जन्तुशास्त्रज्ञ थे। इन सब ने अनेक बीमारों की जाँच की। फिर उन्हें कार्ल फिनले नामक शास्त्रज्ञ के विधान का स्मरण हो आया की शायद मच्छर के कारण यह बीमारी फैलती होगी। परन्तु अब प्रयोग किस पर और कैसे करना है? मानवों के अलावा अन्य प्राणियों को यह बुखार नहीं था। वॉल्टर रिड ने सर्वप्रथम स्वयं अपने ऊपर ही मच्छर छोड़कर प्रयोग करके देखा परन्तु उन्हें बुखार नहीं आया। डॉ. कॅरोल एवं जेस लाझीर को पिला बुखार आकर वे इस बुखार के शिकार हो गए। उनके बीबी-बच्चे अनाथ हो गए। जंतुशास्त्र का वह संशोधन अजर एवं अमर बन गया, परन्तु पिले बुखार की जाँच में इस बलिदान से कुछ भी निष्पन्न नहीं हुआ।

अब वॉल्टर ने एक योजना बनाई। उन्होंने इनाम की घोषणा कर दी। प्रयोग के लिए मानवी गिनी पिग एवं छावनी का नाम रखा गया ‘लाझीर छावनी’। वॉल्टर रिड पेशे से सैनिक थे, हड्डीयों के शास्त्रज्ञ एवं उपाधिप्राप्त वैद्यकीय विशेषज्ञ थे। जल्दबाजी में एक दो प्रयोग करके वे रुके नहीं। रोगियों के कपड़ों का एवं संसर्ग का कोई संबंध है क्या, यह देखने के लिए उन्होंने रोगियों के कपड़े मँगवाकर, छावनी में उन्हें फैलाकर उस पर उन मानवी गिनी पिग को सोने के लिए कहा। बिलकुल बीस दिनों तक यह प्रयोग हुआ। परन्तु किसी को भी बुखार नहीं आया। डॉ. जॉन मोरान नामक गिनी पिग भी उस छावनी में थे। इसके पश्‍चात् अंदर अब केवल पिले बुखार के मच्छर छोड़े गए। मोरान बुखार से तप उठे। मरते-मरते उनकी जान बची परन्तु दृष्टि चली गई। अब रोग कैसे होता है इस बात का पता तो चल गया था, परन्तु जन्तुओं का पता न चल पाया था।

वॉल्टर रिड को ऐसा लगा था कि सूक्ष्मदर्शक यन्त्र के नीचे न दिखाई देनेवाले ये जीवाणु होने चाहिए और सूक्ष्म गालन से रोगी का खून ड़ालकर उन्हें ढूँढ़ना चाहिए। फिर उस द्रव्य का इंजेक्शन निरोगी व्यक्ति को देकर क्या होता है यह देखना होगा। परन्तु यह सब सिध्द करके दिखलाना होगा। इस कार्य की ज़िम्मेदारी उन्होंने जेम्स कॅरोल को सौंप दी। आश्‍चर्य की बात तो यह है कि इस द्रव्य को इंजेक्शन द्वारा देने के बाद निरोगी लोगों में से दो लोगों को पिला बुखार आ गया। आखिरकार पिले बुखार की यह लड़ाई इस सैनिक ने जीत ही ली।

एडिस (Aedes aegypti) जाति के मच्छर की मादी इस बुखार के जीवाणू को मनुष्य के खून में पहुँचाती है। पिले बुखार को, पिला जॅक (Yellow Jack), ब्लॅक वॉमेट, अमरिकन प्लेग इस नाम से भी जाना जाता है। यह तीव्र प्रकार का व्हायरल रोग होने के साथ-साथ अफ्रिका, दक्षिण अमरिका, युरोप के कुछ हिस्सों में केरेबियन द्वीप आदि में इसका अधिक प्रादुर्भाव दिखाई देता है। भारत में इसके प्रादुर्भाव से संबंधित उल्लेख नहीं दिखाई देता है। १९ शताब्दी में स्पेन में तीन लाख लोग इस बीमारी के कारण मौत के घाट उतर गए थे। पिले बुखार के कारण जोरदार बुखार, उलटी, खून की उलटी, आँखों का लाल हो जाना, अकड़ी आना ये लक्षण दिखायी देते थे। लिव्हर एवं किड़नी के खराब हो जाने का भय रहता था और मनुष्य कोमा में जा सकता था। साथ ही यकृत का पित्तरस भी उलटी द्वारा बाहर निकल जाता है। आज इस बुखार के लिए टीका उपलब्ध हो गया है, जिसका परिणामकारी असर दस वर्ष तक रहता है।

पिले बुखार का मूल कारण ढूँढ़नेवाले वॉल्टर रिड का १९०२ में देहांत हो गया। संशोधन के पश्‍चात उन्हें अनेक प्रकार की उपाधियों एवं पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। ‘वॉल्टर रिड मेडल’ यह पिले बुखार संबंधी संशोधन करनेवालों को दिया जाता था। जेस लाझीर, जॉन मोरान एवं डॉ.वॉल्टर रिड को भी यह मरणोपरांत दिया गया। इस शोध का परिणाम आंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे होता है, इसका एक उदाहरण है, पनामा नहर! इस नहर के काम में इस संशोधन के पश्‍चात् तेज़ी आ गयी।

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