अर्नेस्ट स्विन्टन (१८६८-१९५१)

प्राचीन काल से ही मनुष्यों की संस्कृति के विकास के साथ ही मनुष्यों के अलग-अलग गुटों में सत्ता, संपत्ति की लालसा भी बढ़ने की शुरुवात हो गई। इसी में आगे चलकर प्रतियोगिता एवं संघर्ष बढ़ने लगा। युद्धप्रवृत्ति के साथ साथ अस्त्र-शस्त्रों को ले जाने के लिए सुरक्षित गाड़ियों की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। इसी पार्श्‍वभूमि के कारण सेना के टँकों की निर्मिति हुई। इन टँकों की निर्मिति के लिए अपरंपार मेहनत करनेवाले मुख्य संशोधकों में समावेश होता है – सर अर्नेस्ट स्विन्टन इनका नाम।

सर अर्नेस्ट स्विन्टन

भारत के बैंगलोर शहर में इ. सन् १८६८ में सर अर्नेस्ट स्विन्टन का जन्म हुआ। कॉर्पस ऑफ़ रॉयल इंजिनिअर्स की तुकड़ी में वे सन् १८८८ में नियुक्त हुए थे। सन् १८८९ से १८९४ वर्ष तक उन्होंने भारत में काम किया। उनके काम की योग्यता को देखते हुए उन्हें सन् १८९१ वर्ष में लेफ्टनंट पद पर पदोन्नति दी गई। लॉर्ड किटचेनर के युद्धमंत्री होने पर पाश्‍चिमात्य देश में स्विन्टन को युद्ध के लिए भेजा गया। भीषण युद्धजन्य परिस्थिति में अच्छी तरह से युद्ध किस तरह से करवा सकते हैं, इसका विचार करने के लिए उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि का उपयोग किया।

इ. स. १९१४ वर्ष में ख्रिसमस के दरम्यान होल्ट नामक ट्रॅक्टर और उस पर बिठाई हुई बंदूक उन्होंने देखी। यह दृश्य देखकर ही उन्हें टँक बनाने की कल्पना सूझी। अमेरिका में खेती करने के लिए होल्ट ट्रॅक्टर का उपयोग किया गया था। ‘कॅटर पिलर’ ट्रँक नाम से जाना जानेवाला पट्टा टायर्स की जगह बिठाया गया। उस समय लंडन में युद्ध परिषद के सचिव मॉरिस हँकी थे। अ‍ॅर्नेस्ट के वरिष्ठ कमाडिंग प्रमुख जॉन फ़्रेंच और उनके सलाहगारों ने अर्नेस्ट की कल्पना को नज़रांदाज़ कर दिया। किंतु हँकी ने स्विन्टन की बात को विंस्टन चर्चिल को बताया।

इसके बाद टँक की प्रतिकृति बनाने के लिए चर्चिल ने एक कमिटी की स्थापना की। स्विन्टन के द्वारा बनाया गया टँक ब्रिटीश विभाग को अच्छा लगा। चर्चिल और कमिटी के एक प्रमुख सदस्य लॉईड जॉर्ज ने इस टैंक को मान्यता दी।

पहले महायुद्ध में फ़्रान्स में घनघोर लड़ाई शुरु थी। ब्रिटीश, फ़्रेंच, जर्मन सैनिक हजारों की संख्या में धराशायी हो रहे थें। दोनों ओर से जमीन में एक लंबी चौडी खंदक खोदकर एक दूसरे को शह दी जा रही थी। किसी एक पक्ष का निर्णायक पराभव किये बिना युद्ध का निर्णय लगनेवाला नहीं था। सैनिकों के द्वारा बग़ावत किये जाने का डर भी लगा रहता था। ब्रिटीश सेनापति उग्लस हेग ने सन् १९१६ वर्ष में ब्रिटन से ‘मार्क- १’ टँक प्रथम क्रमांक पर भेजी गयी।

बड़े बड़े क्रेट्स में बंद किए कुछ टँक ब्रिटन से लड़ाई के मैदान पर आ पहुँचे थे। उन क्रेट्स में वास्तव में क्या है, इस बात का शत्रुओं को पता न चले इसीलिए क्रेट्स पर बड़े बडे अक्षरों में ‘वॉटर टँक्स’ ऐसा लिखा गया था। यह पानी इकठ्ठा करनेवाला टँक्स है ऐसा शत्रुपक्ष को लगे, इसीलिए यह तरकीब की गयी थी। इसके बाद वॉटर टँक में से सिर्फ़ ‘वॉटर’ यह शब्द निकाल लिया गया, किंतु टँक यह शब्द कवचधारी टँकों के लिए प्रचलित हो गया।

युद्ध के लिए भेजे गए आधे से अधिक टँक ‘ब्रेक डाऊन’ हो गए। इन टँकों ने जब जर्मन सेना पर हमला किया तब पहली बार जर्मन सैनिक भयचकित हो गए। इन रणगाड़ों ने युद्ध में बड़ी कुशलता से अपना कमाल दिखाया।

सन् १९१८ वर्ष में अमेरिका में स्विन्टन के कई व्याख्यान हुए। फ़िर ऑनररी मेजर जनरल के पद का स्वीकार करने के बाद सन् १९१९ वर्ष में स्विन्टन निवृत्त हो गए। सन् १९१९ से १९२१ के दौरान उन्होंने डिपार्टमेंट ऑफ़ सिव्हिल एव्हिएशन के कंट्रोलर ऑफ़ द इन्फॉर्मेशन के रूप में काम किया। सन् १९२२ वर्ष में वे सिट्रॉन कंपनी के संचालक बन गये और सन् १९५१ तक उन्होंने यह जिम्मेदारी संभाली। सन् १९५१ में स्विन्टन ने अपनी आत्मकथा प्रकाशित की। उसके पहले ‘आयविटनेस’ यह उनके युद्धकालीन अनुभव लेखन को उन्होंने प्रसिद्ध किया था। सन् १९५१ वर्ष में उनका निधन हो गया। कर्नल अर्नेस्ट स्विन्टन को टँक का उद्गाता माना जाता है।

आज के युद्ध में विमान, स्टेल्थ नौका और क्षेपणास्त्रों को महत्त्व दिया जाता है। मग़र फिर भी ज़ोरदार ज़मिनी युद्ध में रणगाड़ों का स्थान यह निश्‍चित ही महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन काल में युद्ध में रथों का उपयोग किया जाता था। बाद में रथों के लिए लकड़ी की फ़ली से कवच तैयार किया गया। सन् १९०१ वर्ष में फ़्रेंच सेना ने साधारण मोटर गाड़ी पर टब के आकार का कवच चढ़ाकर उसमें मशीन गन रख दी और इन गाड़ियों का उपयोग टँकों की तरह ही किया गया। उसके बाद सन् १९११ वर्ष में ट्रॅक पर चलने वाले टँकों की निर्मिति हुई।

दूसरे महायुद्ध में पहली बार टँकों का पूर्ण रूप से उपयोग किया गया। टँकों का स्वतंत्र डिव्हिजन निर्माण किया गया। भारतीय सेना में मेनबॅटल टँक के रूप में ‘वैजयंता’ टँक का उपयोग किया जाता था। यह टँक भारत में तैयार किया गया था। फ़्रेंच और रशियन बनावट के टँक भी भारतीय सेना में हैं। रणक्षेत्र में टँकों को उतारने का काम अब हवाई जहाज़ से हो सकता है। प्रमुख रूप से युद्ध में निर्णायक कार्यवाही करने की क्षमता रहने वाले इस टँक को बनाने का प्रमुख श्रेय अर्नेस्ट स्विन्टन को ही जाता है।

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