अ‍ॅलेक्झांडर व्हॉन हंबोल्ट (१७६९- १८५९)

विश्‍व का अध्ययन करने की लालसा बचपन से ही जतन करते हुए जिन्होंने जीवनभर प्रदीर्घ मुहिम के साथ लंबा सफर किया, जो अपनी शांत न होनेवाले ज्ञानलालसा के कारण जीवनभर छात्र ही बने रहे, जिस तरह से नोबेल पुरस्कार को जगन्मान्यता प्राप्त है, उसी प्रकार छात्र जिस स्कॉलरशीप (फेलोशीप) को प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहता है, वह अतिशय महत्त्वपूर्ण फेलोशिप उन्हीं के नाम से दी जाती है, ऐसे इन महान संशोधक का नाम है- अलेक्झांडर व्हॉन हंबोल्ट।

नोबेल पुरस्कारनिसर्गशास्त्र और पर्यावरण के महत्त्व को बहुत पहले ही पहचान लेनेवाले हंबोल्ट का यानी अलेक्झांडर व्हॉन हंबोल्ट का जन्म १४ सितंबर १७६९ के दिन बर्लिन में हुआ था। बर्लिन में ही उनके ९० वर्ष के जीवन का अंत हो गया। फ्रिडरिक राजा के प्रमुख कार्यभार सँभालनेवाले ‘मेजर व्हॉन हंबोल्ट’ ये उनके पिता थे और माँ फ्रेंच प्रोटेस्टंट पंथ की थी, विल्यम नाम का उनका भाई बहुत होशियार था। वहीं, अलेक्झांडर एक सामान्य विद्यार्थी था। वनस्पतिशास्त्र की अभिरुचि होने के कारण उन्होंने बॅँडेन बर्ग परिसर की वनस्पतियों का अध्ययन किया था। गॉरिंजन विद्यापीठ में सन् १७८९-९० के दौरान उन्होंने खनिजशास्त्र, भूगर्भशास्त्र का अध्ययन किया। कुछ वर्ष उन्होंने अन्य काम भी किया। उन्हें शिक्षा के विभिन्न प्रकार का अनुभव होने के बावजूद भी प्रथा के अनुसार उनकी गणना उच्चशिक्षितों में नहीं की गई।

पिता का समृद्ध ग्रंथालय, निसर्ग से सुसज्ज घर के चारों ओर का सुंदर बगीचा यह उनके व्यक्तित्व के विकास का बहुत बड़ा हिस्सा था। विश्‍व और रहस्यमय निसर्ग को जानने की उत्सुकता बढ़ने के कारण उन्हें समुद्र के पार दूर जाने का आकर्षण बढ़ने लगा। गूढ़रम्य निसर्ग में मानव जीवन का अर्थ यह उनके शोध महिमा का उद्देश्य था। विचारी, धाडसी जीवन में अज्ञान पर विजय प्राप्त करने के लिए कोशिश करनेवालों के लिए वे आदर्श थे। प्रशियन राजा हंबोल्ट के राजकारण कौशल्य के कारण उनकी सलाह लेते थे। उनके काम की व्याप्ति इतनी विशाल थी कि अमेरिका और अन्य जगह भी उनके नाम से अनेक बातें पहचानी जाती थी। उदाहरणार्थ – हंबोल्ट नदी, हंबोल्ट तालाब, हंबोल्ट विद्यापीठ, पॅसिङ्गिक समुद्र में हंबोल्ट प्रवाह इत्यादि।

सब ओर से परिपूर्ण होने के बावजूद भी वे निसर्ग के अनुसार ही विनम्र थे। संशोधक, शास्त्रज्ञ रहनेवाले हंबोल्ट ने भूगर्भशास्त्र, भूगोल, भूचुंबकीयशास्त्र के क्षेत्र में पायाभूत कार्य किया। वे हवामान शास्त्र के प्रणेता साबित हुए। उन्होंने यह बात सिद्ध की कि भूकंप और ज्वालामुखी ये भूगर्भीय दोषों के कारण होते हैं। दक्षिण, मध्य अमेरिका के ६००० मिल का प्रवास पैदल चलकर, घोड़े पर चढ़कर, सामान्य नांव के द्वारा किया। दूसरी मुहिम झार राजा के निमंत्रण के कारण रशिया और सायबेरिया में की। उम्र के ६०वें वर्ष के बाद की गई इस मुहिम में ११ हजार मिल उन्होंने अभ्यासपूर्ण प्रवास किया। इस मुहिम के ङ्गलस्वरूप १२००० पृष्ठों के ३० ग्रंथों की उन्होंने रचना की। दूसरी मुहिम के बाद कॉसमॉस नाम के उन्होंने पाँच ग्रंथ की रचना की(१८४५-१८६२)।

उनके कार्य का अनोखापन यह है कि उन्होंने जो कुछ भी किया वह केवल स्वयं की हिम्मत और आर्थिक बल का उपयोग करके किया। इसके अलावा नये शास्त्रज्ञ होनेवाले नवयुवकों की उन्होंने का़फी मदत की। शास्त्रीय जानकारी आलेख के रूप में दर्शानेवाले कुछ शास्त्रज्ञों में से वे एक थे। नक्शे पर उन्होंने आयसोथर्मस (समान तापमानवाले स्थानों की जगह) और आयसोबार्स (समान दबाववाले स्थानों की जगह) जोड़नेवाली रेखाएँ बनायीं। वनस्पति, जीवाश्म, खनिजों के लाखों नमूनों का अध्ययन किया। धरती, हवा और पूरे जीवविश्‍व में समानता होती है और वातावरण से जुड़ने में दोनों का समान धर्म है यह सिद्ध किया। समुद्रतल से जैसे-जैसे ऊँचाई पर जाते हैं वैसे-वैसे तापमान कम होते जाता है। यह बतानेवाले वे पहले निरीक्षक माने जाते हैं।

२०५६१ फूट ऊँचाईवाले शिबोरॅझो पर्वत पर वे १९२८० फीट तक चढ़कर गए। विज्ञान का प्रचार करने में उनका महत्त्वपूर्ण सहभाग था। १८२८ में राजकीय परिस्थिति प्रतिकूल होने के बाजवूद उन्होंने शास्त्रज्ञों की पहली अंतरराष्ट्रीय परिषद के आयोजन करने की हिम्मत की।

फ्रेंच वनस्पतिशास्त्रज्ञ प्लॅन्ड के साथ उन्होंने पाँच वर्षों तक दक्षिण और मध्य अमेरिका के स्पॅनिश वसाहतों को उन्होंने भेट (व्हिजीट) की। यह प्रवास लगभग जलप्रवास ही था। अत्यंत पिछड़े हुए और विचित्र रीतिरिवाज़ में बढ़नेवाले आदिवासियों के आक्रमण का डर उस प्रदेश में था। चित्र-विचित्र और डरावनें दृश्यों का उन्होंने अनुभव किया। एक वृक्ष से रक्त की तरह गहरे लाल रंग का चीक यह वृक्ष के छाल पर बहने लगता है और फिर सूखकर वह बैगनी रंग का हो जाता है। कॅरकॅस में गन्ने और कॉफी की फसल देखकर उन्हें बहुत आनंद हुआ। उसके बाद अ‍ॅमेझॉन खोरे और वहाँ के ‘काऊ ट्रिज’ देखा। ये वृक्ष बहुत बड़े प्रमाण में चीक देते हैं। जलप्रवाह में जबड़ा खोल निश्‍चल पड़े हुए मगरमच्छ और घडियाल के सामीप्य का उन्होंने अनुभव किया। (eels) इलेक्ट्रीकल, जलचरवाले तालाब में उन्होंने प्रवास किया। विषारी, काटने कीड़ों की असह्य पीड़ा उन्होंने सही। अ‍ॅमेझॉन और रिओनिग्रो घाटी के आदिवासी जो भी सामने दिखाई दे उसे खा लेते थे। सङ्गेद चिटियाँ और कीड़े पकाकर उनकी लुगदी बनाकर खाते थे। प्रवास में एक रेड इंडियन मनुष्य ने उनसे कहा कि ‘मैं नरभक्षक हूँ और भालू का पंजा और मनुष्य के हाथ का पंजा मुझे रुचिकर लगता है।’ यह सुनकर हंबोल्ट और उनका सहकारी दोनों उसी जगह काँप गए होंगे। सारा प्रवास भयानक, प्रत्येक क्षण दिल दहला देनेवाला और जन्म मृत्यु के पाठ सिखानेवाले खेल की तरह था। हंबोल्ट की प्रचंड सहन शक्ति, शरीर और मन के सामर्थ्य के कारण उनका सारा प्रवास सुखकर एवं यशस्वी हुआ।

हंबोल्ट के विश्‍व के अनेक मान्यवरों के साथ अच्छे मैत्रीपूर्ण संबंध थे और इसी गुण के कारण उन्हें स्वयं का कौशल्य, मुहिम के अनुभव, ज्ञान, वर्गीकरण, संकलन, निष्कर्ष निकालना इत्यादि बातें साबित करने में सफलता मिली।

जर्मन कवि गटे उनके बारे में कहते हैं, ‘हंबोल्ट एक सहस्रधारावाले झरने हैं, उसमें कोई भी बर्तन पकड़ने पर वह बर्तन ताज़गी लानेवाले जल से त्वरित भरकर बहने लगेगा।’ हंबोल्ट यह मानो एक चलता-बोलता ज्ञानकोश ही है। उनका व्यवहार सर्वस्पर्शी एवं मज़ाकिया था। हंबोल्ट के बारे में सबसे बड़ी बात यह है कि वे स्वयं में एक संस्था की तरह थे।

जीव-भौतिकशास्त्र के अनेक रहस्यों को पता लगाने का श्रेय संशोधक हंबोल्ट को जाता है। उनके नाम से की मिलनेवाली फेलोशिप यह उभरते युवा संशोधकों को सर्वार्थ में अपनी कुशलता दिखाने का एक बहुत बड़ा अवसर है।

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