जॉन रे

आपने कभी किसी के मुँह से यह सुना होगा कि कि फूल, फल, वृक्ष, लता, पशु, कीटक, मछलियाँ, रेंगनेवाले प्राणी इत्यादि की निर्मिति करने के बाद भी शेष बची अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए मानव की निर्मिति की गई। फिर निरीक्षण शक्ति के उपयोग द्वारा मानव, निसर्ग, उसमें रहनेवाली सजीवसृष्टी, वनस्पति इत्यादि का संशोधन करना शुरु कर दिया। ऐसे ही उस समय के महत्त्वपूर्ण निसर्गशास्त्रज्ञों में से एक निसर्गशास्त्रज्ञ, तत्त्वज्ञान और धर्मशास्त्र इन क्षेत्रों के एक प्रभावी व्यक्तित्व के रूप में जाने जाने वाले पहले ब्रिटीश शास्त्रज्ञ के रूप में जॉन रे पहचाने जाते हैं।

इंग्लैन्ड के एक लोहार के घर में जॉन रे का २९ नवम्बर सन् १६२७ के दिन हुआ। उनकी माँ प्रसिद्ध वनस्पतिविशेषज्ञ एवं उपचारक थी। माँ के पास रहनेवाला वनस्पति, निसर्ग के प्रति प्रेम उन्हें खानदानी तौर पर सौगात के रूप में प्राप्त हुआ था।

सन् १६४४ में केंब्रिज विद्यापीठ में प्रवेश लेने के बाद रे जल्दी ही भाषा, गणित, निसर्गशास्त्रज्ञ इन विषयों में तज्ञ हो गए। १६४९ में पदवी प्राप्त करने के बाद सन् १६५१ में व्याख्याता के रूप में काम शुरु किया। १६५८ में वे उपप्रमुख का काम देखने लगे। १६५० में उन्होंने वनस्पति का अध्ययन शुरु किया। १६६० में उन्हें धर्मगुरु की दीक्षा दी गयी। उसके बाद राजकीय कारणों के कारण उन्होंने केंब्रिज छोड़ दिया। १६६०-१६७१ के दरम्यान वे इंग्लैन्ड में सर्वत्र घूमते रहे। वनस्पति, प्राणि और जीवाश्म उन्होंने अपने यूरोप के प्रवास में इकठ्ठा किए।

उनके इस प्रवास को डार्विन के प्रवास जितना ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस प्रवास में विलोबी नाम के मित्र ने उनकी बहुत सहायता की। १६७२ में विलोबी का निधन हो गया किंतु उन्होंने अपनी जमापूँजी में से कुछ रकम हर वर्ष रे को मिलती रहेगी, इसकी व्यवस्था की थी। शेष समय में उन्होंने लेखन का कार्य शुरु किया।

इंग्लैन्ड के वनस्पतियों का कोश उन्होंने प्रसिद्ध किया। इसेक्स में एक छोटे से खेड़ेगाँव में वे रहते थे। यहाँ के वास्तव्य में उन्होंने ‘हिस्टोरिया फ्लॉरम’ नाम का ग्रंथ लिखा। वनस्पतियों के वर्गीकरण की नींव रे ने इस ग्रंथ में डाली। आगे चलकर उत्क्रांती के सिद्धांत के बाद इस वर्गीकरण पद्धति को आज का स्वरूप प्राप्त हुआ। १६८२ में उन्होंने ‘मेथड्स प्लांटाराम नोवा’ नामक ग्रंथ लिखाजिसमें फूल, फल, बीज और जड़ों के बारे में जानकारी एकत्रित की गई है। ‘विलुबीज् ऑर्निथॉलोजिया’ यह रे का ग्रंथ १६७६ में प्रसिद्ध हुआ। १६९३ में ‘सिनॉप्सिस क्वाड्रिपेडम’ यह ग्रंथ उन्होंने लिखा। इस ग्रंथ में उन्होंने चतुष्पाद के निरीक्षण की जानकारी दी है। उसके बाद १७१३ में रे ने ‘हिस्टोरिया पिसियम’ नामक ग्रंथ लिखा जिसमें मछलियों की जीवनशैली का खुलासा किया। इसके अलावा रेंगनेवाले प्राणि, स्तनधारी प्राणि इनके बारे में जानकारी का खज़ाना खोल दिया।

विश्‍व में असंख्य कीटक है और इन सबका अध्ययन अब मेरे इस जीवन नहीं हो पाएगा यह वे जान चुके थे। फिर रे ने अपना पहले का ही अध्ययन अधिक करने पर जोर लगाया। कीटकों की अवस्थांतरण के महत्व को जाननेवाले शास्त्रज्ञ भी वे थे। पक्षियों के जीवन के अध्ययन में पक्षी, उनके अंडे और उनकी कॉलनी ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण घटक हैं। जितने अंडों को वे ऊष्मा सकते हैं, उतने ही अंडे पक्षी देते हैं। उनमें संख्या की दृष्टि से गिनने की शक्ति नहीं होती। किंतु कम या अधिक इन दोनों का अंतर वे जानते हैं। जंगल के स्वतंत्र और पाले हुए पक्षी इन दोनों प्रकारों में आकलन शक्ति समान ही होती हैयह उन्होंने सिद्ध करके दिखाया। एक ही जाति के पक्षी, एक ही प्रकार की सामग्री का उपयोग करते हैं और उनकी घोसला बनाने की पद्धति भी एक ही जैसी होती है। ये सारी बातें उन्होंने अपने निरीक्षण के अंत में निष्कर्ष के रूप में दर्शाईं।

उस समय में सूर्य केन्द्रित सिद्धांत बनानेवाले शास्त्रज्ञ गॅलिलिओे, कोपर्निकस को रे ने समर्थन दिया था। जादूटोना, अनीन्द्रिय शक्ति यह सब झूठ है, यह उनका दृढ़ मत था। प्राणियों की संख्या निश्‍चित रूप में नहीं कही जा सकती यह उन्हें मालूम था।

जीवावशेषों को (Fossils) रे के समय (काल) में ‘भगवान की करनी’ और उसके लिए पत्थरों का लिया गया आकार है ऐसी समझ थी। नैसर्गिक क्रिया के द्वारा पहले के पहलेवाले पत्थरों के घिस जाने के कारण नये पत्थर तैयार होते हैं, यह सेडिमेंटरी खड़कों का वर्णन बहुत ही आगे का विचार था। प्राणियों के अश्मीभूत होनेवाले अवशेषों का उपयोग पहले के प्राणी कैसे होते थे, इस अध्ययन के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं ऐसा रे का कहना था।

धर्मगुरु होते हुए भी रे ने हमेशा बुद्धिनिष्ठता का उपयोग किया। ‘बायबल’ का उचित और उतना ही उपयोग किया। जब किसी भी चीज का निश्‍चित सबूत (पुरावा) उपलब्ध हो, तभी ही उस उपलब्ध सबूतों (पुरावे) के आधार पर उस बात को हमें मान्य करना चाहिए, ऐसा उनका विचार था। जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने ‘द व्हिजडम ऑफ गॉड मॉनिफिस्टेड इन द वर्कस् ऑफ द क्रि एशन’ और १६९२ में ‘थ्री फिजिओ थिऑलॉजिकल डिसकोर्सेस’ ये दो महत्त्वपूर्ण लेख उन्होंने लिखे।

रे का शास्त्रीय विचार और आधुनिक जीवशास्त्रीय विचार इनमें फर्क होते हुए भी उनका कार्य अगले आनेवाले विशाल युग के लिए अनेकों को प्रेरणादायी साबित होगा।

रे का निरिक्षण व कार्य, उनके प्रांजल मत प्रगतिशील विज्ञान के लिए अधिकांश प्रतिनिधित्व करनेवाले ही साबित होते हैं।

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