श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ४८

सन् १९१६ में हेमाडपंतजी सरकारी नौकरी से निवृत्त हो गए और उन्हें पेंशन मिलने लगी, परन्तु गृहस्थी का भार बढ़ जाने से, जो पेंशन उन्हें मिल रही थी, उसमें उनका गुजर-बसर ठीक से नहीं हो रहा था, इसके लिए उपाय ढूँढ़ने में वे सदैव लगे रहते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ यानी जो प्रयत्नशील रहता है बाबा उसकी सहायता हर हाल में करते ही हैं, इस बात का उन्हें पूरा विश्‍वास था। इसीलिए उन्होंने अपनी ओर से कोशिश जारी रखी। अण्णा चिंचणीकर को भी उन्होंने अपनी बात बता दी। इस संबंध में उन्होंने किंचिन्मात्र भी शरम मेहसूस नहीं की। मॅजिस्ट्रेट के पद से निवृत्त होकर उन्होंने कोई भी छोटी-मोटी नौकरी करने में हिचकिचाहट नहीं दिखायी। अपनी प्रतिष्ठा, स्टेटस आदि की अपेक्षा उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास अधिक था। जिस तरह से उन्होंने अपने जान-पहचानवालों से, मित्रों से विनति की थी, वैसे ही उन्होंने परिचित साईभक्त अण्णा साहेब चिंचणीकर से भी कह रखा था। १९१६ में गुरुपौर्णिमा हेतु शिरडी जाने पर अण्णा चिंचणीकर से भी उन्होंने इस बारे में बात भी की थी।

हेमाडपंत का स्वभाव मिलनसार होने के कारण और साथ ही दूसरों की सहायता करने हेतु सदैव तत्पर होने के कारण हेमाडपंत के प्रति सभी के मन में अपनापन था। उनकी कर्तव्यनिष्ठता, सच्चाई, विवेकपूर्वक हर एक कदम उठाना, कार्य के प्रति लगन, अपने कार्य के प्रति दक्ष रहना, दृढ़ निष्ठा रखना, उस पर अपना प्रभुत्व बनाये रखना, विद्वत्ता होने पर भी विनम्र स्वभाव इन सभी गुणों के कारण उनके प्रति सभी के मन में आदर भी था। अण्णा चिंचणीकर ने भी हेमाडपंत की पूछ-ताछ करने के पश्‍चात् उनकी मदद किस तरह से की जा सकती है, इसी बात पर विचार किया। लोगों के साथ मिलकर रहने से क्या लाभ होता है, इस बात का यह एक सुंदर उदाहरण है। हमें हेमाडपंत के आचरण से यह बात सीखनी चाहिए।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईहमें भी लोगों के साथ मिलजुलकर रहने की वृति को अपनाना चाहिए, जो लोग भगवान को नहीं मानते हैं, जो भगवान की निंदा करते हैं, जो लोग न्याय, नीति, मर्यादा आदि छोड़कर स्वैराचारी बन जाते हैं, उनके साथ किसी भी प्रकार का संबंध रखने का प्रश्‍न ही नहीं उठता है; परन्तु जो भगवान में श्रद्धा रखता है, भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करता है, जिसके मन में अच्छा बनने की, अच्छा व्यवहार करने की इच्छा होती है और वह भक्तिमार्ग के अधिष्ठान पर अपने-आप को सुधारने की कोशिश करता है, जिसमें इन्सानियत है, जो अन्य श्रद्धावानों की सहायता हेतु तत्पर रहता है, इस प्रकार के अच्छे लोगों के साथ स्नेहपूर्ण संबंध बनाये रखने में क्या हर्ज़ है? गुण-दोष तो हर किसी में होता है। केवल एक भगवान के अलावा और कोई भी सर्वगुणसंपन्न और पूर्ण शुद्ध हो ही नहीं सकता है। और एक हम हैं, जो यूँ ही कोई कुछ कहता है, उसमें यदि कोई दोष नज़र आता है, उससे कोई गलती हो जाती है तो उसकी उसी बात की हम गाँठ बाँध लेते हैं, उसके प्रति मन में गलत धारणा बना लेते हैं, उससे बात न करने का निश्‍चय कर लेते हैं। मगर क्या हमसे गलती नहीं होती? हममें दोष नहीं हैं? फिर यदि किसी श्रद्धावान में यदि कुछ दोष दिखाई भी दिए तो हम बात का बतंगड क्यों बना देते हैं? उलटे ऐसे में हमें उस श्रद्धावान की सहायता करनी चाहिए। मनुष्य से संबंध तोड़ देने के लिए एक पल काफ़ी है परन्तु जोड़ने में वर्षों बीत जाते हैं।

किसी के साथ संबंध तोड़ देना आसान है, उसे बनाये रखना काफ़ी मुश्किल है। जो अन्य श्रद्धावानों के दोषों के, गलतियों के प्रति मन को कलुषित न करते हुए उलटे उन्हें संभाल लेता है और उनकी गलतियों को सुधारने में उनकी मदद करता है। उस व्यक्ति पर भगवान कभी भी असहाय अवस्था में रहने की नौबत ही नहीं आने देते। ऐसे श्रद्धावान के जीवन में भगवान मुश्किल समय आने ही नहीं देते। ऐसे श्रद्धावान के संकट की घड़ी में मदद के हजारों हाथ आगे बढ़ जाते हैं। जो दूसरों की सहायता करने में पहल करता है, उसके मन की नाभिनाल भगवान के साथ जुड़ जाती है और वह कभी भी नहीं टूटती है। हम जब इस साईनाथ की भक्ति सेवा के साथ जुड़ जाते हैं, साईनाथ के उत्सवों में, सामूहिक उपासना में अपना योगदान देते हैं, उस समय श्रद्धावानों के साथ मन से जुड़ जाने का यह गुणधर्म हमें अपना लेना चाहिए। हम सब साईनाथ की संतानें हैं, इस भाव से एक-दूसरे के साथ आत्मीयतापूर्वक हमें जुड जाना चाहिए। बाबा इसी कथा में आगे यही बात बताते हैं और इसी लिए जितना हो सके उतना आपस में मन जोड़ने की वृत्ति को हमें अपना लेना चाहिए।

यह इस जाति का है, वह उस भाषा से संबंधित है ये दीवारें हमें एक-दूसरे से दूर कर देती हैं। हम यदि अपना इतिहास देखते हैं तो हमें पता चलेगा कि सभी भारतीय मन से एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए थे। दक्षिणी भारत के निवासी रामेश्‍वर से काशी, मानससरोवर, चारों धाम का प्रवास उस वक्त के लोग करते थे। उसी तरह उत्तरी भारत में रहने वाले लोग दक्षिण का प्रवास करते थे। पूर्व, पश्‍चिम, दक्षिण एवं उत्तर चारों ही दिशाओं का प्रवास उस वक्त लोग करते थे। आवागमन के लिए, सफर के लिए उस वक्त ना तो यातायात के गतिमान साधन उनके पास समान हुआ करते थे और ना ही ठहरने के लिए सभी सुविधाओं से लैस होटेल थे। अधिकतर लोग पैदल यात्रा ही करते थे। हर कोई सभी भाषाओं का ज्ञान नहीं रख सकता था। हर किसी की आर्थिक स्थिति अच्छी ही नहीं हुआ करती थी। पर फिर भी सभी भाषियों का मन भारतीयत्व की भावना से जुड़ा हुआ था। इसके साथ ही इस तीर्थयात्रा के लिए आया हुआ भक्त यह मेरे भगवान का ही भक्त है, इसलिए उसकी भाषा चाहे कोई भी क्यों न हो, उसका पंथ चाहे कोई भी क्यों न हो, इन सभी बातों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। उनका भाव यह था कि पहचान बनाये रखने के लिए केवल इतना ही काफ़ी है कि यह भगवान का भक्त है और इसी भक्ति के ही कारण उनके मन एक दूसरे के साथ जुड़े हुए थे।

हेमाडपंत ने इसी तरह की प्रवृत्ति को अपनाया था – लोगों को एक-दूजे के साथ जोड़कर रखने की प्रवृत्ति को। इसके पीछे श्रीसाईनाथ की भक्ति से प्राप्त स्निग्धता ही है, जिसके आधार पर वे निरहंकारी बन गए हैं। इसी कारण अण्णा चिंचणीकर के समान कठोर स्वभाव वाले गृहस्थ के दिल में भी हेमाडपंत के प्रति प्रेमभाव था। आगे चौबीसवें अध्याय में अण्णा चिंचणीकर का वर्णन हम पढ़ते हैं और उसमें किसी भी प्रकार की झिझक न रखते हुए मुँहफट जवाब देनेवाले चिंचणीकर की याद हमें आती है। वे स्वयं ही सात्विक, सज्जन, सदाचारी गृहस्थ होने के कारण ही उन्हें सत्य से प्रेम था और असत्य के प्रति उनके मन में चीढ़ थी। ऐसी प्रवृत्ति रखनेवाले अण्णा चिंचणीकर के साथ हेमाडपंत का स्नेहपूर्ण संबंध था। कहने का तात्पर्य यह है कि सच्चाई एवं प्रेमपूर्वक व्यवकार के कारण ही हेमाडपंत का अण्णासाहब चिंचणीकर भी सम्मान करते थे। हेमाडपंत की अड़चन के बारे में सुनकर अण्णासाहब का हृदय द्रवित हो उठा। मुझे भी हेमाडपंत के लिए कुछ तो करना होगा यह विचार उनके मन में उठने लगा। पर कहें भी तो किसे? उन्होंने यह निश्‍चय कर लिया कि वे हेमाडपंत के घर की आर्थिक स्थिति के बारे में साईनाथ को ही बतायेंगे।

अण्णा ने बाबा से कहा, ‘बाबा हेमाडपंत की चिंता का निवारण केवल आप ही कर सकते हैं। आप ही कुछ किजिए और उनकी चिंता का निवारण कीजिए। इनको मिलनेवाले पेंशन से इनके घर का गुजर-बसर कैसे होगा? इसीलिए आप ही इन्हें किसी नौकरी पर लगवा दिजिए। बाबा, आप की कृपा से ही इनकी चिंता का निवारण हो सकता है। अण्णा के द्वारा विनति किये जाने पर बाबा ने अण्णा से क्या कहा, यह हम अगले लेख में देखेंगे।

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