श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ४९

सन १९१६ की गुरुपूर्णिमा के दिन घटित हुई घटना के बारे में हेमाडपंत हमें बता रहे हैं। गुरुपूर्णिमा का दिन होने के कारण स्वाभाविक बात है कि द्वारकामाई में भक्तों की भारी भीड़ थी। अण्णा चिंचणीकर के साथ वहाँ पर हेमाडपंत भी उपस्थित थे और उसी समय अण्णा चिंचणीकर ने हेमाडपंत की समस्या बाबा के समक्ष प्रस्तुत की।

गुरुपूर्णिमा का वह दिन। भक्त गुरुपूजा में लीन।
अण्णा ने स्वयं-स्फ़ूर्ति से विनती की बाबा से। मेरी सिफ़ारिश करते हुए।
अण्णा को मेरी बड़ी चिंता। बाबा से कहा विनम्रता से ।
इनकी बढ़ती गृहस्थी में। कृपा कीजिए आप इन पर॥
लगवा दीजिए इन्हें दूजी नौकरी। इस पेंशन से क्या होगा।
हेमाडपंत की चिंता दूर कर दीजिए। कीजिए कुछ ऐसा आप॥

अण्णा चिंचणीकर के इस आचरण से हम दो महत्त्वपूर्ण बातें सीख सकते हैं।
१) स्वयं-स्फ़ूर्ति से दूसरे श्रद्धावान के लिए भगवान से प्रार्थना करना।
२) भगवान के समक्ष ही ‘विनती’ करना, अन्य किसी के भी सामने नहीं।

अण्णा चिंचणीकर से हेमाडपंत ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा था कि मेरी इस समस्या के बारे में साईबाबा से कहिए। पर फ़िर भी अण्णा ने ‘स्वयं’ ही बाबा से सिफारिश की। दूसरे श्रद्धावान की किसी भी प्रकार की तकलीफ़ का पता चल जाते ही हमें क्या करना चाहिए, इस बात का पता हमें अण्णासाहब चिंचणीकर के आचरण से चलता है। पहली बात यह है कि उस श्रद्धावान की तकलीफ़ दूर करने के लिए हम जो कर सकते हैं, वह करना चाहिए और दूसरी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस व्यक्ति की चिंता का निवारण करने के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की मदद कर सकता है, उससे अनंतगुणा अधिक श्रीसाईनाथ हर किसी की सहायता करने के लिए समर्थ हैं। इसीलिए जब किसी श्रद्धावान पर कोई मुसीबत आती है और हमें पता चलता है, तब उसी समय हमें उसके लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए।

अपने लिए हर कोई प्रार्थना करता ही है, परन्तु दूसरों का दुख दर्द देखकर यदि किसी का हृदय तडप उठता है और उसके लिए जो भगवान से प्रार्थना करता है, वह निश्‍चित तौर पर भगवान का प्रिय होता है। मेरे लिए, मेरे अपने परिवार के लिए अथवा अपने आप्तजनों के लिए तो हम भगवान से प्रार्थना करते ही हैं। परन्तु इसके साथ ही दूसरों के लिए भी प्रार्थना करने का हमारा आचरण होना चाहिए। इस प्रकार से दूसरों के लिए प्रार्थना करनेवाले श्रद्धावान भक्त के खाते में भगवान पुण्य की राशि जमा कर देते हैं। हम सोचते हैं कि हम किसी और के लिए प्रार्थना करेंगे और उसमें हमारा पुण्य यदि खर्च हो गया तो? लेकिन यह मानना बिलकुल ही गलत है। उलटे दूसरों के लिए प्रार्थना करने से अत्यन्त श्रेष्ठ कर्म हम से होते रहता है और इससे हमारे खाते में पुण्य की राशि बढ़ती रहती है और पाप की राशि नष्ट होते रहती है। प्रार्थना यह मूलत: एक अत्यन्त श्रेष्ठ साधन है, जिससे पापों का नाश होता है और पुण्य जमा होता है। ऐसी प्रार्थना जब हम अन्य जरूरतमंदों के लिए करते हैं, तब हमें इससे अनंतगुणा अधिक पुण्य प्राप्त होता है।

इसके साथ ही हमें अण्णासाहब के आचरण से यह सीख मिलती है कि विनती करनी है तो वह केवल भगवान के ही समक्ष करनी चाहिए, अन्य किसी के भी सामने नहीं गिडगिडाना चाहिए। मदद करने हेतु अन्य लोगों से, अपने आप्त-मित्रों से ज़रूर कहें। हम हमें मदद करनेवाले को इज्जत भी देंगे, उसके प्रति मन में आदर की भावना भी रखेंगे। वरिष्ठों के साथ शिष्टाचार के अनुसार आचरण करेंगे, उनका अदब करेंगे। परन्तु किसी के भी सामने लाचार नहीं होंगे। हम अपने स्वाभिमान को गिरवी नहीं रखेंगे। हमारा संकट चाहे कितना भी बड़ा क्यों ना हो जाए ङ्गिर भी हम दूसरों के सामने ना तो हताश होंगे और ना ही हीन-दीन बनेंगे। यदि मैं अपने भगवान का हूँ, साईनाथ मेरे पिता हैं तो मुझे ऐसा करने की जरूरत ही क्या है? मैं यदि ‘जी हुजूरी’ करूँगा तो केवल अपने भगवान की ही, अपने इस साईनाथ की ही। मैं हाथ फ़ैलाऊँगा, आँचल फ़ैलाऊँगा, नाक रगडूँगा तो वह भी केवल अपने साईनाथ के सामने ही। बाबा के अलावा अन्य किसी की भी ‘जी हुजूरी’ मैं नहीं करूँगा। अण्णा चिंचणीकरजी ये यहाँ पर हमारे समक्ष एक स्वाभिमान भक्त का उदाहरण-स्वरूप हैं।

हेमाडपंत के द्वारा सिफ़ारिश करने के लिए न कहने पर भी अण्णा ने स्वयं ही हेमाडपंत के लिए बाबा के समक्ष गुहार लगाई। अण्णा की सिफ़ारिश की बात सुनकर बाबा ने कहा, ‘‘अरे, नौकरी की क्या बात कर रहे हो! वह तो मिल जायेगी उसे। उसमें कौन सी बडी बात है! परन्तु अब इसे इस तरह की नौकरी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसे अब मेरी ‘चाकरी’ करनी है। व्यर्थ ही नौकरी की चिंता नहीं करनी है। मेरी चाकरी करने से ही इनकी गृहस्थी और परमार्थ दोनों ही सुखमय हो जायेंगे। इनकी थाली सदैव ही भरी हुई रहेगी और भरी हुई ही है अर्थात् इनकी घर-गृहस्थी में किसी भी बात की कमी नहीं आयेगी और इन बातों के प्रति कभी भी चिंता करने की घड़ी नहीं आयेगी। मेरे चरणों में दृढ़भाव रखने से ही इनकी सभी आपदाएँ दूर होकर श्रेयस् की प्राप्ति होगी। इसके आगे अब से इसे भक्तिभाव के साथ मेरी ही सेवा करनी चाहिए। मेरा ही बस्ता (दफ्तर) रखना है। इससे परमेश्‍वर की कृपा से अपरंपार खजाने की प्राप्ति होगी। इसके साथ यह भी कहा कि कभी भी ऐसे लोगों की परछाई तक अपने पर पड़ने नहीं देनी चाहिए, जिन लोगों ने धर्माचरण छोड़कर स्वैराचारी वृत्ति को अपना लिया है। भगवान को और उनकी न्यायनीतिमर्यादा को न मानकर जो आचारविचारहीन भ्रष्ट आचरण करते हैं, जो शीलहीन, दुराचारी बन चुके हैं, ऐसे लोगों से सदैव दूर ही रहना चाहिए।’

इसके आगे भी बाबा अत्यन्त मौलिक उपदेश करते हैं। परन्तु यहाँ पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हेमाडपंत को बाबा ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि योगक्षेम की चिंता मत करना। मैंने तुम्हारे योगक्षेम का वहन करने की ज़िम्मेदारी पहले ही उठा ली है। बाबा ने हेमाडपंत को ‘बस्ता रख दो’ यह आज्ञा तो दे ही दी है और उसी का निर्देश बाबा पुन: यहाँ पर कर रहे हैं। ‘हेमाडपंत को अब मेरी ही चाकरी करनी है’ ये बाबा के बोल साफ साफ बताते हैं कि हेमाडपंत को दास्यभक्ति का स्वीकार करके बाबा के कहेनुसार बाबा का चरित्र लिखने का काम आगे चलकर करना है। हेमाडपंत आगे चलकर यह काम तो करने ही वाले थे। पर फ़िर भी अपने परिवार के उदर-निर्वाह की ज़िम्मेदारी उनकी अपनी होने के कारण उसे पूरा करने के लिए वे नौकरी की तलाश में थे। मात्र अब बाबा के स्वयं ही स्पष्ट कहने पर उनके मन में कोई भी प्रश्‍न न रहा। उनकी चिंता पूर्णरूप से खत्म हो गई। सच्चे भक्त का प्रयास यदि नीतिमान है तो सद्गुरु भी उसे तत्काल कैसे प्रतिसाद देते हैं यही हम यहाँ पर देखते हैं। हेमाडपंत को कोई भोगलोलुपता हेतु नौकरी नहीं करनी थी, परन्तु बाबा के चरित्र-लेखन का कार्य करते समय, पेंशन कम पड़ जाने के कारण आर्थिक समस्याएँ यदि खड़ी हो जायें तो उस कारणवश अपने कार्य से कहीं ध्यान विचलित न हो जाये इसीलिए वे नौकरी ढूँढ़ रहे थे। परन्तु ये साईनाथ कितने दयालु हैं यह देखिए, उन्होंने उनके मन में यह कश्मकश नहीं रहने दी और चरित्र लेखन का कार्य निश्‍चिन्त रूप से करने का मार्ग उनके लिए आसान कर दिया। जिसे अपने भगवान के कार्य की चिंता होती है, उसकी चिंता तो भगवान करते ही हैं, उसके योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते ही हैं, इस बात का पता यहाँ पर हमें चलता है।

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