श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ४६

तृतीय अध्याय के आरंभिक विभाग में अनेक अप्रतिम पंक्तियाँ हैं। वैसे देखा जाए तो साईसच्चरित की हर एक पंक्ति का ही अपने आप में एक सुंदर महत्त्व है, परन्तु इन पंक्तियों में ‘साईनाथ उवाच’ एवं ‘हेमाडपंत उवाच’ इन दोनों ही प्रकार की पंक्तियों के माध्यम से हमें इस बात का पता चलता है कि साईसच्चरित की कथाओं का मार्ग किस तरह से सहज, सर्वांगसुंदर एवं सर्वश्रेष्ठ है और इसी बात का मार्गदर्शन वे करती हैं। ‘साई उवाच’ अर्थात् साईनाथ के मुख से निकला हुआ वचन एवं ‘हेमाडपंत उवाच’ अर्थात् हेमाडपंत के स्व-अनुभूति के बोल। हमारे लिए ये दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक की सभी पंक्तियों में से हमारी समझ में यह आ ही चुका है कि श्रीसाईराम के गुणसंकीर्तन का मार्ग ही हमारे लिए सर्वथा श्रेयस्कर है। इसीलिए अन्य साधनों में उलझने की बजाय गुणसंकीर्तन के इस आसान मार्ग पर चलना ही सर्वथा हितकारक है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई

अब इस अध्याय की प्रथम कथा का आरंभ हम करने जा रहे हैं। यह कथा १९१६ की है। यह कथा हेमाडपंत से संबंधित है। यह घटना गुरुपूर्णिमा के दिन घटित हुई थी। यह कथा दो हिस्सों में बँटी हुई हैं। पहला चरण यह है कि जब साईनाथ कहते हैं कि अब तुम मेरे लिए ही काम करो। दूसरा चरण यह है कि साईनाथ के मुख से निकलनेवाले अमृतवचनों को हेमाडपंत पुन: इन्हीं कथाओं के अनुषंग से कह रहे हैं। यहाँ पर साईबाबा स्वयं ही मार्गदर्शन कर रहे हैं, इसीलिए यह कथा हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है। सर्वप्रथम हम यह देखेंगे कि कथा में क्या है। तत्पश्‍चात् इसी अनुषंग से इन कथाओं के साथ ही बाबा के अमृतवचनों का भी प्राशन करेंगे।

कथा का आरंभ इस प्रकार से होता है। १९१६ में हेमाडपंत सरकारी नौकरी से निवृत्त हो गए और उन्हें निवृत्तिवेतन अर्थात् पेन्शन मिलने लगी। उस वक्त हेमाडपंत के ही कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी थी। पत्नी, पाँच बेटियाँ और एक बेटा, यह था उनका परिवार! उनमें से चार बेटियों का विवाह हो चुका था। फ़ीर भी एक बेटी और बेटा दोनों ही वैद्यकशास्त्र की पढ़ाई कर रहे थे। इसके अलावा घर में आनेवाले मेहमानों के साथ साथ अन्य आप्तमित्रों का भी आना जाना लगा रहता था। ऐसी परिस्थिति में घर में कोई भी कमानेवाला न होने के कारण दोनों बच्चों की पढ़ाई, उनका विवाह आदि की बातों की ज़िम्मेदारी हेमाडपंत पर ही थी। हेमाडपंत ने अपनी नौकरी पूरी ईमानदारी से की थी और साथ ही ज़रूरतमंदों की सहायता करना आदि सेवाकार्य भी वे कर रहे थे। इसके साथ-साथ पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को निबाहते हुए चार बेटियों की शादी भी वे कर चुके थे। जब तक वे सेवानिवृत्त नहीं हुए थे, तब तक तो उन्हें किसी भी बात की कमी कभी महसूस नहीं हुई थी। परन्तु अब सेवानिवृत्त होने पर पेन्शन में पूरे घर का कारोबार चल पायेगा या नहीं, इसी बात की चिंता उन्हें सता रही थी।

यहाँ पर हमारे मन में यह सवाल उठ सकता है कि हेमाडपंत तो श्रीसाईनाथ के इतने श्रेष्ठ भक्त हैं, फ़ीर उन्हें इस प्रकार की चिंता क्यों सता रही थी? क्या उन्हें अपने साईनाथ पर भरोसा नहीं था? साईबाबा के होते हुए बाबा उन्हें किसी भी बात की कमी महसूस नहीं होने देंगे, इस बात का विश्‍वास क्या उनके मन में नहीं था?

इन प्रश्‍नों का उत्तर यह है कि बाबा के बारे में हेमाडपंत के मन में विश्‍वास नहीं है ऐसा बिलकुल भी नहीं है। हेमाडपंत की निष्ठा, साई के प्रति उनके मन में होनेवाला विश्‍वास अटल एवं अटूट हैं। यहाँ पर हेमाडपंत के इस आचरण से हमें यह सीख मिलती है कि ‘मैं जिनकी आराधना करता हूँ वे यदि भगवान हैं तो वे मुझे खटिये पर ही परोसी हुई थाली लाकर देंगे’ इस प्रकार की गलत धारणा भक्तों को कभी भी नहीं रखनी चाहिए।

‘मेरे साईनाथ हैं तो मुझे नौकरी करने की ज़रूरत ही क्या है? वे मुझे परोसी हुई थाली लाकर देंगे ही, वे सबकुछ देख लेंगे। मुझे हाथ-पैर चलाने की जरूरत ही क्या है?’ इस प्रकार की गलत धारणा भक्त को कभी भी नहीं रखनी चाहिए।

सच में, ‘हेमाडपंत कितने आदर्श भक्त हैं’ इस बात का पता हमें उनकी परिवार के प्रति रहने वाली इस चिंता से चलता है। बाबा पर अपनी सारी ज़िम्मेदारियों का भार डालना चाहिए, परन्तु कब? जब मैं साईनाथ ने मुझे जितनी योग्यता दी है, उसके अनुसार मैं लगातार प्रयास करता रहता हूँ, जब मैं अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा के साथ निभाता हूँ, मैं अपना कर्तव्य पूरा करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ता हूँ। तब मुझे बाबा पर भार डालने का अधिकार है। नहीं तो मैं केवल गुरुवार के दिन जाकर बाबा के समक्ष खड़े रहकर कहता हूँ कि बाबा मुझसे कुछ नहीं होनेवाला, जो भी है तुम ही देख लेना। इस तरह से सारा भार बाबा पर डालना सर्वथा गलत ही होगा।

बाबा ने हमें पूर्ण एवं स्वस्थ शरीर दिया है। हमारी सभी ज्ञानेंद्रियाँ एवं कर्मेंद्रियाँ उत्कृष्ट रूप से कार्य कर ही हैं और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि एक मानव होने के नाते परमात्मा की ओर से सर्वोत्कृष्ट बुद्धि नामक देन हमें प्राप्त हुई है। फ़ीर श्रीसाईनाथ के द्वारा दी गई इस शक्ति का, योग्यता का उपयोग न करते हुए आलसी बनकर, बिना पुरुषार्थ किए सब कुछ बाबा पर ही डालकर, अपना हाथ साफ़ कर हम कितनी बड़ी गलती करते हैं ना!

तुम्हारे भार का वहन करूँगा मैं सर्वथा।
नहीं है यह अन्यथा वचन मेरा॥

हमारी बात का समर्थन करने के लिए हम बाबा के इस ऊपर उल्लेखित वचन का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि ‘देखो! बाबा ने तो स्वयं ही हमसे यह कहा है कि तुम्हारे भार का वहन मैं करूँगा सर्वथा और मेरा यह वचन सत्य है। फ़ीर यदि मैं सब कुछ बाबा पर डालकर निश्‍चिन्त हो गया तो इसमें गलत ही क्या है?

हमारे पास अपनी कमजोरी को छिपाकर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर धकेलने की होशियारी भरपूर होती है। इसी बुद्धि का उपयोग यदि हम पुरुषार्थ करने के लिए करें तो! पर नहीं। हम अपने स्वार्थ के लिए, अपने फ़ायदे के लिए साईनाथ के वचनों का अर्थ अपनी इच्छा के अनुसार जैसे चाहिए वैसे निकालते हैं और यही हमारा अपराध है। साक्षात ईश्‍वर के वचनों का अर्थ अपनी इच्छा के अनुसार, अपने स्वार्थ के लिए निकालना इसके समान अन्य कोई पाप नहीं है।

जो लोग साईबाबा के द्वारा दिए गए वचनों का इस तरह से विपरितार्थ निकालते हैं, उन्हें हमें करारा जवाब देना चाहिए। अब इस वचन के बारे में ही देखिए! कोई इसका गलत अर्थ निकालकर पुरुषार्थ से विमुख होने की बात कहे तो हमें उससे कहना चाहिए कि तुम जो बाबा के वचन के बारे में कह रहे हो वह सरासर गलत है, क्योंकि इस वचन को कहने से पहले का बाबा का जो वचन है, उसे तुम भूल गए हो। संदर्भ को भूलकर किसी वचन का अपनी जरूरत के अनुसार अर्थ निकालना उचित नहीं है। इस वचन से पहले बाबा के बोल क्या हैं, उस पर भी ध्यान दो और उसके पश्‍चात् ही इस वचन का अर्थ निकालो। ‘तुम्हारे भार का वहन करूँगा मैं सर्वथा’ इससे पहले बाबा का वचन इस प्रकार है –

मेरी भक्ति करेगा जो जिस भाव से।
उसके उस भाव के अनुसार ही मैं उसे प्रतिसाद दूँगा॥

जो जो मुझे जिस भाव के साथ भजता है, मैं भी उसी भाव के साथ उसकी इच्छा पूरी करता हूँ। तात्पर्य यह है कि तुम जिस अंत:स्थ भाव के साथ मुझे भजते हो वैसे ही उसका फ़ल मैं तुम्हें देता हूँ। फ़ीर यदि तुम स्वयं बगैर कुछ किए अपनी खुद की जिम्मेदारी को झटककर मुझ पर भार डालने की बात करते हो अर्थात् तुम्हारा मुझे भजने का भाव स्वयं की जिम्मेदारी को झटककर कर्तव्य-विमुख होने का हो तो तुम्हें इसका ङ्गल भी वैसा ही प्राप्त होगा। मैं भी तुम्हारे कान पकड़कर तुमसे काम करवा ही लूँगा। जो काम तुम कर सकते हो, जो काम करना तुम्हारा परमकर्तव्य है, ऐसी जिम्मेदारी यदि तुम मुझ पर डालकर स्वयं पुरुषार्थ किए बगैर नींद के मज़े लूटोगे, तो मैं भी तुम्हें भरी नींद से जगाकर वह जिम्मेदारी तुमसे पूरी करवा ही लूँगा।

अपना बच्चा जब पढ़ाई नहीं करता है और माँ से कहता है, माँ तुम ही मेरा होम वर्क पूरा कर दो तो माँ उसके कान ऐंठकर उस बच्चे का काम उस बच्चे से ही करवा लेती है। वैसे ही मैं भी हूँ, मुझे कोई भी बहका-फ़ुसला नहीं सकता है।
यही साईनाथ हमसे कहते हैं।
इसी लिए हमें यहाँ पर इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि अपनी जिम्मेदारी को पूरी करने के लिए मैं अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करूँगा। मेरी इस कोशिश में मेरे साईनाथ हर प्रकार से मेरी मदद करेंगे और यह करने के लिए वे पूर्ण रूपेण समर्थ हैं।

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