श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-२२)

यही है गुरुकृपा की महिमा। कि जहाँ पर न हो रत्ती भर भी नमी।
वहाँ पर भी वृक्ष पुष्पित हो उठता है। घना हो उ़ठता है बिना प्रयास के ही॥

साईनाथ की कृपा की महिमा का वर्णन हेमाडपंत इस तरह कर रहे हैं कि जहाँ पर बीज का अंकुरित होना भी असंभव होता है, वहाँ पर घने वृक्ष का निर्माण करने की ताकत केवल इस साईनाथ की कृपा में ही होती है। बंजर ज़मीन को भी साईनाथ ने बगीचा बना दिया यह हम आगे चलकर साईसच्चरित में पढ़ते ही हैं। हमारा मन भी इसी प्रकार की ज़मीन होता है, थोड़ी सी भी नमी न होनेवाली ज़मीन होता है, जहाँ पर किसी भी अच्छे बीज का अंकुरित होना संभव ही नहीं होता है। साईबाबा के पास आने से पहले यदि मैं कैसा था इसके बारे में मैं सोचता हूँ, तब हेमाडपंत हम से क्या कहना चाहते हैं, इस बात का अहसास हमें पूरी तरह हो जायेगा।

साईनाथ से मिलने से पूर्व मैं कैसा था? मेरा मन कैसा था? इन प्रश्‍नों के उत्तर यदि मैं ढूँढ़ता हूँ तब मुझे इस बात का अहसास होगा कि सचमुच बाबा के कृपा से ही यह भक्तिबीज बाबा ने ही मेरे मन में पिरोया, बढ़ाया, पुष्पित किया। बाबा के पास आने से पहले केवल ज़रूरत पड़ने पर ही भगवान की याद आती थी। संकट आने पर ही भगवान याद आते थे। इसके अलावा भगवान के साथ मेरा कोई वास्ता नहीं था।

भगवान की भक्ति क्या होती है, यह यथार्थ रूप में देखा जाए तो मुझे पता ही नहीं था। हम जिसे भक्ति कहते हैं, वह हमारा आचरण ‘बार्टर सिस्टम’ की तरह होता है। ‘हे भगवान तुम मुझे पास कर दो, मैं तुम्हें इतने रुपयों का प्रसाद चढ़ाऊँगा, हार चढ़ाऊँगा’ आदि बातों को ही हम भक्ति का नाम देते हैं। ‘हे भगवान तुम मुझे संकट से बाहर निकाल दो तो मैं तुम्हें यह दूँगा, वह दूँगा’ आदि लेन-देन! बस इतनी ही होती थी हमारी भक्ती।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईइसके अलावा अधिक से अधिक हमारी भक्ति की परिभाषा और क्या होती है? तो बस, इतने गुरुवार बाबा के मंदिर में जाऊँगा, साथ ही उस समय मैं साईबाबा को इस बात की याद भी दिलाता हूँ कि बाबा मैंने इतने गुरुवार आपके दर्शन करने के लिए आने की मन्नत मानी है, इससे पहले ही मेरा काम हो जाना चाहिए। मान लीजिए कि हम यदि गुरुवार को नहीं जायेंगे तो क्या बाबा का सारा कारोबार ठप्प हो जानेवाला है! ‘ये देखो, एक रूपया तुम्हें ‘दान’ में दे रहा हूँ’, यह कहकर दस बार उसे भगवान पर से उतारकर पेटी में डाल देना कि मानों भगवान उस एक रूपये पर ही निर्भर हैं; क्या ऐसा करना उचित है? बिलकुल भी नहीं।

कुछ लोग तो भगवान को भी चुनौती देते हैं यह कहकर कि यदि तुम सच्चे हो, तुममें शक्ती है तो तुम मेरा काम इतने-इतने दिनों में करके दिखलाओ। जैसे वे बाबा की परिक्षा लेना चाहते है। क्या उनकी इतनी योग्यता होती है, बाबा के साथ ऐसा व्यवहार करने की! मेरा काम करके दिखलाओगे तो ही मैं तुम्हें मानूँगा नहीं तो नहीं। कितना अनुचित है यह व्यवहार!

‘तुम यदि सच्चे हो तो…’ इसका अर्थ क्या है? बाबा क्या झूठे हैं? यदि तुम्हारा काम नहीं किया तो क्या वे सद्गुरुतत्त्व नहीं हैं? बाबा सद्गुरुतत्त्व हैं या नहीं इस बात का फैसला करनेवाले तुम या हम हैं कौन आखिर? क्या बाबा तुम्हारे नौकर हैं जो वे तुम्हारी आज्ञा से तुम्हारा काम करेंगे। अरे, तुम बाबा के पास विनति करने आये हो या ऐंठ दिखाने? ‘…..तो ही मैं तुम्हें मानूँगा नहीं तो नहीं’ यह तो नीरा मूर्खता है। कोई बाबा को सद्गुरुतत्त्व मानता है या नहीं, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। तुम्हारे मानने या ना मानने से क्या बाबा का सद्गुरुत्व सिद्ध होनेवाला है? तुम इतने बड़े कौन होते हो, बाबा का सद्गुरुत्व सिद्ध करनेवाले? तुम्हारी औकात ही क्या है, बाबा के समक्ष मुँह खोल सकने की, उनके सामने खड़े रहने की?

बाबा का किसी के बिना कुछ भी रुकता नहीं है। कल को यदि कोई भी बाबा को नहीं मानता है, फिर भी बाबा, बाबा ही है और वे बाबा ही रहनेवाले हैं। साईनाथ सद्गुरुतत्त्व ही हैं और इसके लिए उन्हें किसी के मानने की ज़रूरत ही नहीं है। हम बाबा की भक्ति करते हैं, इसीलिए वे सद्गुरु हैं, उनका दिव्यत्व है, ऐसी गलतफहमी में कोई यदि जीता है तो यह उसकी मूर्खता है।

हम इतने गुरुवार से बाबा के पास आते हैं तो क्या हम बाबा पर उपकार करते हैं? हम एक रुपये का सिक्का दस बार दिखाकर फेंकते हैं इसका अर्थ क्या हम बाबा पर उपकार करते हैं? बिलकुल नहीं। बाबा को हमारे पैसे-वैसे की, सोने-चाँदी की कोई ज़रूरत नहीं है। कोई कुछ नहीं देगा तब भी उससे बाबा का कुछ नुकसान नहीं होनेवाला है। अरे, बाबा को कोई क्या दान करेगा, उलटे ये साईनाथ ही अपनी कफनी से निकालकर हमें बेहिसाब देते रहते हैं। किसी को यदि ऐसा लगता है कि मैंने बाबा को इतनी दक्षिणा दी है तो यह उसकी गलतफहमी है। हमारे प्रारब्ध के भोगों को हलका करने के लिए ही बाबा हम से दक्षिणा माँगते हैं, इस बात का हमें सर्वथा ध्यान रखना चाहिए।

छत्तीसवें अध्याय में गोमंतकस्थ दो गृहस्थों की कथा ठीक पढ़नी चाहिए। बाबा दक्षिणा क्यों माँगते हैं, इसका कारण हमारी समझ में आ जायेगा। हम दक्षिणा देते हैं इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि हम बाबा को ‘दान’ देते हैं, बल्कि हमारे प्रारब्ध को क्षीण करने के लिए ही बाबा दक्षिणा माँगते हैं, जिससे हमारा दुख, भोग, क्लेश कम हो जाये, कष्ट कम हो जाये। इसीलिए बाबा हमसे दक्षिणा माँगने में किसी भी प्रकार से हिचकिचाते नहीं हैं।

‘जिसे जो कहना है वह कहे, परन्तु अपने बच्चों की भलाई के लिए मुझे दक्षिणा माँगनी ही चाहिए। फिर यदि कोई मुझे यह कहता है कि मैं पैसे माँगता हूँ तो भले ही वह कहे, मुझे इसकी कोई परवाह नहीं।’ यही बाबा का निश्‍चय है। हमारी भलाई के लिए बाबा अपने आप पर लोगों के द्वारा लगाये जा सकनेवाले दोष-आरोप सहने को तैयार हैं। पर फिर भी हम अपने इस साई के वात्सल्य को नहीं पहचान पाते हैं, अपने इस कृपालु साई की करूणा पहचान नहीं पाते हैं। हमें यही गुमान होता है कि बाबा को दक्षिणा देकर हमने बहुत बड़ा काम किया है, उपकार किया है। सच तो यह है कि बाबा दक्षिणा माँगकर हरिकृपा का दान कर रहे हैं, जिसका कोई मोल नहीं है, वह तो अनमोल ही होती है। बाबा का यह अचिन्त्यदान और उनका हम पर जो उपकार है, उसका हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए।

गोमन्तकस्थ गृहस्थों की कथा में हम देखते हैं कि दोनों एक साथ ही शिरड़ी में आते हैं, बाबा से मिलते हैं, परन्तु बाबा उनमें से एक से ही ‘मुझे पंद्रह रूपये दक्षिणा दो’ ऐसा कहते हैं और वह गृहस्थ भी आनंदपूर्वक दक्षिणा अर्पण करता है। दूसरे गृहस्थ से बाबा दक्षिणा माँगते ही नहीं, फिर भी वह स्वयं ही बगैर बाबा के माँगे ही पैंतीस रूपये देने लगता है। उस वक्त बाबा तुरंत ही उसे स्वीकारने से मना कर देते हैं।

इस बात का उस गृहस्थ को भी काफ़ी आश्‍चर्य लगता है। उसके मन में आया ही होगा कि हम दोनों एक साथ आए, एक ही समय पर आए, बाबा से मिले, बाबा ने स्वयं ही मेरे साथ आये व्यक्ति से दक्षिणा भी माँगी, पर मुझसे तो कुछ माँगा भी नहीं। मैं बगैर माँगे ही दे रहा हूँ, अपनी इच्छा से, पर फिर भी बाबा ने इसे लेने से इंकार कर दिया।

शामराव यानी माधवराव देशपांडेजी बाबा से ‘आप ने ऐसा क्यों किया’ यह आश्‍चर्यपूर्वक पूछते भी हैं। इस पर बाबा ने जो उत्तर दिया है, उसकी सुंदरता का आप प्रत्यक्ष अनुभव कीजिए। शामा, तुम नहीं जानते। मैं स्वयं किसी से कुछ भी नहीं लेता। यह तो मेरी मस्ज़िद माई माँगती है। ऋणमुक्त हो जाता है देनेवाला।

साई यह भी कहते हैं –

मजला काय आहे घर। किंवा माझा आहे संसार। जे मज लागे वित्ताची जरूर। मी तो निर्घोर सर्वांपरी॥
परी ऋण वैर आणि हत्या। कल्पांतींही न चुकती कर्त्या। देवी नवसिती गरजेपुरत्या। मज उद्धरित्या सायास॥
तुम्हांस नाही त्याची काळजी। वेळेपुरती करितां अजीजी। अनृणी जो भक्तांमाजी। तया मी राजी सदैव॥
(मेरे पास ना तो घर है और ना ही मेरी गृहस्थी है। मुझे तो पैसों की भी कोई ज़रूरत नहीं है। मुझे तो किसी भी बात की चिन्ता नहीं है॥)

परन्तु ऋण वैर और हत्या ये बातें जन्मजन्मान्तर तक पीछा नहीं छोड़तीं। लोग अपनी ज़रूरतों के लिए भगवान को मन्नतें करते हैं, भूल जाते हैं। मुसीबत के समय ही भगवान को याद करते हैं और बस इसी चक्कर में पडे रहते हैं। जो मेरे पास आता है, उसका इस चक्र में से उद्धार मुझे ही करना पड़ता है॥

तुम लोगों को इन सभी बातों की चिंता नहीं रहती। सिर्फ़ ज़रूरत पड़ने पर ही चक्कर काँटते हैं। किसी भी प्रकार का ऋण जिनपर नहीं होता है ऐसे अनृणी भक्त पर मैं सदैव प्रसन्न रहता हूँ॥

आरंभीं हा अकिंचन तयासी। पंधरा देतांच केलें नवसासी। पहिला मुशाहिर देईन देवासी। भूल तयासी पडली पुढें॥
पंधराचे तीस झाले नंतर। तिसांचे साठ, साठांचे शंभर। दुप्पट चौपट वाढतां पगार। बळावला विसर अत्यंत॥
होतां होतां जाहले सातशें। पातले येथें निजकर्मवशें। तेव्हां मीं माझे पंधरा हे ऐसे। दक्षिणामिषें मागितले॥
(आरंभ में इसके (गोमान्तकस्थ गृहस्थ के) पास कुछ भी नहीं था। पंद्रह रूपये वेतन (तनख्वाह) मिलते ही उसने मिन्नत मान ली कि पहला वेतन भगवान को अर्पण करूँगा। लेकिन आगे चलकर उसे इस मिन्नत का विस्मरण हो गया॥)

वेतन पंद्रह के तीस हो गया, तीस के साठ और साठ से सौ हो गया। वेतन दुगुणा-चौगुणा बढ़ता ही चला गया। इससे मिन्नत का विस्मरण और भी बढ़ते चला गया॥

बढ़ते-बढ़ते वेतन सात सौ हो गया। तब यह यहाँ पर निजकर्म के वश होकर आ पहुँचा है और इसी कारण इस वक्त मैंने अपने पंद्रह रूपये दक्षिणास्वरूप में माँग लिए॥

बाबा के द्वारा दिए गए इस उत्तर में ही सारे रहस्य खुल गए हैं। परन्तु हमारा मन, ‘बाबा दक्षिणा क्यों माँगते हैं’ आदि बातों में उलझा रहता हैं। ना तो हमारे मन में रत्ती भर भी विश्‍वास होता है और ना ही प्रेम। फिर भी ये साईनाथ कितने दयालु हैं देखो! हमारे ऐसे बंजर मन में भी कृपावर्षा करके भक्ति की ङ्गुलवारी खिलाते ही हैं। अपने भक्त को ऋण के चक्कर में से छुडाने के लिए साई कितने सावधान रहकर कृति करते हैं, उन्हें अपने भक्त की कितनी चिन्ता रहती है यह बात यहाँ पर हमारी समझ में आ जाती है। साईबाबा का हम पर जो ऋण है उससे क्या कभी हम मुक्त हो सकते हैं? कभी नहीं। हमें ऋण के दुष्टचक्र से मुक्त कराने वाले साईबाबा के इस प्रेममय ऋण के अहसास को मन में कायम ताज़ा रखने के लिए हमें हमेशा हेमाडपंत की इस पंक्ति को याद रखना चाहिए।

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