श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ३१ )

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‘मैंने कितने ग्रंथ पढ़े, कितने पारायण किये, कितने बड़े बड़े शब्दों के आडंबर किये, कितने ताल-मंजिरे बजाये’, इन सब बातों की अपेक्षा सद्गुरु साईनाथजी के द्वारा कही गई कितनी बातें मेरे आचरण में मैंने उतारी यह बात अधिक महत्त्वपूर्ण है । बाबा जो कहते हैं उसके अनुसार मेरा ‘आचरण’ है या नहीं, बाबा को मुझसे जो अच्छे आचरण की अपेक्षा है उसके अनुसार मेरा आचरण है या नहीं इस बात की स्वयं जाँच-पड़ताल करना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । ‘स़िर्फ पढ़ लेना ही काफी नहीं है । उसे आचरण में उतारना भी ज़रूरी है ।

हमने इस प्रथम अध्याय के महामृत्युंजय सामर्थ्य का अध्ययन किया । सद्गुरु साईनाथ ही हमारे संकल्प के तह पर निरंतरता का खूंटा मज़बूती से ठोककर उसका निश्चय में रूपांतरण करते हैं और संकल्प का अपमृत्यु न होने देकर हमारे निश्चय को पूर्णत्व प्रदान करते हैं, साथ ही इस निश्चय के घूमते हुए जाते में विकल्परूपी वैरी का निर्दलन कर उसे नष्ट कर देते हैं । ये परमशिव साईनाथ ही हमें मृत्यु के शिकंजे से छुडाऩेवाले हैं । कालमृत्यु, अकालमृत्यु इन मृत्युप्रकारों से तो बचाते ही हैं, साथ ही हमारे सत्-संकल्प, कार्य, सद्गुण, सद्विचार आदि अनेक अच्छी बातों की अपमृत्यु से हमें बचानेवाले हैं । साई का सत्यसंकल्प मेरे जीवन में प्रवाहित होते ही अपने-आप सभी प्रकार की मृत्युओं से मेरी मुक्ति होती है ।

इन सभी प्रकार की मृत्युओं से मुक्त होने के लिए मुझे सिर्फ ‘बाबा’ के ‘चरणों’ को हृदय में धारण करना चाहिए । ‘बाबा को मेरी ज़रूरत नहीं है, बल्कि ये साईनाथ ही मेरी ज़रूरत है और मेरे जीवन की सभी स्तरों पर के महामारी से, सभी प्रकार की अपमृत्युओं से मुझे मुक्ति दिलाने के लिए सिर्फ  एकमात्र ये साईनाथ ही समर्थ हैं और साईनाथ के अलावा मेरा और कोई भी नहीं है। इसीलिए बाबा के सेवा-भक्ति में, उनके हर कार्य में मुझे अपनी पूर्ण क्षमतानुसार सहभागी होकर बाबा की आज्ञा के अनुसार आचरण करना चाहिए। यह बात जिसके हृदय पर अंकित हो जाती है उसके हृदय में साई के चरण दृढ़ हो जाते हैं । उसे कालमृत्यु अथवा किसी भी प्रकार की अपमृत्यु का भय नहीं रह जाता है । श्रीगुरुचरित्र के चौदहवे अध्याय की पंक्ति के बारे में हम सभी जानते ही हैं।

जिसके हृदय में विराजते हैं सद्गुरुचरण । उसे कैसा भय दारुण । कालमृत्यु की बाधा नहीं होती है कभी उसे । फिर अपमृत्यु क्या बिगाडेगी उसका ॥

यह अध्याय ही मूलत: भक्त के मन का भय दूर करके मन को सामर्थ्य से भर देता है । यदि मैं मेरे साईराम के कार्य में वानरसैनिक की भूमिका में शामिल हो जाता हूँ, तो फिर मुझे किसी भी बात का भय नहीं रहता है । कोई भी महामारी मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकती है । सद्गुरु के ‘चरण’ किसके हृदय में स्थिर होते हैं? तो जिसका ‘आचरण’ वानरसैनिक का है उसके हृदय में । बड़ी बड़ी डिंगें हाँकने से कुछ नहीं होता । नीतिमर्यादा का आचरण करना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । अहंकार के कारण भक्ति का मुखौटा धारण कर, भक्ति का प्रदर्शन करके लोगों पर प्रभाव डालना, परन्तु स्वयं के आचरण में साईनाथ को अपेक्षित रहनेवाली एक भी बात को न उतारना, उलटे नीतिमर्यादा का उल्लंघन करना, ऐसा करने से सद्गुरु श्रीसाईनाथ के चरण मुझे कभी नसीब नहीं होंगे ।

उचित ‘आचरण’ ही सद्गुरु साईनाथ के चरण मेरे हृदय में स्थिर करने का एकमात्र साधन है । चाहे कितने भी ग्रंथ मैं क्यों न पढ लूँ, कितने भी पारायण कर लूँ, शब्दों के कितने भी बड़े आडंबर क्यों न रचूँ, कितना भी मंजिरा क्यों न बजाऊँ; पर इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है- मैं सद्गुरु साईनाथ के द्वारा कही गई कितनी बातों को अपने आचरण में उतारता हूँ । बाबा के कहे अनुसार मेरा ‘आचरण’ है या नहीं, बाबा मुझसे जो अपेक्षा रखते हैं उस प्रकार मेरा ‘आचरण’ है या नहीं इस बात का निरीक्षण अच्छी तरह से करते रहना सबसे अधिक ज़रूरी है, ‘महज़ पढ़ लेना ही काफी नहीं है, उसे अपनी कृति में भी उतरना चाहिए ’ यह बात हेमाडपंत हमें जोर देकर साईसच्चरित में बताते हैं ।

‘आचरण’ यानी ‘आ + चरण । ‘आ  = आ जाओ’ ‘सद्गुरुचरणों, आ जाओ, मेरे हृदय में स्थिर हो जाओ’ इस भावार्थ से ही यह ‘आचरण’ तत्त्व स्पष्ट होता है । प्रथम अध्याय की कथा की उन चारों स्त्रियों का आचरण ‘हमें हृदय में सद्गुरु के चरणों को कैसे स्थिर करना चाहिए’ इस बात की दिशा प्रदान करता है । जिसके हृदय में सद्गुरु साईनाथ के चरण स्थिर हो चुके हैं, उसे कालमृत्यु, अपमृत्यु इन सब बातों का कोई डर नहीं होता। हमारे संकल्प की अपमृत्यु न हो इसके लिए इस अध्याय के माध्यम से उचित आचरण को समझकर साई के चरणों को अपने हृदय में धारण कर लेना चाहिए ।

इस अध्याय में ही हेमाडपंत स्वयं का अनुभव हमें बताते हैं कि साईसच्चरित लिखने की इच्छा का जिस पल उनके मन में उदय हुआ, श्रीसाईसच्चरित विरचना का जो संकल्प इस कथा के समय उनके हॄदय में उन्होंने किया, उसे साई ने पूर्णत्व प्रदान किया । हेमाडपंत के संकल्प को अपमृत्यु का डर नहीं था, क्योंकि साई के चरण हेमाडपंत के हृदय में पूर्ण रूप से स्थिर हो चुके थे । हेमाडपंत हमें यही बताना चाहते हैं कि जैसे साईसच्चरित के संकल्प का अपमृत्यु न होकर उलटे वह सफल संपूर्ण होकर साईभक्तिरूपी नदी का उद्गम एवं मुख बनकर अजर अमर हो गया, उसी प्रकार हर किसी का उचित संकल्प पूर्णत्व की ओर ले जाने के लिए साईनाथ पूर्ण रूप से समर्थ हैं ही और उत्सुक भी हैं ही । मेरे जीवन में यह होने के लिए मुझे उचित आचरण रखना ज़रूरी है । ये साईनाथ ‘उचिताचारसुखद’ हैं अर्थात उचित आचरण रखनेवाले को पूर्ण सुख प्रदान करते हैं । मृत्यु ही सबसे बडा दुख है और दुख का कारण भी । मेरे संकल्प की मृत्यु का दुख ही कार्य की मृत्यु होने का कारण है । इसके लिए ही उचित आचरण करनेवाले के जीवन की सभी प्रकार की अपमृत्युओं का नाश साईनाथ स्वयं करते हैं और जहाँ पर मृत्यु को प्रवेश करने का कोई मार्ग ही न हो वहाँ पर दुख कैसे होगा?

‘उचित आचरण’ कैसे करना चाहिए इसकी दिशा साईनाथ यहाँ पर स्वयं के आचरण द्वारा प्रथम अध्याय में ही हमें देते हैं । भक्ति-सेवा का कोई भी कार्य करते समय बाबा का यह आचरण हमारे लिए प्रमाण है । इतना ही नहीं गृहस्थी में भी, व्यवहार में भी उचित आचरण करने के लिए बाबा का आचरण हमारा मार्गदर्शक है। हेमाडपंत बाबा के आचरण का अत्यन्त सुंदर वर्णन इस अध्याय की कथा के आरंभ से ही करते हैं ।

एक दिन सुबह के समय, बाबा दंत-धावन कर, मुख-प्रक्षालन करके गेहूँ महीन पीसना आरंभ करते हैं। कोई यह सोच सकता है कि गेहूँ पीसनेवाली कथा में बाबा ने प्रात: उठने से लेकर क्या किया, इस बात की जानकारी हेमाडपंत हमें क्यों दे रहे हैं? हेमाडपंत यूँ ही तो इस बात का विवेचन नहीं कर रहे हैं। हर एक कर्म करते समय वे उस कर्म को और भी अधिक सुंदर बनाने के लिए किस प्रकार के कौशल का होना ज़रूरी है, यही बात वे बाबा के आचरण के द्वारा हमें बता रहे हैं । बाबा कैसा आचरण करते हैं, उसे देख हमें भी ‘कर्म-कुशलता’ सीखकर, ‘फलाशाविरहित कर्म कैसे करना चाहिए’ इसे समझना चाहिए ।

बाबा सर्वप्रथम सुबह समय पर उठकर पीसनेवाली क्रिया करने के लिए पूर्ण रूप से तैयार होते हैं, बाबा को पीसना है और वह भी सुबह उठकर सुबह के समय ही । और इसीलिए बाबा सर्वप्रथम सुबह समय पर उठते हैं । बाबा उठे और उठकर तुरंत ही पीसने बैठ गए, ऐसा नहीं है । बाबा ने सभी कार्यों का पूर्वनियोजन सुव्यवस्थित रूप से किया है । इसीलिए जिस समय पीसने का कार्य आरंभ होना चाहिए, उसके पहले प्रातर्विधि पूर्ण करने के लिए जितना समय लगेगा, उसके अनुसार नियोजन करके बाबा सवेरे के समय उतनी देर पहले उठकर अपने नित्यकर्म पूर्ण कर लेते हैं और फिर गेहूँ पीसने बैठते हैं । ‘समय का पूर्वनियोजन करना’ यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात बाबा यहाँ पर हमें सिखाते है।

हमें इस बात को हमें अपने आचरण में उतारना चाहिए । मुझे इतने बजे यह काम करना है, फिर उससे पहले जो जो काम करने हैं, उन्हें जितना समय लगता है उसे गिनकर उसके अनुसार समय का नियोजन करना चाहिए । यदि हम अपने दैनिक कार्यों में यह नियोजन नहीं करते हैं, तो हमारा कोई भी कार्य निश्चित समय पर पूरा नहीं होता और फिर जल्दबाजी में काम पूरा करना पड़ता है अथवा अधूरा ही छोड़ना पड़ता है अथवा उसे कम करना पड़ता है । अब हम ‘बाबा के आचरण से हमें कितना मौलिक मार्गदर्शन होता है’ इसके बारे में अधिक विचार करेंगे ।

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