श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ४५)

पहले अध्याय की कथा में साईनाथजी के आचरण से हमने यह सीखा कि हर एक श्रद्धावान का उचित आचरण कैसे होना चाहिए, ‘शुद्ध स्वधर्म’ साध्य करानेवाले कर्मयोग की सिद्धि किस तरह होती है। इस दृष्टि से हमने ग्यारह मुद्दों का गहराई से अध्ययन किया। मर्यादाशील भक्ति करते रहने में ही ‘नरजन्म की इतिकर्तव्यता’ है यानी मर्यादा पुरुषार्थ साध्य करने में ही मानवजन्म का श्रेयस् है और इसके लिए हमें साईबाबा के आचरण से सीखना चाहिए। साई के आचरण का हम गहराई से अध्ययन कर रहे हैं।

sainath-  साईसामान्य मानव जब इस मर्यादा पुरुषार्थ को भूल जाता है, उसे इस मर्यादा पुरुषार्थ को कैसे साध्य करना है इस बात का पता ठीक से नहीं चल पाता है, तब उस-उस कालानुसार मानव को शुद्धधर्म पालन अर्थात मर्यादा पालन सिखाने के लिए ही ये परमात्मा मानवदेह धारण करते हैं और फिर स्वयं अपने आचरण के द्वारा मर्यादा का तत्त्व सहज बनाकर हमें दिग्दर्शित करते हैं।

भक्तकल्याण-हेतु बाबा स्वयं पीसने बैठते हैं यानी अपने आचरण के द्वारा भक्तों के लिए मर्यादामार्ग प्रस्थापित करते हैं। जो कार्य उपदेशों के हज़ारों डोस पिलाने से नहीं होता, वह स़िर्फ आचरण के द्वारा सिद्ध हो जाता है।

‘परी दळणारा हाचि एक’ (पर पीसनेवाला यही एक) इस पंक्ति से हेमाडपंत हमसे स्पष्ट रूप में कहते हैं कि ‘प्रत्यक्ष’ पुरुषार्थ करके हमारे लिए मर्यादापालन की राह सहज ही आसान करके देनेवाले स़िर्फ एकमात्र ये परमात्मा ही हैं।

काँटे से काँटा कैसे निकालना चाहिए और फिर दोनों काँटों को फेंक देना चाहिए, यह बात स्वयं के आचरण के द्वारा दिखानेवाले स़िर्फ मेरे ये साईबाबा ही हैं। बाबा ने गेहूँ पीसने की क्रिया से महामारी का काँटा निकाला था, यही हम यहाँ पर देखते हैं और बाबा ने उस कर्म को भगवत्-अर्पण (भगवदर्पण) करके स्वयं कोई श्रेय न लेकर और साथ ही ब्रह्मार्पण योग का अहंकार न रखते हुए ‘शुद्ध स्वधर्म पालन’ भी किया है।

हमारे जीवन में अहंकाररूपी काँटा ही हमारे जीवन को क्लेशमय बनाते रहता है। इस अहंकाररूपी काँटे के चुभे होने के कारण ही हमारे जीवन में सभी स्तरों पर महामारी आती रहती हैं और इसके लिए ही भगवदर्पण कर्मयोग के काँटे का उपयोग करके इस अहंकाररूपी काँटे को निकालने के लिए, महामारी का नाश करने के लिए, अहंकाररूपी वैरी को खत्म करने के लिए हमारे जीवन में भी यह गेहूँ पीसने की कथा घटित होनी चाहिए। इस पीसने की कथा के समान ही चार स्तरों पर यह घटना जब मेरे जीवन में घटित होती तभी महामारी जैसी बीमारी का विनाश होता है। पिसाईवाली कथा जिन चार स्तरों पर घटित हुई, उसके बारे में हम सविस्तर चर्चा करेंगे।

१)बाबा का स्वयं द्वारकामाई में गेहूँ पीसना शुरू करना।
२)चारों स्त्रियों का बाबा के पीसने के कार्य में शामिल होना।
३)बाबा की आज्ञानुसार उस आटे को स्वयं के लिए न रखकर गाँव की सीमा पर ले जाकर डाल देना।
४)स्वयं को किसी भी प्रकार का कोई श्रेय न लेते हुए ‘कर्ता साईनाथ ही हैं’ इस दृढ़ भाव के साथ ‘कर्म साईनाथार्पण’ करके ‘निश्‍चिन्त’ हो जाना।

इन चार स्तरों की ही तरह हमें अपने जीवन में भी अहंकाररूपी वैरी को नष्ट करके ‘निश्‍चिन्त’ होना होता है। निश्‍चिन्त होना यह बड़ी अच्छी बात होती है। किसी काम के पूरा हो जाने पर हम निश्‍चिन्त कैसे हो सकते हैं? तो उस काम का श्रेय स्वयं न लेने से और उस काम को करते समय भी ‘निश्‍चिन्त’ कैसे रह सकते हैं, तो फलाशा धारण न करते हुए ‘कर्ता साईनाथ ही हैं’ यह विश्वास रखने से ही।

यहाँ पर ‘निश्‍चिन्त’ होना इसका अर्थ जिस तरह मूलत: होता है- स्वच्छता, शुद्धता और पवित्रता के स्रोत रहनेवाले इस साईनाथ का दास बनना, मेरे अंदर की सारी उलझनों को दूर फेंककर केवल साईप्रेम में मस्त रहना। आकाश जब ‘साफ़’ हो जाता है, उस समय वह नीले रंग में रंग जाता है। इस खुले नीले आसमान की तरह जो ‘साफ़-सुधरा’ रहता है, वही इस सावले के सावले रंग में रंग जाता है।

मान लीजिए कि इस समय आसमान में ‘धूँधलापन’ है, काले मेघ छाये हैं और इस कारण से आसमान पूरा भरा हुआ है, ऐसा हम मानते हैं। परन्तु बाद में इन सारे काले मेघों के चले जाने अब यदि स़फेद बादल आकर उसे घेर लेते हैं, तो क्या हम यह मान लेंगे कि आसमान साफ़सुधरा है? नहीं। जब काले एवं स़फेद दोनों प्रकार के बादल दूर चले जायेंगे, तभी आकाश साफ़ कहलायेगा और अखंड नीले रंग से वह ओतप्रोत हो जायेगा।

‘काले मेघ’ यह रूपक है- ‘मैं कर्म करता हूँ’ इस अहंकार का । वहीं, स़फेद बादल यह रूपक है- ‘मैंने कर्म ब्रह्मार्पण कर दिया’ इस सात्त्विक अहंकार का । ‘मैं कर्ता हूँ’ इस अहंकार का त्याग कर दिया यानी काले बादल तो दूर हो गए, परन्तु अभी तक ‘मैंने कर्म साईनाथार्पण कर दिया’ इस सात्त्विक अहंकार के सफेद बादल आसमान में हैं ही और ये बादल छाया और शीतलता देनेवाले भले ही हों, मगर फिर भी मेरा आकाश अभी भी साफ़ नहीं हुआ है और जब तक आकाश पूर्णत: साफ़ नहीं होता है, तब तक संपूर्ण आसमान में नीला रंग कैसे फैल पायेगा?

हमारे मन के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है। जब तक हम अपने मन को ‘साफ़’ नहीं करते, तब तक परमात्मा का साँवला रंग हमारे मन को व्याप्त कैसे कर पायेगा? ये नीलापन, साँवलापन मेरे मन को व्यापने के लिए तो तत्पर है ही, परन्तु उसमें रंग जाने के लिए, वह मन में फैलनें के लिए हमारी मन की उलझनों को दूर कर मन को साफ-सुधरा तो रखना ही होगा।

गेहूँ पीसनेवाली इस कथा के पश्चात् शिरडी में क्या हुआ? तो बाबा ने शिरडी को ‘साफ़-सुधरा’ बना दिया । किस तरह? विसूचिका जैसी महामारी से तो मुक्त कर ही दिया, साथ ही उसके भय से भी । गाँव की सीमा पर आटा डालने पर अब शिरडी में क्या रहा? निर्भयता। पहले महामारी शिरडी पर आक्रमण कर रही थी, उसके डर से शिरडी में चिंता की, भय की छाया आ गई थी। बाबा ने द्वारकामाई में गेहूँ पीसकर आटा निर्माण किया और उसे गाँव की सीमा पर डाल दिया।

इस घटना के पश्चात् शिरडी में क्या हुआ? तो आटा सीमा पर पहुँचते ही महामारी का नामोनिशान तक गायब हो गया और शिरडी में साईकृपा से निर्भयता रह गयी। पहले महामारी, वैरी, भय इन सब का पलडा भारी लग रहा था और इन सब बातों को हटाने के लिए साईबाबा ने आटे की योजना की। साईनाथ ने आटे की योजना के काँटे से महामारी का काँटा निकाला, महामारी और आटा दोनों को शिरडी की सीमा पर यानी गाँव के बाहर ले जाकर डाल दिया, आटे से महामारी को दूर किया और आटे को भी सीमा पर डाल दिया। काँटे से काँटा निकल गया, दोनों काँटें भी नहीं रहे और शिरडी में महामारीम बीमारी भी नहीं रही । ऐसी शिरडी में, ‘मुक्त’ शिरडी में प्रकाशमान रहे केवल मेरे परमात्मा साईनाथ ही।

हमारा जीवन भी ऐसी ही ‘शिरडी’ बन जायेगा। ‘शील धारण करनेवाली’ वही ‘शीलधि’ यानी ‘शिरडी’। सर्वथा साईनाथ का ही समाया होना ही है ‘निर्मुक्तता’। शील को, शालीनता को धारण करनेवाला जीवन यानी शिरडी, यह शिरडी इस शब्द का एक अर्थ है। इस प्रकार का जीवन बनने के लिए मुझे इन चार पडावों के माध्यम से घटित होनेवाली ये गेहूँ पीसनेवाली कथा मेरे जीवन में घटित होने देनी चाहिए।

१) बाबा को पीसने के लिए मेरे द्वारकामाई में बैठना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि साईबाबा मेरे अंतर्मन में, मेरे जीवन में ‘साक्षी’ रूप में न रहकर ‘सक्रिय’ रूप में होने चाहिए। भगवान का मेरे जीवन में सक्रिय होना आवश्यक है। सद्गुरु साईनाथ के हाथों में जीवन की डोर सौंप देनी चाहिए यानी उन्हें ही पीसने देना चाहिए। वे पीसने के लिए उत्सुक हैं ही, तत्पर भी हैं और समर्थ भी हैं, स़िर्फ मेरी तैयारी होनी चाहिए।

२) मेरे जीवन के चार तत्त्व बाबा की आज्ञा के अनुसार तथा बाबा के प्रति होनेवाले प्रेम से कार्यकारी होने चाहिए। ये चार तत्त्व हैं- विवेक, वैराग्य, श्रद्धा और सबुरी ।

३) इन चारों तत्त्वों का पालन करते हुए आटा सीमा पर डालना चाहिए यानी महामारी का विनाश बाबा ने ही किया यह दृढ़ भाव अपने मन में दृढ रखकर, महामारी को नष्ट करने के अहंकार के साथ साथ ‘मैंने कर्म साईनाथार्पण किया’ इस सात्त्विक अहंकार को भी खत्म करके यानी काँटे से काँटा निकालकर दोनों काँटों को फेंक देना चाहिए।

४) यह सब साईनाथ की ही लीला है, इस भाव के साथ ‘अहंकार’ का त्याग करना और ‘मैंने अहंकार का त्याग किया’ इस त्यागभावना के अहंकार का त्याग करना। दोनों अहंकार छोड़कर शिरडी के साईनाथ के चरणों में शरण ले लेनी चाहिए। ये चारों औरतें भी सीमा पर आटा डालकर सूप साईं को वापस सौंपने हेतु द्वारकामाई में वापस आई होंगी ही और वहीं पर उन्हों ने साईचरणों में लोटांगण भी डाला होगा। ‘हमें केवल साईनाथ ही चाहिए। जीवन में और कुछ भी नहीं चाहिए।’ यही उन चारों का भाव हमारे अंदर उतरना चाहिए। ‘महामारी कैसे गई, आटे से कैसे जा सकती है?’ आदि शंकाओं के झमेले मे पड़ने के बजाय ‘मुझे केवल इस साई के साथ ही रहना है। मेरा जीवन भी इस प्रकार ‘मुक्त’ होने के लिए यानी सिर्फ साई से ही भरापूरा होने के लिए यह गेहूँ पीसनेवाली कथा मेरे जीवन में घटित होनी चाहिए।’ यह निर्धार मेरे मन में मज़बूत होना चाहिए।

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