श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-१०४

‘‘आप कहीं भी कुछ भी करते हैं, उन सभी बातों की खबर मुझे उसी क्षण लग जाती है।’’ हमने बाबा के इस वचन का अभ्यास विस्तारपूर्वक किया है। इससे एक बात तो साफ है कि मुझे कोई भी कार्य करते समय उसे सोच-समझकर न्यायसंगत रूप से करना चाहिए और सदैव सावधान रहने की एवं सतर्क रहने की वृत्ति होनी ही चाहिए। साथ ही मुझ में श्रद्धा एवं सबूरी भी होनी चाहिए।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईभगवान जिस मूलभूत नियम के आधार पर ही इस संपूर्ण विश्‍व का कारोबार चलाते हैं, वह नियम है, ‘कर्म का अटल सिद्धांत’। मनुष्य द्वारा किए जानेवाले किसी भी कर्म का फल उसे इस नियम के अनुसार ही मिलते रहता है।

हम ठहरे सामान्य मानव! इसी लिए गलतियाँ तो हमसे होंगी ही। दिन के चौबीसों घंटे हम ध्यान एवं सावधानता का अंगीकार नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह हमारे बस की बात नहीं हैं। तो फिर मुझे क्या करना चाहिए, ऐसा प्रश्‍न हमारे समक्ष खड़ा हो सकता है।

मैं जो कृति करता हूँ, जो कर्म कर रहा हूँ, वह उस भगवान के लिए ही करता हूँ, इस अहसास को सदैव मन में रखकर आचरण करना, यही हम सभी लोग कर सकते हैं। यह होने के लिए अर्थात ऊपर उल्लेखित अहसास का निर्माण होने के लिए भगवान की भक्ति ही सहायक सिद्ध होती है। जैसे-जैसे भगवान के प्रति भक्ति दृढ़ होती जाती है, वैसे वैसे ऊपर उल्लेखित अहसास भी दृढ़ होता जाता है।

इस संबंध में हेमाडपंत आगे वर्णन करते हुए स्पष्ट कर रहे हैं कि गुरुगुण-गायन, गुरुकथा-श्रवण एवं गुरुकथा-कीर्तन ये सभी भक्ति बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं। क्योंकि जितना अधिक सद्गुरु की कथा, रूप, नाम इनसे हम जुड़े रहेंगे, उतनी ही अधिक हमारी भक्ति सद्गुरु के चरणों में दृढ़ होती जाती है।

होणें जरी गुरुपदीं लीन। तेणें करावे गुरुगुणगायन।
अथवा करावे गुरुकथाकीर्तन। अथवा श्रवण भक्तीनें॥
(जो सद्‌गुरु के चरणों में लीन होना चाहते हैं, वे गुरुगुणों का गायन करें अथवा गुरुकथा का संकीर्तन करें अथवा भक्तिपूर्वक श्रवण करें।)

गृहस्थाश्रमी मनुष्य के लिए भी यह करना मुश्किल नहीं है। हेमाडपंतजी कह रहे हैं कि यदि तुम अपनी घर-गृहस्थी में बहुत व्यस्त हो और ऐसे में यदि तुम्हें संतकथा सुनना नसीब हो रहा हो तो इसमें बिलकुल भी आना-कानी मत करो, क्योंकि इससे किसी भी प्रयास के बगैर तुम्हारा कल्याण ही होगा और इसीलिए श्रवण एवं कीर्तन की राह हमें हेमाडपंत बतला रहे हैं।

असतां जरी गर्क संसारी। पडली संतकथा कानावरी।
यत्न न करितां तिळभरी। कल्याणकारी ती स्वभावें॥
(श्रवणभक्ति की महिमा का विवरण देते हुए हेमाडपंतजी हमसे कह रहे हैं कि हम चाहे अपनी घर-गृहस्थी के झमेले में कितने भी व्यस्त क्यों न हो, मग़र फिर भी यदि संतकथा का संकीर्तन हमें सुनना नसीब होता है तो उसे सुनना चाहिए, क्योंकि किसी भी प्रयास के बिना की गयी यह श्रवणभक्ति भी कल्याणकारी ही सिद्ध होगी।)

इस कथा श्रवण के संदर्भ में राजा परीक्षित की कथा है कि सर्प-अस्त्र के कारण राजा परीक्षित की मृत्यु सर्पदंश से होनी निश्‍चित थी, इसी लिए हरिकथा का श्रवण करके जन्म सार्थक कर लेने की इच्छा उनके मन में उत्पन्न होती है। इसी के अनुसार शुक मुनि परीक्षित को भागवत सुनाते हैं। भगवान की कथा का श्रवण पूर्ण हो जाने पर परीक्षित मृत्यु को प्राप्त होते हैं, लेकिन हरिकथा केवल सुनने के कारण अर्थात् भागवत सुनने के कारण परीक्षित का उद्धार होता है। केवल भगवान की कथा का श्रवण करने के कारण क्या हो सकता है, यह इस कथा से बिलकुल स्पष्ट होता है। श्रवण में इतनी शक्ति है तो भगवान की कथा का, उनके रूप का गायन करने से क्या नहीं हो सकता है।

मग ती भक्तिभावें परिसतां। केवढे श्रेय चढेल हाता।
श्रोतां विचार करावा चित्ता। आपुल्या निजहिताकारणें॥
(श्रवण यदि भक्तिभाव के साथ किया जाये तो वह कितना अधिक श्रेयस की प्राप्ति करवाने वाला सिद्ध होगा, इस बात पर श्रोता अपना हित करने के लिए ध्यानपूर्वक विचार कीजिए।)

मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन में भगवान के कीर्तन के प्रति अर्थात् उनके गुणगायन के प्रति रुचि उत्पन्न करें। अत्यधिक चंचल होनेवाला मन सहज ही कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं होता है। विशेष तौर पर श्रेयस् प्राप्त करने के मार्ग से मन अधिकतर दूर ही रहता है। वह प्रेयस् प्राप्त करने के लिए ही उत्सुक रहता है। अत: मन में जितनी अधिक रुचि निर्माण की जायेगी, उतना ही वह उसके लिए अधिक श्रेयस्कर होगा। मन में इस श्रवण एवं कीर्तन के प्रति रुचि निर्माण हो गई तो वह भगवान के चरणों से जुड़ जायेगा और अपने आप ही आसक्ति के बन्धन से मुक्त हो जायेगा।

मना लावितां ऐसा निर्बंध। वाढेल कथाश्रवणछंद।
सहज तुटतील विषयबंध। परमानंद प्रकटेल॥
(मन को हरिगुरुगुणश्रवण में मग्न रहने का निर्बंध लगाये जाने पर, कथा-श्रवण के प्रति रहने वाली दिलचस्पी बढ़ जायेगी और विषयों का बंधन सहज ही टूट जायेगा, परिणामस्वरूप उसे परमानंद की प्राप्ति होगी।)

कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान का नाम लेने से, उनके रूप का वर्णन करने से, उनकी कथा का आख्यान करने से तथा यह सब सुनने से हमारी भक्ति दृढ़ होती है। जैसे-जैसे मेरी भक्ति दृढ़ होती जाती है, वैसे-वैसे ‘मैं अपनी हर एक कृति भगवान के लिए ही कर रहा हूँ’ यह अहसास भी दृढ़ होता रहता है।

इस बढ़ते हुए अहसास के साथ ही मेरा प्रवास भगवान के चरणों की ओर अर्थात् भगवान की दिशा में अधिक तेज़ी से होने लगता है। यह अहसास ही भगवान से रहने वाली मेरी दूरी को कम करने में सहायक सिद्ध होता है।

इसी अहसास की परिणति फिर ‘भगवान मेरे और मैं भगवान का’ इस भाव में होती है, जो भाव भक्ति का अत्युच्च शिखर है।

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