श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ३८ )

हम ने जीवन में प्रमाणबद्धता का विचार एवं आचरण कितना महत्त्वपूर्ण है और इससे हम यशस्वी जीवन कैसे जी सकते हैं, इस मुद्दे का संक्षेप में अध्ययन किया । इसी सातवे मुद्दे को बाबा के आचरण से हमने सीखा । इसके आगे का आठवा मुद्दा है- आत्मनिर्भरता (स्वावलंबन) का । आत्मनिर्भर बनकर रहना जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

ORIGINAL SHIRDI SAIBABA MURTIबाबा गेहूँ पीसने बैठते हैं, तब वे पूर्णत: आत्मनिर्भर बनकर गेहूँ नापने से लेकर जाँते के खूंटे को मज़बूती के साथ ठोककर गेहूँ पीसने तक की क्रिया तक प्रत्येक क्रिया अकेले ही समर्थ रूप में कर रहे हैं यानी बाबा किसी पर भी निर्भर नहीं है, किसी भी चीज़ के लिए किसी पर भी निर्भर नहीं हैं । ‘जो दूसरों पर निर्भर करता है,  उसके कार्य की हानि होती है’ यह कहावत तो हमने सुनी ही होती है ।

देखा जाये तो, बाबा के इतने भक्त हैं, बाबा किसी से भी कह सकते थे कि ‘एक पायली (चार सेर) आटा लाकर दो’ और किसी भी भक्त ने खुशी-खुशी पीसकर लाकर दिया भी होता। बाबा ने यदि अपने भक्तों को एक-एक काम भी सौंपा होता तो वे भी उनके अनुसार पायली भर आटा तैयार करके उन्हें लाकर दे दिया होता । परन्तु बाबा ऐसा कुछ भी नहीं करते हैं । क्यों? क्योंकि बाबा इसके ज़रिये हमें आत्मनिर्भर बनने की सीख दे रहे हैं। जो कार्य मुझे करना है, उसे मैं स्वयं ही करूँगा ।

सोचिए, एक प्रकार से देखा जाये तो क्या वह आटा बाबा को स्वयं के लिए चाहिए था? नहीं । बल्कि गाँव में फैली हुई उस महामारी का नाश हो इसके लिए बाबा यह सब कुछ कर रहे हैं । इसमें बाबा का किंचित्-मात्र भी स्वार्थ नहीं है । लेकिन जिस तरह माँ अपने बच्चों के लिए स्वयं उनके प्रति होनेवाले प्रेम के खातिर पीसने बैठती है, उसी तरह बाबा भी यहाँ पर बैठे हैं । बाबा इस कार्य को अपना समझकर प्रेम से ही यह सब कर रहे हैं । हम भी जब कभी सेवाकार्य में भाग लेते हैं, तब परमात्मा के बच्चों की, श्रद्धावानों की सेवा करते समय ‘मैं किसी पर उपकार कर रहा हूँ’ यह भावना न रखकर ‘यह सब कुछ मैं अपने ही लिए, अपने ही विकास के लिए ‘अपना’ कार्य समझकर कर रहा हूँ और मुझे इस सेवा का अवसर देकर विकास करने का रास्ता दिखलाने हेतु मैं परमात्मा एवं उनके बच्चों का भी ऋणी हूँ’ इस श्रद्धा-भाव के साथ सेवा कार्य करना चाहिए ।

सेवाकार्य ही क्या, कोई भी कार्य करते समय हमारा आत्मनिर्भर होना ज़रूरी है । मैं किसी पर भी निर्भर न रहकर अपनी क्षमता के अनुसार अपना कार्य पूरा करूँगा । ‘वह फलाना व्यक्ति मेरी मदद करेगा, यह मेरा काम करवा देगा, वह मेरा काम करवा देगा’ इन सब झमेलों में न पड़ते हुए अपने कार्य को मैं आत्मनिर्भर रूप में किस तरह कर सकूँगा, इस बात पर गौर करना चाहिए ।

कोई भी गेहूँ पीसने के लिए यदि न भी आता तब भी बाबा गेहूँ को पीसने में समर्थ हैं, उन्हें किसी की भी मदद की कोई ज़रूरत नहीं है और ना ही उन्हें किसीसे कोई अपेक्षा है । मुझे भी अपने गृहस्थी एवं परमार्थ से संबंधित बातों में स्वावलंबी होना चाहिए । यदि कोई सेवा कार्य के दौरान प्रेमपूर्वक मदद के लिए आता है तो उसे भी मौका देना चाहिए । और यदि वह व्यक्ति उस कार्य को अधूरा ही छोडकर चला जाता है, तब उस कार्य को भी पूरा करने का सामर्थ्य मुझमें होना ही चाहिए । इसी लिए कोई भी कार्य पूर्णत: आत्मनिर्भर होकर करना बहुत महत्त्वपूर्ण है ।

साथ ही, हमें कभी भी कोई भी चीज़ किसी से बिना मूल्य दिये नहीं लेनी चाहिए । जो लोग ज़रूरतमंद, अपाहिज़, वृद्ध अथवा दुर्बल हैं उनकी बात और है । परन्तु मैं यदि स्वस्थ, मज़बूत और सक्षम हूँ, तो मुझे किसी से भी कोई भी चीज मुफ्त में स्वीकार नहीं करनी चाहिए । मुझे हर हाल मेंआत्मनिर्भर होना ही चाहिए ।

जिस तरह हम देखते हैं कि बाबा यहाँ पर स्वयं गेहूँ पीसते हैं, उसी तरह वे सिलाई करना, द्वारकामाई में झाडू मारना, स्वयं तेल आदि खरीदकर लाना इस तरह के काम बाबा स्वयं ही करते हैं । राधाकृष्णीमाई की कथा में भी हम देखते हैं कि बाबा राधाकृष्णीमाई के घर की छत पर सीढी लगानेवाले को तुरंत ही उसका मोल चुका देते हैं। हमें भी इस महत्त्वपूर्ण नियम का पालन ईमानदारी के साथ करना चाहिए । किसी से भी कुछ भी मुफ्त में न लेकर स्वयं परिश्रम करके आत्मनिर्भर बनकर रहना चाहिए, क्योंकि श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज के अनुसार जब हम किसी से कुछ मुफ्त में लेते हैं, तब उसने यदि उन पैसों को अनैतिक मार्ग से हासिल किया है तो उस पाप के भागीदार हम बन जाते हैं और उसका ॠण हम पर भी चढ़ जाने के कारण हमें व्याज के साथ उसे चुकाना ही पड़ता है। ‘ऋण, बैर और हत्या’ इन सब का पाप सिर पर बना ही रहता है और उसे जन्मजन्मांतर तक चुकाना ही पड़ता है ।

अब हम नौवे एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर विचार करेंगे । जब हम कोई नये कार्य का आरंभ करते हैं, तब उस कार्य के बारे में पता चलते ही कुछ लोग हमारी मदद के लिए आगे आते हैं । ऐसे व्यक्तियों से मदद लेते समय ‘इस कार्य में सहभागी होने के लिए उनका अन्त:स्थ उद्देश्य क्या है’ इस बात का पूरा विचार किये बिना उनकी मदद नहीं लेनी चाहिए । अन्यथा इस तरह मदद के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवाले हमारे कार्य के साथ धोखा करते हैं और हमारे अच्छे भले काम को बिगाड़ देते हैं । साथ ही सत्कर्म करनेवाले की भी बदनामी करते हैं ।

बाबा के आचरण से यही मुद्दा हमें सीखना चाहिए । जब वे चारों स्त्रियाँ गेहूँ पीसने के कार्य में सहभागी होने के लिए आगे बढ़ती हैं, तब बाबा उनके साथ झगड़ने लगते हैं, उन्हें पीसने देने के लिए तैयार नहीं होते हैं । परन्तु जब उन चारों के सहभागी के पीछे रहनेवाले पवित्रभाव के संदर्भ में विश्वास हो जाता है, तब ही बाबा उन्हें पीसने के लिए बैठने देते हैं । वे चारों स्त्रियाँ पूर्णत: प्रेमवश ही बाबा के उस पीसाई के कार्य में सहभागी होना चाहती हैं, इस बात पर बाबा का विश्वास हो जाने के बाद ही बाबा का गुस्सा अनुराग में परिवर्तित हो जाता है, इस बात का हेमाडपंत कितना सुंदर वर्णन करते हैं!

हेमाडपंत लिखते हैं- ‘अपनी बेटियों के समान रहनेवालीं उन स्त्रियों के मन में रहनेवाले सद्गुरुप्रेम को देखकर साईनाथजी का गुस्सा गायब हो गया और क्रोध का रूप ‘अनुराग’ ने लिया । बाबा मुस्कुराने लगे।’

हमें भी सेवाकार्य में सहभागी होने की इच्छा रखनेवालों के अन्त:करण के हेतु को जानकर ही उन्हें पवित्र कार्य में भाग लेने देना चाहिए । श्रद्धा का मुखौटा पहननेवाला कौन है और सच्चा श्रद्धावान कौन है, इस बात की छानबीन करके ही किसी भी कार्य में उनकी मदद लेनी चाहिए । सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि ज़रूरत पड़ने पर सदाचारी श्रद्धावान से मदद लेनी चाहिए; परमात्मा को, साईनाथ को न माननेवाले दुराचारी श्रद्धाहीन से किसी भी हालत में कुछ भी नहीं लेना चाहिए ।

जो कोई भी परमात्मा के साईरूप को, रामरूप को अथवा अन्य रूप को नहीं मानता है, जो भगवान को ही नहीं मानता है ऐसे व्यक्ति से श्रद्धावान को कभी भी किसी भी प्रकार की मदद नहीं लेनी चाहिए । क्योंकि जो मूलत: भगवान को ही नहीं मानता है वह भगवान के पवित्र नियम को, नीति-मर्यादा को, सात्विकता को कहाँ मानेगा?

मदद करने हेतु आनेवाले उस व्यक्ति के अंत:करण के बारे में मुझे पता कैसे चलेगा? मैं यदि किसी श्रद्धावान से मदद लेता हूँ, तब वह श्रद्धावान भले ही कोई संत न हो, मगर फिर भी भगवान पर होनेवाली उसकी श्रद्धा और प्रभु के द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने का प्रयास तो कम से कम वह कर रहा होता है । और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि वह भगवान से विमुख नहीं है । इसीलिए ज़रूरत पडने पर मैं किसी सदाचारी श्रद्धावान से ही मदद लूँगा और आगे चलकर अपनी सहूलियत के अनुसार उससे जो भी लिया है उसे लौटा भी दूँगा ।

बाबा भी इसीलिए उन चारों स्त्रियों को पीसने बैठने की अनुमति दे रहे हैं । क्योंकि वे भले ही कोई संत न भी हों, परन्तु साईराम के प्रति होनेवाले पवित्र प्रेम के कारण ही वे दौड़ते हुए आई थीं । किसी भी दुराचारी श्रद्धाहीन को बाबा द्वारकामाई की सीढ़ियों पर भी पैर तक रखने नहीं देंगे । हमें भी यह बात बाबा के आचरण से सीखनी चाहिए । मदद करनी हो या लेनी हो तो श्रद्धावान से ही लेनी चाहिए । दया के कारण यदि हम किसी श्रद्धाहीन को धन दे देते हैं और वह उसका उपयोग गलत काम के लिए करता है, तो वह दान साबित न होकर हमें भी पाप का भागी बना देनेवाला कुकर्म साबित होगा ।

नौवा मुद्दा यही है कि यदि कभी किसी से कुछ माँगना पडता है, तो सिर्फ अपने भगवान से ही, अपने इस साईनाथ से ही माँगना चाहिए। अन्य किसी और के आगे हाथ बिलकुल भी नहीं पसारने चाहिए । चाहे जान भी क्यों न चली जाये, लेकिन दुराचारी श्रद्धाहीन के सामने हाथ नहीं फैलाने चाहिए। व्यावहारिक धरातल पर हम जैसे सामान्य मानवों को मदद की जरूरत पड़ती है, पर ऐसे समय पर भी मैं मदद लूँगा भी तो सिर्फ़ श्रद्धावान से ही, यह मेरा निर्धार होना चाहिए । साथ ही, किसी के भी मन के भेद का पता लगाये बिना उसे किसी भी कार्य में, सेवाकार्य में सहभागी नहीं होने दूँगा, यह भी मेरा निश्‍चय होना चाहिए ।

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