श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ३० )

श्रीसाईसच्चरित

साईनाथ के कार्य में सहभागी होने से पहले, सहभागी होते समय एवं कार्य पूर्ण होने पर हमें इस बात का ध्यान सदैव होना चाहिए कि साईनाथ को मेरी ज़रूरत नहीं है, बल्कि मुझे ही साई की ज़रूरत है | साई का किसी के बिना कुछ भी काम रुकता नहीं है, परंतु साई के बिना मेरा सब कुछ अधूरा ही रह जायेगा |

श्रीसाईसच्चरित का यह प्रथम अध्याय हम सभी श्रद्धावान साईभक्तों के लिए ‘महामृत्युंजय’ मंत्र ही है | इस अध्याय में साईनाथ के जॉंते की घूमने की क्रिया से इस महामृत्युंजय मंत्र का घोष ही हमें सुनाई देता है | यह अध्याय हमारे जीवन में किसी भी प्रकार के अपमृत्यु को घुसने नहीं देगा | यह अध्याय हमारे जीवन में अहंकाररूपी ककडी का डंठल तोडकर हमें रजोगुण एवं तमोगुण से मुक्ति देता है | यह अध्याय हमारे जीवन में पवित्रता की खुशबू एवं भक्ति की पुष्टि लाता है |

हमारे जीवन में हमारे विकास में बाधा उत्पन्न करनेवाले अनेक अपमृत्यु बारंबार आते रहते हैं | हम संकल्प करते हैं कि रोज साईसच्चरित का एक अध्याय पढूँगा, पर कुछ ही दिनों में ही हम देखते हैं कि हमारे संकल्प की मृत्यु हो चुकी है | फिर हम तय करते हैं कि कम से कम एक पेज तो ज़रूर पढूँगा, लेकिन वह संकल्प भी अल्पजीवी बनकर रह जाता है | रोज सिर्फ़ पॉंच पंक्तियॉं पढ़ने का संकल्प भी अधिक दिनों तक नहीं टिक पाता | हम तय करते हैं  कि आज से ‘ॐ कृपासिंधु श्रीसाईनाथाय नम:’ इस मंत्र की एक माला का जप रोज करूँगा, आज से मैं अपने बाबा की यह उपासना करूँगा | आज से मैं सेवाकार्य में आधा घंटा हर रोज दूँगा | परन्तु इन सभी संकल्पों की मृत्यु हो चुकी होती है | हर रोज आधे घंटे तक चरखा चलाऊँगा, रामनाम बही का एक पन्ना लिखूँगा, आह्निक करूँगा, श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज का एक पन्ना पढूँगा आदि संकल्प कितने समय तक चल पाते हैं, यह हम भली-भॉंति जानते हैं |

इसी तरह हमारे जीवन में इन अच्छे संकल्पों की अपमृत्यु होने का अनुभव हम करते ही हैं | इससे क्या होता है कि हमारे जीवन में निरंतरता (अविच्छिन्नता) (कंटिन्युइटी) न रहने के कारण ही ऐसी परिस्थितियॉं हम पर आती हैं | सिर्फ़ परमार्थ में ही नहीं बल्कि जीवन के हर एक क्षेत्र में इस निरंतरता का बहुत ही महत्त्व है | संसार एवं परमार्थ दोनों में ही सभी स्तरों पर यह निरंतरता बनी रहे और हमारे अच्छे संकल्पों की  अपमृत्यु न हो इसके लिए यह अध्याय हमारे जीवन में प्रवाहित होना चाहिए |

इस अध्याय की इन चारों स्त्रियों के द्वारा किया गया ‘साई के कार्य में पूर्ण क्षमता के साथ शामिल होकर कार्य को पूरा करने का’ संकल्प सुफल संपूर्ण हो गया | जब हम इन चारों के भक्तिमय गुणधर्मों को बार-बार इस अध्याय के अनुशीलन के द्वारा अपने मन में उतारते रहेंगे, तब हमारे अंदर होनेवाली निरंतरता कायम रखने की शक्ति अधिक से अधिक मज़बूत होती जायेगी| मुझे भी इन चारों की तरह निरंतरता रखकर इस साईनाथ की भक्ति एवं सेवा के हर एक कार्य को पूर्ण करना है, यह भाव बारंबार मन में उठता रहता है और इसके दृढ़ हो जाने पर हमारे अंदर की निरंतरता की शक्ति बढ़ते रहती है |

इस कथा में यदि मैं होता, तो मैंने क्या किया होता? गेहूँ पीसना शुरू करके फिर बीच में ही यह पीसने का कार्य क्या अधूरा ही छोड़ दिया होता? वैसे भी हम हमेशा पीसने का कार्य यानी पुरुषार्थ आधे पर ही छोड़कर उठ जाते हैं, परंतु ये साईनाथ बार-बार हमारे सामने खडे रहकर हमें अपने कार्य को पूरा करने की याद दिलाते रहते हैं, पुरुषार्थ करने की शक्ति देते हैं | बाबा ने इस अध्याय में गेहूँ पीसने से पहले एक महत्त्वपूर्ण काम किया है और वह है ‘खूँटा’ ठोककर उसे मज़बूत करना | इस अध्याय की कथा के द्वारा साईनाथ हमारे मन में यह निरंतरता का खूँटा मज़बूती से ठोकते हैं | जिस पल संकल्प के तह पर इस निरंतरता का खूँटा ठोका जाता है, तब जाकर संकल्प का रूपांतरण निश्चय में हो जाता है और इसी निश्चय के कारण हर एक कार्य पूरा होता है |

हमारे संकल्प की अपमृत्यु न होने पाये इसके लिए संकल्प के तह पर निरंतरता का खूँटा ठोक-ठोककर उसे मज़बूत करके उसका निश्चय में रूपांतरण करनेवाले केवल एकमात्र ये साईनाथ ही हैं | हमारे अच्छे संकल्प की अपमृत्यु होने से रोकने की ताकत सिर्फ़ इस मन:सामर्थ्यदाता साईनाथ में ही हैं | यह खूँटा पीसते समय ढीला न होने पाये इसके लिए बाबा इस खूँटे को ठोक-ठोक कर मजबूत करते हैं, इस बात का अचूक वर्णन हेमाडपंत ने इस अध्याय में किया है |

साईनाथ ने खाली गोनी फैला दी | ऊपर जॉंते की दोनों तहें रख दीं |
खूँटा ठोककर उसे मज़बूत किया | होने न पाये ढीला पीसते समय ॥

ये साईनाथ हमारे जीवन में इसी प्रकार निरंतरता के खूँटे को ठोक-ठोककर मज़बूत करने के लिए तत्पर ही रहते हैं, परन्तु इसके लिए मेरे जीवन में साईनाथ को सक्रिय होने देना चाहिए | इस कथा का पठन-चिंतन करके अपने आचरण में उचित बदलाव करने के लिए जब मैं प्रयत्नशील रहता हूँ, तब ये साईनाथ मेरे जीवन में सक्रिय होकर निरंतरता के, नियमितता के खूँटे को मज़बूती से ठोककर मेरे संकल्प का रूपांतरण निश्चय में करते हैं और इसीलिए साईनाथ के द्वारा ठोककर मज़बूत किया गया खूँटा कभी ढीला नहीं होता |

सद्गुरु की आवश्यकता क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर हेमाडपंत यहीं पर देते हैं | इन चारों स्त्रियों में से कोई भी अथवा अन्य कोई भी इस खूँटे को नहीं ठोकता है | खूँटा ठोककर उसे मज़बूत करने का काम ये मेरे साईनाथ ही करते हैं | आगे सिर्फ़ पीसने का काम हमें साई के शुरु करने पर, उनके पीछे-पीछे करना है | पीसने का आरंभ भी साई स्वयं ही करते हैं | यानी मुझे कैसे पीसना है, यह भी यदि मुझे मालूम नहीं होगा तो कैसे पीसा जाता है, यह स्वयं साईनाथ ही मुझे बता रहे हैं | मेरे बाबा हर एक कार्य पहले स्वयं करते हैं | हर कार्य स्वयं कैसे करना चाहिए, यह बात एक मनुष्य के समान हमें सिखाते हैं | हमें सिर्फ़ साईराम का अनुसरण करना है | स्वयं गेहूँ सूप में निकालना, गोनी पर जॉंते को रखना, खूंटा ठोककर मज़बूत करना और पीसना शुरू कर देना इतना सारा काम अकेले साईनाथ हमारे लिए करते हैं, फिर हमारे लिए पीसने में क्या मुश्किल है?

मीनावैनी कहती हैं वैसे-
हाथ भी उनका, निवाला भी उनका ही, ममता भी यह केवल उन्हीं की |
मुफ्त में मुँह खोलना भी क्यों मुश्किल लगता है हमें? ॥

कितना गेहूँ निकालना है, किस में निकालना है, कहॉं से लाना है इसकी चिंता हमें नहीं है|  जाता उठाने का कष्ट नहीं हमें | खूंटा ठोककर मज़बूत करने की जिम्मेदारी भी हमें नहीं लेनी पड़ती है | साथ ही पीसना कैसे है यह भी यदि हमें पता नहीं होगा, तो ये साईनाथ ‘प्रत्यक्ष’ यह कार्य भी करके दिखला रहे हैं | पीसने की शुरुआत स्वयं मेरे बाबा ही करके दे रहे हैं | फिर सिर्फ़ खूँटा पकड़कर जॉंता घुमाने का छोटा-मोटा काम भी हमारे लिए कठिन क्यों हो जाता है? गेहूँ पीसने के लिए भी बाबा हमें नहीं बुलाते हैं, उनका काम वे ठीक से कर ही रहे हैं और इस काम में हमें भी हाथ लगाने का अवसर वे ही हमें दे रहे हैं |

यहीं पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात हमारी समझ में आती है कि महामारी का नाश करने के लिए मानवी धरातल पर जो गेहूँ पीसने की क्रिया बाबा करते हैं, वह भी पूर्णरूप से करने के लिए बाबा समर्थ ही हैं | मेरे इस साईनाथ को किसी भी काम के लिए किसी की भी ज़रूरत नहीं है, ये अकेले ही सब कुछ करने के लिए पूर्ण रूप से समर्थ हैं |

हम में से कोई भी इस भ्रम में न रहे कि बाबा को उनके कार्य के लिए मेरी ज़रूरत है, मेरे बिना बाबा का कार्य रुक जायेगा | ‘हम यदि गेहूँ नहीं पीसेंगे तो पीसाई का कार्य नहीं होगा’ आदि गलत कल्पनाएँ किसी को भी नहीं करनी चाहिए | हमारे-तुम्हारे बिना साईनाथ का कुछ भी काम रुकनेवाला नहीं है |

इन अनंत कोटी ब्रह्माण्डों का निर्माण जिसने अकेले ही किया है, उस साईनाथ को किसी से भी किसी भी प्रकार के मदद की अपेक्षा नहीं होती | इसीलिए ‘साईनाथ को हमारी ज़रूरत है, हमारे बिना बाबा का काम रुक जायेगा’ इस तरह का बेहूदा विचार यदि कोई करता है, तो वह स्वयं ही अपने लिए नरक का दरवाजा खोल रहा है |

इसी तरह ‘इस आटे को ले जाकर गॉंव की सीमा पर हमने डाल दिया इसीलिए महामारी दूर हुई’ इस प्रकार की सोच यदि पीसने के बाद हम रखते होंगे, तो सर्वप्रथम वह महामारी हमें ही अपना निशाना बनायेगी इतना तो निश्चित है | बाबा को आटा सीमा पर डालने के लिए किसी की भी ज़रूरत नहीं है| आटे को किसी विशेष व्यक्ति के हाथों गॉंव की सीमा पर ले जाकर डाल देने से कोई महामारी जानेवाली नहीं है, बल्कि महामारी का नाश सिर्फ़ ये साईनाथ ही करते सकते हैं | इस साईनाथ के कार्य में सहभागी होने से पहले, सहभागी होते समय और कार्य के पूर्ण हो जाने पर हमें इस बात का ध्यान सदैव रहना चाहिए कि साईनाथ को मेरी ज़रूरत नहीं है बल्कि मुझे ही साई की ज़रूरत है | साई का किसी के भी बिना कुछ भी काम रुकता नहीं है, बल्कि उनके बिना मेरा काम ज़रूर रुकेगा ही | साई ने स्वयं हमारे लिए इस कार्य की नींव रखी है, स्वयं ही कार्य का आरंभ किया है और इस कार्य में सहभागी होकर हमारा समग्र विकास करने का अवसर हमें दिया है, इसके लिए साई के ॠणों का स्मरण रखकर बाबा के चरणों में हमें शरण लेनी चाहिए |

One Response to "श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ३० )"

  1. poonam Lengade   June 3, 2016 at 3:52 am

    Very inspiring information.

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