श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २६ )

29_01_2011_COL

श्रीसाईसच्चरित के पहले अध्याय की कथा की इन चार स्त्रियों में गोकुल के गोप-भक्तों की भक्ति ही ओत-प्रोत दिखाई देती हैं । ये चारों स्त्रियाँ हमारी तरह ही गृहस्थाश्रमी हैं । हो सकता है कि इन चारों में कोई गरीब होगी तो कोई अमीर होगी, कोई अनपढ़ होगी तो किसी को थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना आता होगा, इन में से कोई युवा होगी तो कोई प्रौढ़ ।

वे चारों सहेलियाँ थीं, इस बात का उल्लेख हेमाडपंत ने कहीं भी नहीं किया है, फिर भी इन चारों ने वहाँ पर एक साथ मिलकर गेहूँ पीसा भी और उस आटे को ले जाकर गाँव की सीमा पर ड़ाला भी।

उन चारों की वैसे तो आपस में बनती होगी भी या नहीं भी, परन्तु जिस क्षण वे साई-प्रेम में उनका कार्य करने हेतु द्वारकामाई में प्रवेश करती हैं, उसी क्षण व्यक्तिगत सारे मतभेद दूर कर मेरे साई के कार्य में सहभागी होनेवाली श्रद्धावान महिला यह मेरी सगी बहन ही है, इसी प्रेमभाव के साथ एवं ‘यह कार्य मेरे साई का है, इसे अच्छी तरह से पूरा करना है’ इसी  भाव के साथ उन सब ने इस कार्य को सामूहिक रूप में किया ।

जहाँ मनुष्य है वहाँ-वहाँ गुण-दोष तो होते ही हैं । कोई भी सर्वगुण संपन्न नहीं होता । केवल वे परमात्मा साईनाथ ही सर्वगुण-संपन्न एवं सर्व-ऐश्वर्य-संपन्न हैं । फिर मनुष्य को चाहिए कि वह मनुष्य को मनुष्य समझकर उसके साथ मिलजुलकर काम करे और जब कार्य भक्तिमार्ग का होगा, तब तो परमेश्वरी कार्य में किसी भी प्रकार का व्यक्तिगत अहंकार, दूसरों पर रोब जमाना आदि कुछ भी आडे नहीं आना चाहिए ।

द्वारकामाई में प्रवेश करते समय जैसे हम चप्पल बाहर निकालकर अंदर प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार इस साईनाथ के सामने जाते समय व्यक्तिगत कोश का आवरण बाहर निकालकर रखना चाहिए और ‘मुझे केवल ये साईराम ही चाहिए’ इस भाव के साथ ही अपने आप को सामूहिक उपासना, सेवा आदि में झोंक देना चाहिए ।

मुझे दूसरों से मान-सम्मान, वाहवाही, श्रेय (क्रेडिट) आदि कुछ भी नहीं चाहिए । मुझे सामूहिक उपासना से, सेवाकार्य से इस साईराम से इस साईराम को ही माँगना चाहिए । मैं प्रेमपूर्वक सबके साथ मिलजुलकर अपना काम करूँगा । ये सभी मेरे साई के ही भक्त हैं, मेरे भाई-बंधु ही हैं । फिर जिस तरह मैं अपने घरवालों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करता हूँ उसी तरह हर एक श्रद्धावान के साथ भी करूँगा । जितना मुझसे संभव हो सकेगा उतनी मैं सबकी सहायता ही करूँगा ।

मैं हर किसी के साथ अच्छा व्यवहार ही करूँगा, चाहे फिर कोई मेरे साथ कैसा भी व्यवहार क्यों न करे । मेरे बाबा सब कुछ जानते हैं । यदि मुझे कुछ कहने की इच्छा होगी भी, तो मैं अपने दिल की बात अपने बाबा से कहूँगा । परन्तु किसी को गुरुर के साथ उलटा जबाब नहीं दूँगा । अपनी गलती को कबूल कर उसे सुधार लूँगा ।

नौंवी बात इन चारों स्त्रियों से हमें सीखनी हैं वह यह है कि अपनी गलती कबूल कर, उसके प्रति पश्चाताप के रूप में उसे सुधारने के लिए हमें तत्पर रहना चाहिए और इसके लिए बाबा की आज्ञा का पालन तुरंत ही करना चाहिए । गेहूँ पीसने का काम पूरा हो जाने पर उन चारों के मन में उस आटे को चार हिस्सों में बाँटने की फलाशा प्रवेश करती है और उसके अनुसार वे उस आटे को चार हिस्सों में बाँट भी लेती हैं और उसे घर ले जाना चाहती हैं ।

यहीं पर बाबा क्रोध धारण करके उन्हें उनकी गलती बता देते हैं और तुरंत ही उस गलती को सुधारने के लिए उस आटे को ले जाकर गाँव की सीमा पर डाल देने की आज्ञा भी देते हैं । वे चारों भी तुरंत अपनी गलती मान लेती हैं, उन्हें पश्चाताप भी होता है और बाबा की आज्ञानुसार उस गलती को सुधारने का मौका मिलते ही तुरंत ही वह आटा वे ले जाकर गाँव की सीमा पर डाल देती हैं । जितनी तत्परता उनमें ‘बाबा पीसने बैठे हैं’ यह सुनने पर होती है, उतनी ही तत्परता अपनी गलती को सुधारते समय भी होती है, इस बात पर हमें ध्यान देना चाहिए । साथ ही बाबा के द्वारा गलती दिखाई जाने पर वे तुरंत ही उसे कबूल करती हैं, बाबा को किसी भी प्रकार की सफाई नहीं देती ।

‘‘बाबा, महीन आटे की जगह यह आटा खुरदरा हो गया इसीलिए हमें लगता हैं कि अब इस से भाकरी ही बन सकती है । बाबा, आप तो भाकरी बनाते नहीं, भिक्षा माँगते हो, फिर आप को इतना आटा क्यों चाहिए, इसीलिए हम भाकरी बनाने के लिए इसे ले जाना चाहते हैं । बाबा, हम चारों ने इसे पीसा है इसलिए इसे चार हिस्सों में बाँट दिया है । आप ने पहले तो ऐसा कुछ नहीं कहा था कि आटा आखिर चाहिए किसलिए?’’ इस प्रकार की कोई भी सफाई देकर वे स्वयं की गलती का समर्थन करती हुई दिखाई नहीं देती ।

‘हम सामान्य गृहस्थाश्रमी स्त्रियाँ हैं, हमें ये आटा देखकर मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि इसे घर ले जायें और इस प्रकार की ‘फलाशा’ रखने की गलती हमसे हो गई । हमारी गलती हमें मंजूर है, पूर्ण रूप से मंज़ूर है । मेरे बाबा सब कुछ जानते हैं, उनसे कुछ भी छिपा नहीं है । उन्हें हमारे मन की कल्पनाओं का पता है ही । फिर हम सफाई क्यों दें । जो है वह है ही, जो गलती हो गई वह हो गई, फिर अब जब मेरे बाबा उस गलती को सुधारने का मौका मुझे दे रहे हैं, तब ‘गलती क्यों हुई, कैसे हुई’ आदि बातों को घसकर, सर पीटने के बजाय उस गलती को सुधारने के लिए पल भर की देर न करते हुए, तुरंत ही उस आटे को ले जाकर गाँव की सीमा पर डाल देना चाहिए ।

‘मुझसे होनेवाली गलती के प्रति सचमुच मुझे पश्चाताप हो रहा है और उसके प्रायश्चित्त के रूप में इस आटे को तत्परता के साथ मैं गाँव की सीमा पर ले जाकर डाल दूँगी और इसके बाद मुझसे फिर से इस प्रकार की गलती न हो इस बात का मैं ध्यान रखूँगी और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मैं और भी अधिक प्रेमपूर्वक, अधिक उत्साह के साथ बाबा की उपासना-सेवा करते रहूँगी, जिससे फिर से गलती करने की कुमति उत्पन्न ही नहीं होगी । मेरे बाबा के इस ऋण का मैं सदैव स्मरण रखूँगी । एक दिन मेरे घर में भाकरी नहीं होगी तो भी कोई बात नहीं, पर मैं इस आटे को ले जाकर गाँव की सीमा पर डाल दूँगी, क्योंकि मेरे घर हर दिन भरपूर चपाती बनाने के लिए आटा मिले, चूल्हा जले इसके लिए सर्वप्रथम इस महामारी का नष्ट होना अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और इसीलिए मेरे बाबा यह योजना कर रहे हैं । आज यदि इस आटे को चुराकर मैं घर ले जाती हूँ, तो कल से मेरा चूल्हा ही नहीं जल पायेगा । महामारी यदि गाँव में आ गई तो जहाँ पर मैं, मेरे बाल-बच्चे, घर का कोई भी जीवित ही नहीं बचेगा । वहाँ पर चूल्हा क्या जलेगा? बाबा की आज्ञा का पालन यदि नहीं किया तो कल गाँव में चीता जलेगी, चूल्हा नहीं’ यही भाव उन चारों के मन में था।

उन चारों ने बिना कोई भी सफाई दिए अपनी गलती मान ली । मन:पूर्वक अपनी गलती पर पछताकर, पश्चाताप कर प्रायश्चित रूप में उस आटे को ले जाकर गाँव की सीमा पर डाल दिया । उन्होंने बाबा के आज्ञा का पालन तुरंत ही किया ।

अब आप ही बताइए कि यदि बाबा को ‘हाँ’ कहकर वे वहाँ से निकलकर गाँव की सीमा पर न जाकर उस आटे को अपने घर ले गई होतीं तो? पर नहीं, वे निर्मल मन की भोली-भाली स्त्रियाँ कभी भी ऐसा करेंगी ही नहीं । ‘बाबा की आज्ञा ही हमारे लिए प्रमाण है’ यही उनके आचरण का ब्रीद था ।

दसवी बात हमें यह सीखनी चाहिए कि चाहे जो भी हो जाये, पर सद्गुरु की आज्ञा का पालन हमें तुरंत ही करना चाहिए और वह भी बिना हिचकिचाये । ‘बाबा, इतनी मेहनत से ये गेहूँ पीसा गया है, उसे सीमा पर ज़मीन पर डालकर आप बेकार क्यों गँवा रहे हैं? इस तरह आटा गाँव की सीमा पर डालने से क्या होगा? क्या आटे से कहीं यह महामारी दूर हो सकती है?’ इस प्रकार के गलत प्रश्न उनके मन को छूते तक नहीं ।

बाबा ने जो कहा हैं, उसे करना ही है । ‘आटे से महामारी कैसे दूर होगी’ इस बात की चीर-फाड़ करने की ज़रूरत ही नहीं है, आटे को गाँव की सीमा पर ले जाकर ड़ाल देना हमारा काम है, महामारी कैसे दूर होगी यह बाबा देख लेंगे । उसमें मुझे चंचुप्रवेश करने की अथवा इस बात का कार्यकारण संबंध ढूँढ़ते नहीं बैठना है ।

यहीं सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण ग्यारहवी बात इन चारों से हमें सीखनी है । वे चारों कहीं भी गेहूँ और बीमारी का, आटे और महामारी का कार्यकारण संबंध जोड़ते नहीं बैठती हैं । बाबा से इस बारे में सवाल पूछकर वे बेकार के झमेले में नहीं पड़तीं ।
बाबा की हर एक लीला एवं कथा पढते समय हमें इस बात का ध्यान ज़रूर रखना चाहिए कि बाबा की लीलाओं का हिसाब-किताब करना, उनका ताल-मेल बिठाना यह सब सर्वथा अनुचित ही हैं ।

‘बाबा’ के शब्द, प्रत्यक्ष साईमुख का उच्चारण ही ‘रामबाण’ है और वह अपना काम अचूकता से करता ही है । हम सामान्य मानव हैं । हमारे बुद्धि से परे रहनेवाली ये सारी बातें हैं ।

हमें पिष्टपेषण न करते हुए यानी आटे को फिर से न पीस कर साईबाबा के वचन को प्रमाण मानकर बाबा की हर एक लीला का प्रेमपूर्वक आस्वाद लेना चाहिए ।

इस साईनाथ को सिर्फ प्रेम ही पहचान सकता है । सिर्फ प्रेम से ही ये हमें पूर्णत: अखंड रूप से मिलते हैं और इसीलिए इनकी हर एक लीला का अध्ययन करते समय बेकार में उनका ताल-मेल बिठाने के बजाय बाबा के प्रेम का उस लीला में अनुभव करना और बाबा के प्रेम को प्रतिसाद (रिस्पाँज़) कैसे देना है यह इन चारों स्त्रियों के आचरण से सीखना अति आवश्यक है ।

हेमाडपंत ने इसी भूमिका को अपनाकर उत्कट प्रेम से ही इस श्रीसाईसच्चरित की विरचना की है । यही बात वे हम से अध्याय के अंत में कहते हैं ।

One Response to "श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २६ )"

  1. Hemalata Kanta Raskar   May 6, 2016 at 9:21 pm

    या कथेतील सर्व मुद्दे सविस्तर समजले

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