श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २७ )

Saibabaश्रीसाईसच्चरित के इस प्रथम अध्याय में क्या कुछ नहीं है? सब कुछ है । मर्यादाशील भक्ति करने के लिए जो कुछ भी आवश्यक बातें हैं, वे सभी इस प्रथम अध्याय में साईबाबा ने हमें बता दी हैं । श्रीसाईसच्चरित का ‘श्रीगणेश’ जहाँ पर हुआ है, वह यह प्रथम अध्याय महागणपति-स्वरूप ही है और सभी विद्याओं का नैहर ही है । भक्तिमार्ग के प्रवास को आरंभ करते समय इस प्रथम अध्याय को पढ़ना, उसका अध्ययन करना, चिंतन-मनन-निदिध्यास के द्वारा उसे अपने आचरण में उतारना यही इस महागणपति को किया गया वंदन है । मूलाधार चक्र के आहार, विहार, आचार एवं विचार इन चारों दलों को पूर्णत: शुद्ध करनेवाला यानी मर्यादाशील भक्ति की मज़बूत नींव डालनेवाला यह अध्याय है ।

मंगलाचरण यह जैसे इन महागणपति का चरण ही है और ‘फलाशा का पूर्णविराम ही शुद्ध स्वधर्म है’ यह मर्यादाशील भक्ति की व्याख्या मानो श्रीगणेश का उदर है । प्रभु के उदर में जिस तरह अनंत ब्रह्माण्डों का समावेश होता है उसी प्रकार इस शुद्ध स्वधर्म की व्याख्या में भावार्थों का अनंत भंडार भरा हुआ है । इस अध्याय की कथा इस महागणपति का शीश है । इस कथा के अध्ययन से जीवन स्थिर हो जाता है । जैसे गणपति को देखते ही सारे राक्षस, असुर भाग जाते हैं, उसी तरह साईसच्चरित के प्रथम अध्याय की कथा से हमारे मन का अहंकार, षड्रिपु, दुर्गुण, विकल्प आदि सभी बुरी प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। इस कथा की चारों स्त्रियाँ ये मानो इस साई-गणेश की चार भुजाएँ हैं, भक्तों के कल्याण हेतु चित्त द्रवित होनेवाले के साई-हेरंब का गेहूँ पीसने का कार्य करनेवाली ये चार भुजाएँ हैं । फिर ऐसे इन भक्तों का कैवारी रहनेवाले साई-विनायक के होते हुए महामारी शिरडी में प्रवेश ही कैसे कर सकती है? इस साईगजानन ने स्वयं की चार भुजाओं से इस आटे को गाँव की सीमा पर डाल दिया और हमारे मन में दाखिल हो सकने वाली महामारी को प्रतिबन्धित कर दिया । विघ्नराजेन्द्र, संकटनाशन, नामों से जानेवाले साई-महागणपति ही इस अध्याय के अध्ययन से उद्भवित हुई श्रीसाईसच्चरित लेखन की प्रेरणा है। साई-सिद्धिविनायक अपनी सूँड से ही अपना यह निजचरित अपने भक्तों के लिए लिख रहे हैं। इस प्रथम अध्याय में ही हमारे जीवन में साई-ब्रह्मणस्पति क्रियाशील हो जाते हैं । ये मेरे साईगणेश अपना भक्ततारक बिरुद सच करने के लिए तत्पर हैं ही; मुझे ही अपनी भक्ति-सेवा में तत्पर रहना चाहिए ।

इस साई-लंबोदर को नैवेद्य अर्पण करना चाहिए- ग्यारह मोदकों का। इस साई-भालचंद्र को अर्पण करनी चाहिए- ग्यारह दूर्वाएँ । यह सब उन्हें अर्पण करना यह मेरी ज़रूरत हैं, भगवान की नहीं । यें ग्यारह मोदक, ग्यारह दूर्वा की जुडी अर्पण करनी चाहिए यानी हमने अब तक उत्तम भक्तों के जिन ग्यारह लक्षणों का अध्ययन किया, उन्हें अपने आचरण में उतारने का निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए । इस साई मयूरेश को मुझसे इन्हीं ग्यारह दूर्वाओं की अपेक्षा होती है ।

हमने प्रथम अध्याय की इस कथा में चारों स्त्रियों के जिन ग्यारह महत्त्वपूर्ण गुणधर्मों का महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया, उन गुणधर्मों को जीवन में उतारने के लिए निरंतर प्रयासशील रहना यह अधिक महत्त्वपूर्ण है । हमारे जीवन में कभी भी किसी भी स्तर पर महामारी न आये यही इस साईनाथ की इच्छा है और इसीलिए इस प्रथम अध्याय में ही उन्होंने हमारे लिए पैरों को गीला न करते हुए ही भवसागर तर जाने पैदल राह की निर्मिति कर रखी है । उस पर पहला कदम रखने के लिए गेहूँ पीसनेवाली उन चारों स्त्रियों से जो ग्यारह बातें हम सीखते हैं, उन्हें अपनाना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । दर असल इन ग्यारह गुणधर्मों को अपननना यही इस मार्ग पर रखा गया पहला कदम है, पारमार्थिक जीवन का पहला अध्याय है । श्रीसाईसच्चरित का यह प्रथम अध्याय हर एक भक्त के भक्तिजीवन का प्रथम अध्याय है । मर्यादाशील भक्ति के राजमार्ग पर रखा गया पहला कदम है और जो साईनाथ की दिशा में एक कदम आगे बढाता है, उसके लिए बाबा १०८ कदम दौडे चले आते हैं । हम आज उत्तम भक्तों के ग्यारह गुणधर्म, जो हमने गेहूँ पीसनेवाली कथा की उन चारों स्त्रियों से सीखे, उन पर एक नज़र डालेंगे ।

१) सर्वप्रथम मेरा साई, यही जीवन की प्राथमिकता (प्रायॉरिटी) होनी चाहिए ।

२) प्रत्यक्ष आज्ञा पाने की चाह में समय बरबाद किये बिना अपनी पूर्ण क्षमता के साथ साईनाथ के कार्य में अपने आप का न्यौछावर कर    देना ।

३) ‘क्यों’ इस संदेह को, प्रश्न को कहीं भी स्थान न देना (बाबा से ‘क्यों’ यह प्रश्न कभी भी न पूछकर, ‘जो जो मेरे लिए उचित है, वही तुम मुझे निश्चित ही दोगे, इतना ही मैं जानता हूँ और इसीलिए हे राघव, मेरी कोई तक़रार नहीं है’, यह निर्धार रखना।)

४) सहजता एवं स्निग्धता

५) उपासना एवं सेवा का ताल-मेल बिठाकर गृहस्थी एवं परमार्थ सुखमय बनाना ।

६) सदैव नाम का आश्रय लेना, सद्गुरु-गुणसंकीर्तन करना ।

७) दांभिकता एवं ऊपरी दिखावा कभी नहीं करना ।

८) सामूहिक उपासना एवं सेवा करते समय ‘यह मेरे साईनाथ का भक्ति-कार्य है, इस बात का ध्यान रखकर सभी श्रद्धावानों के साथ प्रेमपूर्वक, मिल-जुलकर सामूहिक एकता के साथ भक्तिमार्ग का वह कार्य करना; साथ ही व्यक्तिगत रूप से रोब जमाना, मानसम्मान अथवा इन जैसी अन्य किसी भी बात को सामूहिक उपासना एवं सेवा के कार्य में कोई भी स्थान न देना ।

९) साई के सामने अपनी गलती मान लेना, उसमें किसी भी प्रकार की बहानेबाज़ी न करना और झूठ को छिपाने की कोशिश न करना, कोई भी शिकायत न करना । अपनी गलती के प्रति मन:पूर्वक पश्चाताप होना ही चाहिए और सद्गुरु साईनाथ जो कहते हैं वह प्रायश्चित करने की (जो निश्चित ही बाबा मेरे हित के लिए ही करते है) तैयारी एवं उसी के अनुसार यानी बाबा की आज्ञा के अनुसार आचरण करना चाहिए । उसमें कोई कसर नहीं रहनी चाहिए ।

अपनी गलतियों को न दोहराने में चौकन्ना रहना चाहिए। गलतियों के लिए समझौता करने की, माफी माँगकर दूसरों से सहानभूति प्राप्त करने की अपेक्षा उन गलतियों से ही सीख लेकर स्वयं को सुधारना और फिर से वह गलती न होने पाये इसके प्रति ‘सावधान’ रहना अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

१०) सद्गुरु की आज्ञा का अचूकता से एवं तुरंत पालन करना । सद्गुरु के साथ, साई के साथ कभी भी झूठ आचरण न करना और उनकी आज्ञा का तुरंत ही पालन करना और उस आज्ञा के प्रति किंचित्-मात्र भी शंका- कुशंका मन में न आने देना ।

११) सबसे महत्त्वपूर्ण ग्यारवी बात है- सद्गुरु की, साई की लीलाओं के संदर्भ में नाप-तोल नहीं करना चाहिए। साईबाबा ने ऐसा क्यों किया? वैसा क्यों किया? उनका ऐसा करने के प्रति क्या कार्यकारण है? इस प्रकार के वृथा प्रश्नचिह्नों में फँसने के बजाय बाबा ने जो कहा है उस पर तुरंत अमल करना अनिवार्य है।

क्या गेहूँ से कहीं बीमारी दूर होती है? क्या आटे से कहीं महामारी का खात्मा हो सकता है? इस तरह की चिकित्सा या तर्क करते बैठने के बजाय उस कथा में रहनेवाली बाबा की अद्भुत लीला को पहचानकर, साईनाथ की भक्तवत्सलता को जानकर बाबा के प्रेम को मैं अधिक से अधिक प्रतिसाद (रिस्पाँज़) कैसे दे सकता हूँ, इस बात पर निरंतर सोचते रहना चाहिए ।

अध्याय के अंत में हेमाडपंत यही कहते हैं कि बाबा की लीलाओं का नाप-तोल करते मत बैठो । तुम्हें बाबा की लीला की थाह कभी भी नहीं मिलेगी । सिर्फ उनकी हर एक लीला में रहनेवाले उनके प्रेम का आस्वाद लो, अद्भुत रस का अनुभव लो । सत्य, प्रेम, आनंद एवं पावित्र्य का अनुभव लो और साईचरणों में अधिक से अधिक अनन्य निष्ठा के साथ संलग्न होकर बाबा के चरणों की धूल बन जाओ ।

दूसरे अध्याय के आरंभ में हेमाडपंत स्पष्टरूप से कहते हैं कि बाबा की लीलाओं को देखते ही मेरे हृदय में ‘प्रेम प्रवाहित होने लगा’ और हर मानव के हृदय में इसी प्रकार साईप्रेम का महाप्रवाह बहता रहे, इसीलिए श्रीसाईसच्चरित लिखने की प्रेरणा बाबा की कृपा से मुझे मिली है ।
ये ग्यारह गुणधर्म उन चारों में किस तरह लबालब भरे हुए थे, इसका अध्ययन हमने किया । वे चारों कोई संत-महंत नहीं थीं । अपना घरबार छोडकर बैरागी नहीं बनी थीं। वे कोई विद्वान-ज्ञानी नहीं थीं, वे हम में से ही थीं, तो फिर क्या हमारे लिए मर्यादाशील भक्ति को आचरण में उतारना असंभव हो सकता है? नहीं । बिलकुल भी नहीं । हमारी तरह ही इन चारों का भी घर परिवार था ही, परन्तु वह सब उनकी साईभक्ति के आडे नहीं आया । जब उन चारों को एक ही समय पर गृहस्थी एवं परमार्थ दोनों सुखमय बनाकर साईचरणधूलि बनने का सौभाग्य प्राप्त हो सका तो फिर मेरे लिए क्या यह असभंव है? हम भी बाबा की भक्ति में यह सिद्ध कर देंगे क्योंकि मेरे साईबाबा और मैं मिलकर जिसे करना संभव न हो ऐसा इस दुनिया में कुछ भी नहीं है ।’

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